Update
👉 नोखा - सामूहिक तप अभिनंदन का कार्यक्रम आयोजित
👉 बेंगलुरु - श्रीमती पुष्पादेवी फुलफगर (लाड़नु) की अन्तिम यात्रा
प्रस्तुति - 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 कोलकाता - चातुर्मास अनमोल क्षण करें स्वयं का आध्यात्मिक आरोहण कार्यशाला आयोजित
👉 जलगाँव - अ.भा.ते.म.म. कार्यसमिति सदस्याओं की संगठन यात्रा एवं उन्नति संगठन कार्यशाला आयोजित
👉 कांदिवली - श्री तुलसी रोजगार प्रशिक्षण सिलाई केंद्र के द्वितीय केन्द्र का उद्घघाटन
👉 कोयम्बत्तूर
🔹प्रभावी संभाषण की कला पर कार्यशाला
🔸 जैन विद्या कार्यशाला का आयोजन
🔹तेरापंथ प्रोफेशनल फार्म द्वारा मेडिकल कैम्प का आयोजन
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Update
👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
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आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल, माधावरम,
चेन्नई.......
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परम पूज्य आचार्य प्रवर
के प्रातःकालीन भ्रमण
के मनमोहक दृश्य....
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दिनांक:
08 अगस्त 2018
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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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News in Hindi
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 396* 📝
*वादकुशल आचार्य वादिदेव*
आचार्य वादिदेव दार्शनिक विद्वान् थे। वे प्रमाणनयतत्त्वलोकालङ्कार जैसी न्याय विषयक उत्तम कृति के रचनाकार थे। वादिदेवसूरि का मूल नाम देवसूरि था, पर वाद कुशलता के कारण उनकी प्रसिद्धि वादिदेव के नाम से हुई। अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर उन्होंने जैन धर्म के विशेष प्रभावना की।
*गुरु-परंपरा*
वादिदेवसूरि के गुरु सुविहित परंपरा के मुनिचंद्रसूरि थे। मुनिचंद्रसूरि उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य नेमिचंद्रसूरि के गुरु बंधु थे। उपाध्याय आम्रदेव बड़गच्छ के आचार्य उद्द्योतनसूरि के शिष्य थे। बड़गच्छ के सर्वदेवसूरि द्वारा नेमिचंद्रसूरि की आचार्य पद पर नियुक्ति हुई। नेमिचंद्रसूरि ने मुनिचंद्रसूरि को अपना पट्टधर घोषित किया। न्याय-विद्या का अध्ययन मुनिचंद्रसूरि ने पाटण में वादिवेदाल शान्त्याचार्य के पास किया था। वादिदेवसूरि नेमिचंद्रसूरि के पट्टधर मुनिचंद्रसूरि के शिष्य थे।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य वादिदेव वैश्य वंशज थे। प्राग्वाट (पोरवार) उनका गोत्र था। उनके पिता का नाम वीरनाग और माता का नाम जिनदेवी था। गुजरात प्रदेशांतर्गत अष्टादशशती नामक प्रांत का मदाहृत नामक नगर उनका जन्म स्थल था। मदाहृत नगर पर्वतमालाओं के बीच बसा हुआ दुर्गम स्थान था, जहां सूर्य की किरणों का प्रवेश भी कठिनता से होता था। 'प्रबंध पर्यालोचन' में प्राप्त उल्लेखानुसार पहाड़ के आसपास का प्रदेश उस समय अष्टादशशती नाम से प्रसिद्ध था और वह गुजरात प्रांत का एक प्रदेश था। मदाहृत शब्द रचना मण्डार नगर का संकेत करती है, पर वर्तमान का विख्यात मण्डार पर्वतमालाओं से घिरा हुआ नहीं है। उसके पश्चिम भाग में छोटी सी पहाड़ी है, अतः मदाहृत नगर रचना संबंधी वर्णन के अनुसार यह स्थान आबू की दक्षिणी उपत्यका में बसा हुआ महुआ गांव संभव है जो वैष्णवों का तीर्थ स्थल है।
