08.08.2020 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 08.08.2020
Updated: 08.08.2020

Updated on 08.08.2020 20:22

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#चैेतन्य का #अनुभव* : *श्रृंखला ४*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा, जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।

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👉 जयपुर ~ जैन संस्कार विधि द्वारा नूतन गृह प्रवेश
👉 फरीदाबाद समाज की शैक्षणिक गौरव
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👉 कोटा ~ तप अनुमोदना
👉 तिरुप्पूर ~ तप अनुमोदना
👉 सुजानगढ़ ~ अणुव्रत समिति द्वारा वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन
👉 मेहसाणा ~ जैन संस्कार विधि से नामकरण संस्कार
👉 सादुलपुर-राजगढ़ ~ अणुव्रत समिति द्वारा कविता प्रतियोगिता का आयोजन
👉 सादुलपुर-राजगढ़ ~ अणुव्रत समिति द्वारा निबंध प्रतियोगिता का आयोजन
👉 जलगांव ~ मुनि श्री अनंत कुमार जी का मासखमण तप संपन्न

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प्रस्तुति : 🌻 *संघ संवाद*🌻

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 101* 🕉️

*42. तादात्म्य परम के साथ*

आचार्य सिद्धसेन प्रस्तुत श्लोक में निवेदन कर रहे हैं— मैं लक्ष्य तक पहुंच जाऊं यही फल मुझे आपके चरणकमलों की भक्ति का मिले।

आदमी निष्फल कार्य करना नहीं चाहता। ऐसा कार्य करना नहीं चाहता, जिसका फल न मिले। गीता में कहा गया— फल की आकांक्षा मत करो। क्या आज यह संभव है? निष्फल क्रिया कौन करेगा? कोई भी समझदार व्यक्ति वह क्रिया नहीं करेगा जिसका परिणाम न आए।

भक्ति का फल है— आत्मशोधन, निर्जरा। इसके सिवाय और कोई आकांक्षा न हो। यही मोक्ष है। आत्मा की जितनी-जितनी शुद्धि, उतना-उतना मोक्ष। मोक्ष कोई एक दिन में नहीं होता। कोई भी काम एक दिन में संपन्न नहीं होता। एक परम्परा होती है।

आज आम का बीज बोया। क्या आज ही फल मिल जाएगा? गेहूं, चावल आदि अनाज के बीज बोएं और आज ही फल चाहें तो नहीं मिलेगा। खाद, जल सिंचन, धूप आदि का योग मिलता है तब उचित समय पर परिपाक होता है। उचित श्रम और शक्ति का नियोजन होता है तब फल प्राप्त होता है।

निष्ठा, समर्पण और धैर्य— भक्ति के साथ इनका विकास जरूरी है। ये नहीं होते हैं तो आदमी भगवान को भी भला-बुरा कह देता है। जो चाहा वर मिल गया तो बहुत बड़ी भक्ति हो गई और जो चाहा, नहीं मिला तो गालियां देनी शुरू कर दी। कुछ लोग जो देव-भक्ति करते हैं, फल मिल जाता है तो बड़े भक्त बन जाते हैं और कभी काम पूरा नहीं होता तो गालियां भी देने लग जाते हैं। यह भक्ति नहीं है। यह तो स्वार्थपूर्ति का बहाना है। इसीलिए आचार्य कहते हैं— *'संततसंचितायाः'*— भक्ति का क्रम निरंतर चलता है। भक्ति हर स्थिति में होती है। कोई भी परिस्थिति आए, भक्ति में अन्तर नहीं आएगा। आपकी भक्ति का फल मैं इतना ही चाहता हूं कि आप मेरे स्वामी बन जाएं। मुझे स्वीकार कर लें। यही मेरी प्रार्थना है।

आचार्य हेमचन्द्र ने वीतराग-स्तव में लिखा— प्रभो! मैं आपका प्रेष्य हूं, दास हूं, सेवक हूं, किंकर हूं। आप केवल ओम् कह दो, बस हां कह दो और मैं आपसे कुछ नहीं चाहता।

*तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि,*
*सेवकोऽस्म्यस्मि किंकरः।*
*ओमिति प्रतिपद्यस्व नाथ!*
*नातः परं ब्रुवे।।*

आचार्य सिद्धसेन भी यही कह रहे हैं कि आप मुझे स्वीकार कर लो, मेरे स्वामी बन जाओ और जब कोई स्वामी बनता है तब सेवक को किसी प्रकार की चिंता नहीं रहती। स्व-स्वामी संबंध होता है। जब स्वामी है तो उसका स्व बन गया, आत्मीय बन गया। फिर उसको कोई चिंता नहीं रहती। माँ की करुणा इतनी सघन होती है बच्चे को कोई चिंता नहीं रहती। क्योंकि वह रक्षक है। आचार्य कह रहे हैं— आप मेरे स्वामी बन जाओ। *'तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य! भूया:'*— मैं आपको स्वामी इसीलिए बना रहा हूं कि आप ही शरण हैं, और कोई दूसरा शरण नहीं है। समस्या का समाधान है शरण में होना। श्रीकृष्ण ने कहा— *'मामेकं शरणं व्रज'*। यह अहंकार की भाषा नहीं है। जब तक व्यक्ति एकनिष्ठ नहीं बनता, तब तक जो चाहता है वह उसे नहीं मिलता। आखिर एकनिष्ठ होना होता है।

*परम के साथ एकनिष्ठा स्थापित कर लेने से क्या उपलब्धि होती है...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 344* 📜

