11.05.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 11.05.2018
Updated: 14.05.2018

News in Hindi

Google celebrates legendary dancer's 100th birth anniversary with a doodle #Famous_Jains

Mrinalini Vikram Sarabhai (A Jain, 11 May 1918 - 21 January 2016) was an Indian classical dancer, choreographer and instructor. She was the founder and director of the Darpana Academy of Performing Arts, an institute for imparting training in dance, drama, music and puppetry, in the city of Ahmedabad. She received many awards and citations in recognition of her contribution to art. She trained over 18,000 students in Bharatnatyam and Kathakali. She was the wife of the Indian physicist Vikram Sarabhai, the father of Indian Space Exploration Program and founder of ISRO.

Google celebrates legendary dancer's 100th birth anniversary with a doodle.

#Mrinalini_Sarabhai #Vikram_Sarabhai #Jainism #Google_Doodle

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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के त्याग के बारे में जानिए, वास्तव में इस पंचम काल में चरित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी के बाद पूर्णतया आगम अनुरूप चर्या देखना है तो वो है आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज उनके त्याग तपस्या चर्या इस प्रकार है -

• आजीवन चीनी का त्याग ।
• आजीवन नमक का त्याग ।
• आजीवन चटाई का त्याग ।
• आजीवन हरी का त्याग ।
• आजीवन दही का त्याग ।
• सूखे मेवा (Dry Fruits) का त्याग ।
• आजीवन तेल का त्याग ।
• सभी प्रकार के भौतिक साधनो का त्याग ।
• थूकने का त्याग ।
• एक करवट में शयन ।
• पूरे भारत में सबसे ज्यादा दीक्षा देने वाले ।
• पूरे भारत में एक मात्र ऐसा संघ जो बाल ब्रह्मचारी है ।
• पुरे भारत में एक ऐसे आचार्य जिनका लगभग पूरा परिवार ही संयम के साथ मोक्षमार्ग पर चल रहा है ।
• शहर से दूर खुले मैदानों में नदी के किनारो पर या पहाड़ो पर अपनी साधना करना ।
अनियत विहारी यानि बिना बताये विहार करना ।
• प्रचार प्रसार से दूर- मुनि दीक्षाएं, पीछी परिवर्तन इसका उदाहरण ।

आचार्य देशभूषण जी महराज से जब ब्रह्मचारी व्रत के लिए जब स्वीकृति नहीं मिली तो गुरुवर ने व्रत के लिए 3 दिवस निर्जला उपवास किया और स्वीकृति लेकर माने। ब्रह्मचारी अवस्था में भी परिवार जनो से चर्चा करके अपने गुरु से स्वीकृति लेते थे और परिजनों को पहले अपने गुरु के पास स्वीकृति लेने भेजते थे। आचार्य भगवंत सम दूसरा कोई संत नज़र नहीं आता जो न केवल मानव समाज के उत्थान के लिए इतने दूर की सोचते है वरन मूक प्राणियों के लिए भी उनके करुण ह्रदय में उतना ही स्थान है। शरीर का तेज ऐसा जिसके आगे सूरज का तेज भी फिका और कान्ति में चाँद भी फीका है।

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जैसा हम ग्रंथो में पढ़ते हैं.. पहले हर जैन घर में शुध भोजन बनता था महाराज कही भीआहार कर लेते थे.. वैसा आज हुआ वो भी दिल्ली में! जिसे भोग भूमि कहते हैं #आचार्यविद्यासागर जी!

आज शंकर नगर मे मुनिद्वय का प्रवचन के पश्चात आहार चर्या होनी थी दो मुनिराजो के लिये दो ही चौके की व्यवस्था थी, पहले चौके मे प्रणम्य सागर जी का पडगाहन हो गया ओर दूसरे मे चन्द्रसागर जी की विधि नही मिली ओर महाराज जी अनियत दिशा की ओर चल पडे मानो उन्हे मालूम हो कि इस दिशा मे चौका है, शंकर नगर से मै सत्येन्द्र ओर जैन मंच के सौरभ जैन एवम ब्रहमचारी जी महाराज जी का पीछे चलने लगे
हम हतप्रभ भी थे ओर चिंतित भी थे कि जिस तरफ महाराज जी जा रहे है उधर तो चौका है ही नही क्या करे?

