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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 81* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*सदगुण-रत्न-महोदधि आचार्य महागिरी*
आर्य महागिरि जैन परंपरा के दशपूर्वधर प्रभावक आचार्य थे। वे निरतिचार संयमधर्म के आराधक थे। और जिन-कल्प तुल्य साधना करने वाले विशिष्ट साधक थे। तीर्थंकर महावीर की पट्टधर परंपरा में उनका क्रम नौवां है। दशपूर्वधर परंपरा में आचार्य महागिरि का प्रथम स्थान है।
*गुरु-परंपरा*
आचार्य महागिरि के दीक्षा गुरु एवं विद्यागुरु श्रुतधर आचार्य स्थूलभद्र थे। आचार्य स्थूलभद्र श्रुतधर आचार्य संभूतविजय के शिष्य एवं आचार्य भद्रबाहु के उत्तराधिकारी थे। सद्गुण रत्न महोदधि आर्य महागिरि अपने दीक्षा गुरु आचार्य स्थूलभद्र के उत्तराधिकारी थे।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य महागिरि का जन्म एलापत्य गोत्र में हुआ। उनका जन्म समय वी. नि. 145 (वि. पू. 325, ई. पू. 382) है। उनके गृहस्थ जीवन से संबंधित विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। परिशिष्ट पर्व आदि ग्रंथों के अनुसार आर्य महागिरि का पालन आर्य यक्षा द्वारा हुआ। इसी कारण से महागिरी के नाम से पूर्व आर्य विशेषण जुड़ा हुआ है। लोकश्रुति के अनुसार आर्य शब्द की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई। जैन ग्रंथों में आचार्य सुधर्मा और जंबू आदि के साथ भी आर्य शब्द का प्रयोग मिलता है।
*जीवन-वृत्त*
आर्य महागिरि बाल्यकाल से ही श्रीसंपन्न, धृतिसंपन्न एवं शील संपन्न थे। आर्य यक्षा के मार्गदर्शन में उनके जीवन का बहुमुखी विकास हुआ। संसार से विरक्त होकर 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने श्रुतधर आचार्य स्थूलभद्र के पास वी. नि. 175 (वि. पू. 295, ई. पू. 352) में मुनि दीक्षा ग्रहण की। गुरु की सन्निधि में वे 40 वर्ष तक रहे। इस अवधि में आर्य महागिरि ने श्रुतधर आचार्य स्थूलभद्र से दशपूर्वों का ज्ञान ग्रहण किया।
आर्य सुहस्ती, आचार्य स्थूलभद्र द्वारा दीक्षित मेधावी श्रमण थे। आर्य सुहस्ती की दीक्षा के समय आचार्य स्थूलभद्र वृद्धावस्था में थे। भावी संघ व्यवस्था का प्रश्न उनके सामने प्रमुख था। एक दिन उन्होंने व्यवस्था कार्य के लिए गंभीरता से चिंतन किया। आचार्य पद निर्णय के समय धीर, गंभीर, श्रुतधर आचार्य स्थूलभद्र ने अपने स्थान पर शांत, दांत, लब्धिसंपन्न, आगमविज्ञ, आयुष्मान, भक्ति परायण आर्य महागिरी एवं सुहस्ती इन दोनों शिष्यों की नियुक्ति की। इसका कारण उभय शिष्यों का प्रभावशाली व्यक्तित्व था।
उस समय एकतंत्रीय शासन की परंपरा प्रचलित थी। उभय शिष्यों की नियुक्ति एक साथ होने पर भी कार्य संचालन की दृष्टि से परस्पर एक दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे। दीक्षा क्रम में ज्येष्ठ शिष्य आचार्य पद के दायित्व को निभाते थे। आचार्य यशोभद्र एवं स्थूलभद्र के द्वारा आचार्य पद के लिए दो शिष्यों की एक साथ नियुक्ति होने पर भी यशस्वी आचार्य यशोभद्र के बाद उनके दायित्व को दीक्षा क्रम में ज्येष्ठ होने के कारण आचार्य संभूतविजय ने एवं आचार्य स्थूलभद्र के बाद उनका दायित्व आचार्य महागिरि ने संभाला था।
