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👉 साकरी - मंगल भावना समारोह
👉 पर्वत पाटिया, सूरत - संस्कार निर्माण शिविर का आयोजन
प्रस्तुति - *संघ संवाद*
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👉 साकरी - मुमुक्षु अभिनन्दन समारोह
प्रस्तुति - *संघ संवाद*
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 322* 📝
*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द*
*साहित्य*
गतांक से आगे...
*प्रमाण-परीक्षा* यह प्रमाण विषयक संस्कृत रचना है। इस रचना में सम्यग्-ज्ञान को प्रमाण बताकर सन्निकर्ष आदि प्रमाण का निरसन एवं जैन दर्शन सम्मत प्रमाण-स्वरूप, प्रामाण्य की उत्पत्ति, प्रमाण की भेद संख्या, विषय और फल की विस्तृत चर्चा है। अनुमान प्रमाण के संदर्भ में पात्रकेशरी द्वारा निर्दिष्ट हेतु लक्षण का समर्थन बौद्ध दर्शन सम्मत त्रैरूप्यात्मक एवं पंचरूप्यात्मक लक्षण की समीक्षा आचार्य विद्यानन्द ने की है। आचार्य पात्रकेशरी ने हेतु लक्षण की चर्चा करते हुए लिखा है—
*अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं।*
*नन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं।।*
आचार्य विद्यानन्द लिखते हैं—
*अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम्।*
*नन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम्।।*
इस कृति में आप्त परीक्षा कृति का भी उल्लेख है। इससे यह कृति आप्त परीक्षा के बाद की रचना प्रमाणित होती है।
अनुमान प्रमाण का जैन दर्शन सम्मत विस्तृत वर्णन, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान दोनों भेदों की सयौक्तिक सिद्धि, उपमान एवं अर्थापत्ति प्रमाण का अनुमान प्रमाण में अंतर्भाव, परमार्थ प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष (इंद्रीय प्रत्यक्ष) की चर्चा तथा एतद् विषयक अन्य सामग्री न्याय विषयक बिंदुओं को समझाने में बहुत उपयोगी है।
*पत्र-परीक्षा* आचार्य विद्यानन्द कि यह गद्य पद्यात्मक रचना है। शास्त्रों के प्रसंग में गूढ़ क्रिया पदों से गर्भित पत्रों के विवेचन में इस प्रकरण की रचना हुई। इस प्रकरण में जैन दर्शन सम्मत पत्र लक्षणों की चर्चा एवं पत्र लक्षण के संदर्भ में दर्शनान्तरीय पत्र लक्षणों की मान्यताओं का निरसन है। प्रतिज्ञा और हेतु को अनुमान प्रमाण का लक्षण बताया है। इस ग्रंथ की वादचर्चा ज्ञानवर्धक है। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, कपिल एवं सुगत इन सभी के मतों की समीक्षा तर्कपूर्ण शैली में है। जैन परंपरा में यह पत्र परीक्षा कृति संभवतया आचार्य विद्यानन्द की प्रथम और अंतिम रचना है। प्रभाचंद्र ने प्रमेय कमल मार्तण्ड के अंत में पत्र वाक्य की चर्चा की है। पत्र वाक्य की चर्चा में प्रभाचंद्राचार्य पर आचार्य विद्यानन्द का प्रभाव परिलक्षित होता है।
*सत्यशासनपरीक्षा* यह एक समीक्षात्मक रचना है। वर्तमान में यह अपूर्ण रचना ही उपलब्ध है। अतः विद्वानों का अभिमत है कि यह आचार्य विद्यानन्द की अंतिम रचना है।
*1.* पुरुषाद्वैत-शासन-परीक्षा
*2.* शब्दाद्वैत-शासन-परीक्षा
*3.* विज्ञानाद्वैत-शासन-परीक्षा
*4.* चार्वाक-शासन-परीक्षा
*5.* बौद्ध-शासन-परीक्षा
*6.* सांख्य-शासन-परीक्षा
*7.* नैयायिक-शासन-परीक्षा
*8.* वैशेषिक-शासन-परीक्षा
*9.* भाट्ट-शासन-परीक्षा
*10.* प्रभाकर-शासन-परीक्षा
*11.* तत्त्वोपप्लव-शासन-परीक्षा
*12.* अनेकान्त-शासन-परीक्षा
इन 12 शासनों (मतों) की परीक्षा के लिए आचार्य विद्यानन्द प्रतिज्ञाबद्ध जान पड़ते हैं। पर पुरुषाद्वैत-शासन-समीक्षा से भाट्ट-शासन तक की पूर्ण समीक्षा एवं प्रभाकर शासन की अपूर्ण समीक्षा सत्य शासन परीक्षा ग्रंथ में उपलब्ध है। अंतिम दो अनुपलब्ध हैं। विभिन्न मतों की समीक्षा के द्वारा आचार्य विद्यानन्द ने जैन दर्शन का उत्कर्ष सिद्ध किया है। परीक्षान्त ग्रंथों में आचार्य विद्यानन्द के इस 'सत्य शासन परीक्षा' ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है।
*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द की रचना श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र व उनके आचार्य-काल के समय-संकेत* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 146* 📝
*दुलीचंदजी दुगड़*
*पुत्र की प्रतिक्रिया*
गतांक से आगे...