तभी पंकज जैन का फोन आया उनके मम्मी पुष्पा जैन शोध का भोजन लेती है स्वयं कुए के पानी से तैयार करके बोले कि हमारे घर पर आहार तैयार है आप महाराज जी को हमारे घर ले आओ हम लोग महाराज जी को लेकर श्री आनंद जैन पंकज जैन के घर पहुचे तो वह लोग पडगाहन के लिये तैयार खडे थे, महाराज जी की विधि मिल गई एवम आहार सानंद सम्पन्न हुआ कही पर सुना था कि सच्चे मुनि के लिये आहार नही बनाया जाता, तैयार ही रहता है यह आज अपनी आँखो से देख भी लिया जिनके घर मे आहार हुआ उनको नही मालूम था कि आज उनके घर मुनि महाराज का आहार होगा

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आचार्यश्री का अपने शिष्यों को प्रायश्चित देने का क्या तरीका है, वह कठिन प्रायश्चित देते हैं या सरल? Answer by #MuniPramansagar G • #ShankaSamadhan

देखिए, आचार्य महाराज, आचार्य हैं और प्रायश्चित में भी बहुत कुशल हैं। प्रायश्चित, शास्त्र के विधान अनुसार व्यक्ति के सत्त्व, व्यवस्था और दोष इन सभी को ध्यान में रखकर दिया जाता है। लेकिन प्रायश्चित के संदर्भ में मैंने दो बातें देखी। वह सदैव प्रायश्चित देते नहीं, हम उनसे प्रायश्चित लिया करते हैं। वे कहते हैं। प्रायश्चित देने की चीज नहीं, लेने की चीज है। अगर तुम्हारे हृदय में अपराधबोध ही नहीं तो प्रायश्चित लेकर क्या करोगे? दण्ड दिया जाता है, प्रायश्चित लिया जाता है। वह कहते हैं अपने मुँह से अपना अपराध प्रकट करो, अपनी आलोचना करो और प्रायश्चित करो। किसी के लिए जब कभी कोई भी प्रायश्चित होता है तो प्रायश्चित देने में भी पूरी तरह से अपने हिसाब से किसी भी तरह की कटौती नहीं करते हैं। लेकिन कोई साधु कैसा भी अपराध करे, प्रायश्चित दे देने के बाद उनका दृष्टिकोण साधु के प्रति उतना ही स्नेह और उदारता युक्त होता है, हीन-दृष्टि से नहीं देखते।

आपने कहा अपने जीवन में प्रायश्चित का कोई अनुभव बताइए। एक घटना जिसने मुझे भीतर तक प्रभावित किया। हमारी मुनिदीक्षा के बाद हम सभी नवदीक्षित मुनियों को एक सामूहिक नियम दिया। मुझे कहा तो मैंने कहा गुरुदेव यह नियम मेरे लिए कठिन है, फिर भी आपकी आज्ञा है तो मैं प्रयास करूंगा। नियम लिया नहीं था और गुरुदेव का मेरे लिए आग्रह भी नहीं था। पर हुआ यह कि किसी का नियम नहीं पला। मैंने स्वयं आगे आकर अपने साथियों से कहा कि गुरुदेव ने हमें एक छोटा-सा नियम निभाने के लिए कहा और हम लोग इस नियम को नहीं निभा पाए, हमारे लिए इससे बड़ी लज्जा की बात कोई और नहीं होगी। हमें गुरुचरणों में चलकर इसका प्रायश्चित लेना चाहिए और मैं खुद अपनी अगुवाई में अपने सभी साधु साथियों के साथ गुरुदेव के चरणों में गया व प्रायश्चित का निवेदन किया। गुरुदेव ने सभी को प्रायश्चित दे दिया। मुझे प्रायश्चित नहीं दिया मैंने कहा- गुरुदेव प्रायश्चित? गुरुदेव ने कहा तुम्हारे लिए प्रायश्चित की जरूरत नहीं। बैठा रहा, वह अपना पढ़ने में लग गए, मुझे देखे ही नहीं। 10 मिनिट निकल गए मैं उठकर आ गया। दूसरे दिन फिर गया। गुरुदेव! प्रायश्चित? कहा न, तुम्हारे लिए प्रायश्चित नहीं है और फिर से गुरुदेव अपने कार्य में लग गए, देखा ही नहीं नजर उठाकर।

