07.08.2020 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 07.08.2020
Updated: 07.08.2020

Updated on 07.08.2020 22:48

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#चैेतन्य का #अनुभव* : *श्रृंखला ३*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा, जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।

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Updated on 07.08.2020 09:46

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 100* 🕉️

*41. आकांक्षा पवित्रता की*

सिद्धसेन उत्कृष्ट वैराग्य की भूमिका में आरोहण कर अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से मोक्ष की याचना कर रहे हैं। वे आत्म निवेदन अथवा प्रार्थना के स्वर में कहते हैं— देवेन्द्र! आप इन्द्र द्वारा वन्दनीय हैं। केवल वन्दनीय होने से काम नहीं होता। आपकी विशेषता यह है कि जो संपूर्ण ज्ञान का विकास आपके भीतर हुआ है और आपने तत्त्व को जाना है, यह विकास बहुत प्रयत्न-साध्य है।

हमारी दुनिया में दो प्रकार के तत्त्व हैं— सूक्ष्म और स्थूल। हमारे पास इन्द्रियां हैं। हम इन्द्रियों से स्थूल तत्त्व को जान लेते हैं किन्तु सूक्ष्म तत्वों को इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। स्थूल दृष्टि वाले लोग स्थूल बात पर अटक जाते हैं, सूक्ष्म तक जाने का प्रयत्न नहीं करते। अगर सूक्ष्म तक चले जाएं तो विवाद का कोई विषय नहीं रहेगा। जहां स्थूल है और जहां सिर्फ इन्द्रिय चेतना काम करती है, वहां इन्द्रिय-चेतना का जो अंतिम रूप बनता है वह है तर्क और अनुमान। यही सीमा है इन्द्रिय चेतना की। इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाले लोग छोटी-छोटी बात पर लड़ाई झगड़ा करते हैं और साम्प्रदायिक उन्माद को भी बढ़ावा देते हैं, किन्तु सूक्ष्म तत्त्व को जानने वाले कभी कलह-कदाग्रह में नहीं जाते।

प्रभो! आपने सारे तत्त्वों के सार को विदित कर लिया है, जान लिया है। आप स्वयं संसार-समुद्र के पार जा रहे हैं और दूसरों को भी तारने वाले हैं। आप विभु हैं, आपका संपूर्ण ज्ञान व्यापक है, सब जगह फैला हुआ है। वह किसी सीमा में बद्ध नहीं है, इसीलिए आप भुवन के अधिनाथ बन गए हैं।

प्रभो! आप करुणा के ह्रद हैं। ह्रद को बनाया नहीं जाता। वह जल का नैसर्गिक स्रोत है। बावड़ी, कुआं आदि को खोदा जाता है तब पानी निकलता है। ह्रद वह होता है जिसकी खुदाई नहीं होती। स्वभावतः भूमि से पानी निकलता है। आप करुणा के ह्रद हैं, जलाशय हैं इसलिए— हे स्वामिन्! *'त्रायस्व'*— आप मेरी रक्षा करो। *'मां पुनीहि'*— मुझे पवित्र बना दो।

प्रश्न हो सकता है— इतना डर क्या है कि कोई तुम्हारी रक्षा करे? कौन आक्रमण कर रहा है? साधु हैं, पास में पैसा नहीं है तो फिर डर किस बात का है? क्यों डर रहे हैं? क्यों इतनी याचना कर रहे हैं? सिद्धसेन ने स्वयं इस प्रश्न का उत्तर दे दिया— यह संसार-समुद्र है, कष्टों का घर है। उन कष्टों से मैं अवसाद में जा रहा हूं, इसलिए आप मेरी रक्षा करो। कुछ कष्ट तो ऐसे होते हैं जो आते हैं तब आदमी डरता है। चले जाते हैं तो सामान्य हो जाता है। किन्तु कुछ कष्ट ऐसे होते हैं जो कभी जाते ही नहीं हैं।

यह संसार दुःखमय है। यहां जन्म और मृत्यु का चक्र चल रहा है। आज एक व्यक्ति मनुष्य गति में है। मरने के बाद पता नहीं कहां जाएगा? आदमी मरने के बाद पशु हो सकता है, पक्षी हो सकता है, छोटा कृमि भी हो सकता है। कोई स्वर्ग और नरक में भी जा सकता है। संसार इतना विचित्र है कि इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। पिछले कितने जन्मों में आदमी किस रूप में रहता आ रहा है, यह जानना कठिन है और जान जाए तो उसे संभालना भी बड़ा कठिन है। जिस व्यक्ति में धैर्य नहीं, क्षमता नहीं, यदि उसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाए तो समस्या पैदा हो सकती है, दुःख पैदा हो सकता है। भारतीय दर्शन में दो परम्पराएं रही हैं— दुःखवाद और सुखवाद।

जैन और बौद्ध— ये दोनों परम्पराएं दुःखवाद का अनुसरण करती हैं। भगवान् महावीर ने कहा—

*जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य।*
*अहो! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो।।*

संसार में जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है। सारा संसार दुःखमय है। इसलिए व्यक्ति मोक्ष की याचना कर रहा है। भगवान् बुद्ध का भी यहीं वचन है— संसार में दुःख है इसीलिए व्यक्ति मोक्ष की याचना कर रहा है।