*श्रीमद् जयाचार्य*

*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*

*होली के छींट*

जयाचार्य लाडनूं में विराज रहे थे। होली के दिन थे। चारों ओर होली खेलने का वातावरण था। छोटे-बड़े, धनी-निर्धन, ग्राम्य-नागर आदि भेद स्वतः ही गौण हो गये थे। प्रायः सभी की आकृतियां और परिधान विभिन्न रंगों के बेतरतीब छपाकों से कर्बुर बने हुए थे। फिर भी अवसर मिलते ही एक-दूसरे पर रंग का पानी डाला जा रहा था। कुछ ऐसे भी थे जो मर्यादातिक्रम करके गंदा पानी तथा कीचड़ भी डाल रहे थे।

सायंकाल के समय शौच से निवृत्त होकर जयाचार्य वापस आ रहे थे। मार्ग में ओसवाल समाज के अनेक युवक परस्पर रंग डालने में व्यस्त थे। जयाचार्य के पदार्पण का पता लगते ही सब सावधान हों, उसी बीच किसी ने अपने साथी पर गंदा पानी फेंक दिया। साथी तो उससे सराबोर हुआ ही, पर कुछ छींटे जयाचार्य के वस्त्रों पर भी गिरे। उपस्थित सभी व्यक्तियों को उसका अनुताप हुआ। आचार्यश्री ने कुछ नहीं कहा और वे आगे बढ़ गये। युवक भी उनके पीछे-पीछे ही प्रवास-स्थल पर आये। अज्ञानवश हुए प्रमाद के लिए क्षमा-याचना करते हुए उन्होंने प्रायश्चित्त की मांग की।

जयाचार्य ने फरमाया— 'यदि तुम अपने प्रमाद का प्रायश्चित्त करना चाहते हो तो संकल्प ग्रहण करलो कि भविष्य में होली के अवसर पर गन्दे पदार्थों का प्रयोग नहीं करोगे।' उपस्थित सभी व्यक्तियों ने वह संकल्प ग्रहण किया। इस प्रकार होली के छीटों ने युवकों के संस्कारों में परिष्कार लाने का मार्ग प्रशस्त किया।

*स्थान तो नहीं ला सकते*

जयाचार्य का चतुर्मास बीदासर में था। चित्तौड़ के ताराचन्दजी ढीलीवाल वहां सेवा करने के लिए आये। वे एक सम्पन्न व्यक्ति थे और सुख-सुविधा से रहना पसन्द करते थे। जयाचार्य के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी। प्रायः प्रतिवर्ष चतुर्मास-काल में वे आते और महीने-दो महीने तक सेवा में रहकर धार्मिक लाभ लेते। सुविधा के लिए अपने पशुओं को भी वे प्रायः अपने साथ ले आया करते थे। बीदासर में भी वे अपने पशुओं को साथ लेकर आये। उनके ताम-झाम को देखकर बीदासर-वासी रुष्ट हुए। उन्हें उसमें अपना अपमान भासित हुआ कि क्या बीदासर में इन्हें दूध मिलने की भी सम्भावना नहीं थी जो पशुओं को साथ लाये हैं? ठहरने के लिए स्थान की पूछताछ करते समय किसी ने व्यंग्य भी कस दिया कि स्थान भी साथ ले आते तो अच्छा रहता।

ठहरने के लिए उन्हें कई स्थान दिखलाये गये, परन्तु कहीं पशुओं के ठहरने की उपयुक्त व्यवस्था नहीं थी तो कहीं स्वयं के। वे काफी खिन्न हुए। उपर्युक्त व्यंग्य ने तो उनको तिलमिला दिया। उन्हें लगा कि जानबूझ कर उपयुक्त स्थान नहीं दिया जा रहा है। वे जयाचार्य के पास आये और कहने लगे— 'कृपा करके मंगलपाठ सुना दीजिए।'

जयाचार्य ने साश्चर्य पूछा— 'क्या इस बार केवल दर्शन करने के लिए ही आये हो?'

ढीलीवालजी बोले— 'नहीं गुरुदेव! आया तो कई महीनों की सेवा के लिए ही था, परन्तु लगता है, अन्तरायकर्म का उदय है।'

जयाचार्य— 'अचानक ही कौनसी बाधा उपस्थित हो गई?'

ढीलीवालजी— 'उपयुक्त स्थान नहीं मिल पाया। लोग कहते हैं कि गायें साथ लाये हो तो स्थान भी ले आते। इसलिए अभी तो जा रहा हूं। अगले वर्ष आऊंगा तब तम्बू आदि के रूप में घर भी साथ लाऊंगा।'

जयाचार्य ने स्थानीय श्रावकों को उपालम्भ देते हुए फरमाया— 'सेवा में आने वाले व्यक्ति अन्य आवश्यक सामान तो साथ ला सकते हैं, परन्तु स्थान तो नहीं ला सकते। वह तो स्थानीय व्यक्तियों का ही कर्तव्य माना जाता है कि अपने साधर्मिकों के लिए स्थान की व्यवस्था करें।' उन्होंने उन सबको ढीलीवालजी द्वारा प्रतिवर्ष की जाने वाली लम्बी सेवाओं से परिचित कराया। कर्तव्य-बोध पाकर वे साधर्मिकता के प्रति जागरूक बने। स्थान की उपयुक्त व्यवस्था होते फिर देर नहीं लगी।

*जयपुर के सेठ अनंतरामजी दीवान द्वारा गुरु-धारणा ग्रहण के एक रोचक प्रसंग...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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