इन शब्दों ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मेरे कान में यह शब्द कि तुम्हारे लिए प्रायश्चित नहीं। मेरे मन में यह आ गया कि क्या मैं इतना बड़ा अपराधी हो गया कि मैं प्रायश्चित के ही अयोग्य हो गया। सच्चाई यह है कि वह तीन दिन मेरे संक्लेश के दिन रहे। मेरा सामायिक में भी मन नहीं लगा मेरे मन की व्यथा मेरे चेहरे पर आसानी से देखी जा सकती थी। तीसरा दिन आया, आहार के उपरान्त जब हम लोग ईर्यापथ और प्रत्याख्यान करते हैं तो उसके बाद निकल रहा था, गुरुदेव ने इशारा किया और कहा दो उपवास कर लेना। मैं समझ गया, बिना नँ-नुकर के मैंने कायोत्सर्ग किया और उपवास का संकल्प लिया। समय पर दो उपवास पूर्ण किए, गुरु चरणों में गया और गुरुदेव से पूछा, गुरुदेव आपकी कृपा से मैंने उपवास तो पूरे कर लिए पर मुझे यह समझ नहीं आया कि आपने मुझे प्रायश्चित पहले क्यों नहीं दिया? गुरुदेव ने जो बात कही थी वह बहुत समझने लायक है। उन्होंने कहा मैं यह देखना चाहता था कि प्रायश्चित नहीं देने का क्या परिणाम होता है? मैंने उनके चरणों में अपना शीश रखा और मन ही मन अपने आप को सराहा कि चलो कम से कम मैं गुरु की परीक्षा के लायक तो हुआ और उसमें पास भी हुआ। यह उनका अपना तरीका है, वह सभी को अपने ढंग से मापते हैं

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श्री सिद्ध क्षेत्र पालिताना: जहा से तीन पांडव युधिस्ठिर, भीम और अर्जुन सहित आठ करोड़ द्रविड़ राजाओ ने मोक्ष प्राप्त किया है तथा एक भव्य शांतिमय दिगंबर जैन मंदिर पहाड़ पर है जहा मंत्रमुग्ध करदेने वाली जिन प्रतिमाय है तथा एक मंदिर निचे है वो भी बहुत प्राचीन है! जब भी जाए दोनों मंदिर के दर्शन जरुर करे तथा यथाशक्ति दान भी करे!

Shri Shatrunjaya Giri, Palitana is an ancient famous place of salvation, from where three Pandavas Yudhishthir, Bheem & Arjun got Nirvana (Attain full & final liberation from world). This is a sacred place from where 8 crores of Dravida Kings attained salvation by accepting penance for self-purification, thus vanishing Ashta Karma. This Siddha Kshetra is described in ancient Prakrit & Sansakrit texts.

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मैं #जन्म से ही जैनी हूँ, मैं भी #लहसून #प्याज तक का सेवन नहीं करता हूँ, #भगवानमहावीर के बताये मार्ग पर हमने लाखों - करोड़ों लोगों का मांसाहार त्याग करवाया । मैं सर्वोच्च जैन #आर्यिकाज्ञानमति माता जी को कृतज्ञ प्रणाम करता हूँ -योग गुरु #बाबारामदेव @ भगवान महावीर जन्म भूमि कुंडलपुर 🙃

जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुंडलपुर जी (नालंदा, बिहार) में प्रसिद्ध योग गुरू बाबा रामदेव जी का आगमन हुआ। श्री कुंडलपुर जी दिगम्बर जैन तीर्थ के पदाधिकारियों ने योग ऋषि बाबा रामदेव का भव्य स्वागत किया । बाबा रामदेव ने पहले भगवान महावीर स्वामी प्रतिमा के समक्ष दर्शन व मंगल आरती किया, स्वस्ति श्री रविंद्रकीर्ती स्वामी जी ने तिलक लगाकर उनका अभिवादन किया। नद्यावर्त महल जैन तीर्थ में अध्यक्ष स्वस्ति श्री रविंद्रकीर्ती स्वामी जी, नद्यावर्त तीर्थ मंत्री विजय कुमार जैन, प्राचीन जैन तीर्थ कुंडलपुर क्षेत्र प्रबंधक जगदीश जैन आदि लोगों ने मंच पर भव्य तरीके से माला, उपहार, भगवान महावीर प्रतीक चिंह्, मोमेंटो आदि भेंट कर बाबा रामदेव जी का स्वागत किया । स्वस्ति श्री रविंद्रकीर्ती जी ने कहा कि भगवान महावीर ने प्रथम उपदेश राजगृह जी में ही सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य का संदेश पूरे संसार को बांटा । इस बीच बाबा रामदेव ने कहा कि मैं जन्म से ही जैनी हूँ, मैं भी लहसून-प्याज तक का सेवन नहीं करता हूँ, भगवान महावीर के बताये मार्ग पर हमने लाखों - करोड़ों लोगों का मांसाहार त्याग करवाया यह कुंडलपुर (नालंदा) विश्वशांति का तीर्थ है, ये पुण्यधरा तीर्थ लाखों - करोड़ों लोगों को आस्था से जोड़ती हैं। मैं सर्वोच्च जैन आर्यिका ज्ञानमति माता जी को कृतज्ञ प्रणाम करता हूँ कि उनका मंगल आर्शीवाद मुझे प्राप्त हुआ है। उक्त बातें बाबा रामदेव ने कुंडलपुर दिगम्बर जैन तीर्थ में अपने संबोधन में कहा और वो इस पुण्यधरा का दर्शन करना चाहते थे, आज वो इस पावन तीर्थ पर पधार कर बेहद ही सौभाग्यशाली और बेहद ही प्रसन्न हुए। बता दें कि कुंडलपुर जैन तीर्थ की संरचना और खूबसूरत वादियों को देखकर बहुत ही अभिभूत हुयें ।

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The Vatarshana Munis - THE ANTIQUITY OF JAINISM [ In this pic Digambara Ascetic Muni Chinmaya-Sagara G doing Tapasya in Jungle]

Rishabhadeva has been described as the incarnation of Vishnu for the establishment of the religion of Vatarashana Munis." "These Munis appeared pisanga (Pingalavarna) because they were indifferent to bathing, even though they were Maladhari that is unclean, due to sweat etc. They used to remain silent and looked wild owing to their meditative practices. By controlling breathing (by means of pranayama) they used to attain to godhood. The mortal world could only see their external bodies, not their inner soul.

Dr. Hiralal Jain has explained "They are Munis and their ways of renunciation, silence and non-attachment distinguish them from the Rishi tradition. But a new word Vatarashana is connected with them. Vata means air and vashana means girdle or waistband. Therefore the meaning is air-cloth or one whose clothing is air, that is, naked. This is not a new term for the Jain tradition, and it occurs in Jina sahasranama - Thousand names for Jina- Thus:-

"According to this Vatarashana, Digvasa, Nigganthas and Digambara, all these are synonymous terms and indicate a naked or nude state, So it can be concluded that at the time of the Rigveda composition such munis were in existence who used to go about naked and who were revered as gods in the Rishi tradition and were eulogized and worshipped.

Lord Rishabha (ऋषभ) is regarded as the first and Lord Vardhamana (Mahavira, महावीर)is regarded the last Tirthankar to attain enlightenment (599-527 BCE) of the present six-cycle period of Jain chronology. Before Mahavira, Jain tradition was known by many names such as Sraman Nirgganthas/nirgranthas Arhat Vatarshana Muni Vratya.

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