*वादकुशल आचार्य वादिदेव के जीवन-वृत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 50* 📜
*शोभाचंदजी बैंगानी (द्वितीय)*
*उदार व्यवसायी*
शोभाचंदजी के तीन पुत्र– हणूतमलजी, अमोलकचंदजी और चंपालालजी थे। दो पुत्रियां भी थीं। व्यापार कार्य साझे में चलता था। सुजानगढ़ के जेसराजजी सिंघी, कालूरामजी भंसाली और हजारीमलजी नाहटा तथा पड़िहारा के फकीरचंद जी सुराणा उनके भागीदार थे। ये लोग तथा पुत्र हणूतमलजी आदि ही प्रायः व्यापार कार्य देखा करते थे। शोभाचंदजी अपने स्वामित्व काल में केवल दो बार ही कलकत्ता गए। प्रथम बार संवत् 1949 में अपनी दादी का उपचार कराने के लिए और दूसरी बार संवत् 1951 में व्यापारिक आवश्यकता से।
वे जितने धनी थे उससे कहीं अधिक उदार थे। सहयोग प्राप्ति की भावना से घर आए व्यक्ति को उन्होंने कभी रिक्त हस्त नहीं जाने दिया। इसीलिए समाज में उनका सम्मान करोड़पतियों से भी अधिक था। उनके परिग्रह की सीमा तीन लाख रुपये थी। जिस वर्ष दुकान में एक सीमा तक का लाभ शीघ्र हो जाता तो वे मुनीम गुमास्तों को महीने दो महीने के लिए अपने ही व्यय से आचार्यश्री की सेवा में भेज देते।
फकीरचंदजी सुराणा में उनके 72 हजार रुपए बाकी रह गए। वे 900 रुपए लेकर पड़िहारा से आए और उन्हें उनके सामने रख दिया। शोभाचंदजी ने उन्हें ले लिया गिनती के बिना ही पाड़खती लिखकर उन्हें दे दी। फकीरचंदजी ने कहा— "आप उन्हें गिन तो लेते।" शोभाचंदजी बोले— "जब मुझे ऋण मुक्ति देनी ही है, तब उन्हें क्या गिनना है? एक है, तो सही, हजार है तो सही।" उनकी बात सुनकर फकीरचंदजी गदगद हो गए।
रावतमलजी बैंगानी में उनके 7 हजार रुपए बाकी थे। संयोगवश उनका देहांत हो गया। उनकी पत्नी अपने पुत्र को साथ लेकर आई और हवेली की चाबियां उनके सामने रखती हुई बोली— "मैं पीहर जा कर रह जाऊंगी, आप रुपयों के बदले हमारी हवेली ले लें। क्योंकि आपके रुपए चुकाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।" शोभाचंदजी ने चाबियां वापस करते हुए कहा— "तुम अपनी हवेली में रहो। मैं किसी को उजाड़ना पसंद नहीं करता।" तत्काल पुत्र हणूतमलजी से कहा— "इसे पाड़खती लिखकर दे दो।"
शोभाचंदजी ने अपनी वृद्धावस्था में सब भागीदारों को अलग कर दिया। उस समय उनमें से अनेकों में फर्म के रुपए बाकी थे। कई व्यक्ति ऋण मुक्त होने के लिए अपने मकानों के पट्टे आदि लेकर आए, किंतु उन्होंने किसी से कुछ नहीं लिया। अपितु अपनी ओर से कुछ देकर ही उन्हें अलग किया। उन्होंने कहा— "मैं भागीदारी का कार्य इसीलिए समाप्त कर रहा हूं कि मेरे बाद मेरे पुत्र तुम्हें तंग न कर पाएं।"
*बीदासर के सेवाभावी श्रावक शोभाचंदजी की सेवा भावना* से परिचित होंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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