*आचार्य महागिरि के प्रभावक जीवनवृत्त* से आगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 81📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
*संस्कारी श्रावक*
*48. चेनो• (चैनजी श्रीमाल)*
मारवाड़ में लाटोती गांव से खरतरगच्छ के श्रीपूज जिनचंद्रसूरीजी आए। वे गांव में उपाश्रय में ठहरे। वे व्याख्यान देने लगे। व्याख्यान में काफी लोग आने लगे। एक दिन नौ तत्त्वों के विवेचन में आश्रव का विवेचन चला। श्रीपूजजी ने कहा— 'आश्रव अजीव है।' श्रोताओं में से किसी ने आपत्ति नहीं की। तेरापंथी श्रावक चैनजी श्रीमाल भी वहां थे। वे खड़े होकर बोले— 'श्रीजी महाराज! आश्रव जीव है।' श्रीपूजजी ने कहा— 'तुम्हारी धारणा गलत है।' चैनजी बोले— 'महाराज! मैं आपकी आशातना करना नहीं चाहता, पर मुझे लगता है कि आपकी धारणा गलत है।'
श्रीपूजजी ने व्याख्यान में बात बढ़ानी उचित नहीं समझी। उस प्रसंग को वहीं समाप्त करते हुए कहा— 'यह चर्चा बाद में करेंगे।' प्रवचन के बाद उन्होंने विद्वान् यतियों को बुलाकर शास्त्र देखने का निर्देश दिया। यति चर्चावादी थे। उन्होंने शास्त्र देखकर कहा— 'शास्त्रीय दृष्टि से आश्रव जीव है।' श्रीपूजजी बोले— 'मैंने व्याख्यान में गलत प्रारूपणा कर दी।' उन्होंने चैनजी को बुलाकर कहा— 'चैनजी! तुम्हारी बात ठीक है। मैंने आश्रव को अजीव बताया, वह गलत है। उसके लिए मैं "मिच्छा मि दुक्कडं" करता हूं और मैं तुमको खमाता हूं।' इतना कहने के बाद उन्होंने आगे कहा— 'चैनजी! यह खमतखामणा औपचारिक है। वास्तविक खमतखामणा कल व्याख्यान में होगा।'
दूसरे दिन व्याख्यान के समय परिषद् के बीच में श्रीपूजजी बोले— 'चैनजी! कल मैंने आश्रव को अजीव कहा, वह गलत है। मैंने शास्त्रों में जांच कराई है। वहां आश्रव को जीव बताया है। इसलिए तुम सच्चे हो। मैं असत्य संभाषण के लिए "मिच्छा मि दुक्कडं" स्वीकार करता हूं और तुमसे खमतखामणा करता हूं।'
परिषद् में चैनजी के तत्त्वज्ञान का प्रभाव पड़ा तो इस बात का भी प्रभाव पड़ा कि श्रीपूजजी कितने उदार हैं। अपनी गलत बात को भी भरी परिषद् में स्वीकार करना और खमतखामणा करना बहुत कठिन है। ऐसे उदाहरण विरल ही मिलते हैं।
*तेरापंथ के नौ आचार्यों की परंपरा में सबसे पहले बाव को पूज्य चरण से पवित्र कराने वाले चूनी भाई मेहता* के प्रेरक व्यक्तित्व पढ़ेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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👉 बुढलाडा (पंजाब) - मंगलभावना का कार्यक्रम आयोजित
👉 कमरेज (सुरत) - एक शाम तुलसी के नाम"
👉 कुभ्भकोणम - गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का 21वां महाप्रयाण दिवस पर कार्यक्रम आयोजित
👉 बलांगीर - तेरापंथ युवक परषिद का शपथ ग्रहण समारोह आयोजित
👉 बैंगलुरू (गांधीनगर) - महिला सशक्तिकरण कार्यशाला आयोजित
👉 सोलापुर - तेयुप अध्यक्ष के लिए श्री जिनेन्द्र सुराणा निर्वाचित
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🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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