जयाचार्य ने तब साध्वी गुलाबांजी को आहार-पानी आदि किसी वस्तु की याचना के लिए न जाने का आदेश दे दिया। दुलीचंदजी की आपत्ति समाप्त हो गई और वे उन्हीं पैरों से अपने घर लौट आए।
जयाचार्य तथा सरदार सती के प्रभाव में आकर यद्यपि दुलीचंदजी वहां कुछ भी नहीं बोल पाए, परंतु उनके मन की फांस निकली नहीं। धार्मिक क्षेत्र में उनकी रुचि कम हो गई। साधु-साध्वियों के पास जाना-आना उन्होंने बंद कर दिया। रह-रहकर उनके मन में यही बात टीसती रहती की मां की दीक्षा के विषय में उन्हें क्यों नहीं कुछ पूछा या बतलाया गया। क्या दत्तक पुत्र होने के कारण उनसे सब कुछ छुपाया गया? कभी उन्हें अपनी मां पर आक्रोश होता तो कभी जयाचार्य पर। क्योंकि उन्होंने भी तो उनकी अनुमति की कोई आवश्यकता नहीं समझी। इस प्रकार अपने ही विचारों की उधेड़बुन में उलझकर वे एक प्रकार से एकांतवासी और उदासीन बन गए।
*तिरानवे दिनों में*
उधर साध्वी गुलाबांजी की मानसिक स्थिति पर जयाचार्य कि उक्त निषेधाज्ञा का प्रबल प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगीं— "धर्म शासन को मुझे सेवा देनी चाहिए, किंतु मैं तो अभी से सेवा लेने लगी हूं। क्या मैं आजीवन इसी प्रकार सेवा लेती रहूंगी?" इन विचारों ने उन्हें झकझोर डाला। जयाचार्य की आज्ञा और सरदार सती की व्यवस्था के प्रति उनके मन में पूर्ण आदरभाव था। फिर भी निरंतर दूसरों की सेवा पर निर्भर रहने के लिए उनका मन तैयार नहीं हो पाया। उन्होंने तपस्या प्रारंभ कर दी। प्रारंभ में एकांतर तक किया। फिर दो बेले और तीन तेले किए। अंतिम तेले में उनकी शारीरिक स्थिति अत्यंत निर्बल हो गई। उन्होंने तब सागार अनशन ग्रहण कर लिया। दो मुहूर्त्त के पश्चात संवत् 1909 भाद्रव कृष्णा 10 को नाथद्वारा में उनका शरीरांत हो गया। केवल तिरानवे दिनों के अल्पकाल में उन्होंने अपना कार्य सिद्ध कर लिया।
*'दरसाव' और उद्बोधन*
लाडनूं में दुलीचंदजी अपने मकान की बैठक में अकेले ही बैठे हुए थे। उन्हें अचानक सुनाई दिया— "दुलीचंद! और दुलीचंद!" दुलीचंदजी ने इधर-उधर देखा, किंतु कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने समझा यों ही कोई भ्रम हो गया है। परंतु दूसरे ही क्षण फिर वही आवाज सुनाई दी— "दुलीचंद! सुनता है?" दुलीचंदजी ने फिर चारों ओर देखा, पर कोई दिखाई नहीं दिया। उनके रोंगटे खड़े हो गए। अपनी मां की सी आवाज़ लगी, पर वे तो दीक्षित हो चुकीं और इस समय जयाचार्य के साथ नाथद्वारा में हैं। वे असमंजस में पड़े इस रहस्य के विषय में सोच ही रहे थे कि उन्हें साध्वी गुलाबांजी अपने सामने खड़ी दिखाई दीं। वे कह रही थीं— "पगले! तूने बहुत साधारण बात पर श्रद्धाहीन होकर अपना सम्यक्त्व खो दिया। पर देख, मैंने तो थोड़े ही दिनों में अपना कल्याण कर लिया है। तुझे फिर से धर्म में दृढ़ होना है और धर्म शासन में अटूट निष्ठा रखते हुए 'खैर का खूंटा' बनना है।"
दुलीचंदजी नतमस्तक होकर सुनते रहे। वे कुछ बोल नहीं पाए। अपने अपराध की तीव्र अनुभूति ने मानो उन्हें जकड़ दिया। कथन की समाप्ति पर जब उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं तो पाया कि वह आकृति दूर और अदृश्य होती जा रही है। वे तत्काल समझ गए कि उनकी मां दिवंगत हो गईं हैं। मां की दीक्षा से उत्पन्न तनाव ने उनके पैरों को धार्मिक क्षेत्र से भटका दिया था, परंतु उक्त 'दरसाव' ने उनको पुनः सूस्थिर कर दिया। उसी दिन उन्होंने निर्णय कर लिया कि धर्म शासन की सेवा में सर्वभावेन समर्पित होकर ही रहना है। वे पहले से भी अधिक जागरूक होकर धर्म-ध्यान में लग गए।
*श्रावक दुलीचंदजी की धार्मिक वृत्ति* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 न्यूयॉर्क (अमेरिका) - भारतीय दूतावास में महावीर जन्म कल्याणक कार्यक्रम में समणी जी जी सहभागिता
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👉 चिकमंगलूर: श्री संचेती द्वारा अणुव्रत समिति के नए संगठन का शुभारंभ
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👉 चित्रदुर्ग: नई अणुव्रत समिति के निर्माण में महासमिति की भूमिका
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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