मोक्ष में न टी.वी. है, न इन्टरनेट। न मोबाइल है और न आइपोड। आखिर वहां क्या है? कुछ भी नहीं। फिर मोक्ष की कामना क्यों? संसार पदार्थ बहुल है, मोक्ष पदार्थ रहित है। वहां न कोई बाजार है, न कोई ज्वैलरी। न हीरा, न पन्ना। न रुपया, न पैसा। फिर मोक्ष की इच्छा क्यों? पदार्थ के साथ दुःख जुड़ा है। व्यक्ति दुःख से मुक्त होना चाहता है। दुःख-मुक्त होने के लिए पदार्थ के ममत्व से मुक्त होना अनिवार्य है।

इसीलिए आचार्य प्रार्थना कर रहे हैं— प्रभो! मैं विपत्तियों से पीड़ित हूं। वे मुझे भयभीत कर रही हैं। आप मेरी रक्षा करो और मुझे पवित्र बना दो। पदार्थ की मूर्छा के कारण मेरा जीवन अपवित्र बना हुआ है। अब मैं पवित्र होना चाहता हूं।

यह पवित्रता की आकांक्षा साधना के संकल्प को प्राणवान् बनाती है और इससे सिद्धि का पथ प्रशस्त हो जाता है।

*परम के साथ तादात्म्य में कैसे स्थापित हो...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 343* 📜

*श्रीमद् जयाचार्य*

*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*

*प्रतिबोध-दान*

जयाचार्य की प्रतिबोधक शक्ति अनन्य थी। अप्रतिबुद्ध व्यक्ति उनके सम्पर्क में आकर प्रतिबुद्ध हो जाते और अस्थिर स्थिर। विक्रम सम्वत् 1885 के जयपुर चतुर्मास में अग्रणी जय के पास समझे 52 व्यक्तियों में एक रामचन्दजी कोठारी थे। वे एक सुदृद धार्मिक व्यक्ति थे, परन्तु कालान्तर में शंकाशील बन गये और साधु-साध्वियों को वंदन करना छोड़ दिया। विक्रम सम्वत् 1907 के शेषकाल में युवाचार्य जय का जयपुर पदार्पण हुआ। वे रामचन्दजी कोठारी से मिले और वंदन-व्यवहार छोड़ देने का कारण पूछा। कोठारीजी ने कहा— 'अनेक साधु सदोष आचरण को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। उन्हें वंदन कैसे किया जा सकता है?'

युवाचार्य ने कहा— 'भगवती सूत्र में पुलाक-निर्ग्रन्थ के पांच भेद बतलाये हैं। उनमें एक दर्शन-पुलाक है। आवेशवश यदि कोई साधु सदोष कार्य को निर्दोष घोषित करता है तो उसका यह तात्पर्य नहीं कि वह वैसा मानता भी है। आवेशवश की गई घोषणा से वह अपने सम्यक्त्व को निस्सार अवश्य बनाता है, परन्तु सम्यक्त्वहीन नहीं हो जाता। सम्यक्त्वहीन होने पर उसे निर्ग्रन्थ के भेदों में कैसे गिना जा सकता है? आवेशवश किये गये दोष का प्रायश्चित्त कर लेने पर वह निर्दोष हो जाता है।'

कोठारीजी ने युवाचार्य के उस तर्कपूर्ण कथन के हार्द को समझा और बोले— 'युवाचार्यश्री! आप ठीक फरमा रहे हैं। मैं आपके कथन को समझ गया हूं। कठिनाई यह है कि मुनि तो आग्रहवश कही गई बात का प्रायश्चित करके निर्दोष हो जाते हैं, परन्तु उनके मन का दूसरों को क्या पता लगे? ये तो अश्रद्धाशील बनकर उलझ जाते हैं। सबको तो आप जैसे प्रतिबोधक नहीं मिल पाते। अब मेरे मन में कोई उलझन नहीं है। मैं आज से वंदन-व्यवहार पुनः प्रारंभ करता हूं।' इस प्रकार युवाचार्यश्री के एक प्रतिबोध-दान ने कोठारीजी को धर्म-मार्ग में पुनः सुस्थिर कर दिया।

*व्यसन-मुक्ति*

जयपुर के पनराजजी लूणिया श्रद्धाशील श्रावक थे। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे। मित्रों की संगति से जुआरी बन गये। उनकी उस वृत्ति से पारिवारिक जन अत्यन्त खिन्न रहने लगे। उनकी पत्नी तथा पुत्र सरदारमलजी ने मिलकर एक योजना बनाई। उसी के अन्तर्गत पूरे परिवार ने पाली में जयाचार्य के दर्शन किये। सरदारमलजी ने एकान्त में आचार्य श्री को सारी स्थिति से अवगत करते हुए प्रार्थना की कि आप ही उन्हें व्यसन-मुक्त कर सकते हैं, अन्य कोई उपाय नहीं है।

जयाचार्य ने पनराजजी को जुआ खेलने के त्याग की प्रेरणा दी। वे त्याग करना नहीं चाहते थे, पर लज्जावश इनकार भी नहीं कर सके। चुप रहे। जयाचार्य ने फिर भी उन्हें त्याग करवा दिया और फरमाया— 'मैंने यह त्याग अपनी ओर से इस विश्वास पर करवाया है कि तुम मेरे कथन को सादर शिरोधार्य करोगे।'

पनराजजी अपनी मानसिक असमंजसता की स्थिति में कुछ भी बोल नहीं पाये। गुरु-चरणों में वंदन किया और वहां से चल पड़े। जयपुर पहुंचे तो उनके सम्मुख समस्या थी कि मित्रों से क्या कहें? उन्होंने मित्रों के आगमन के समय श्मशान में जाकर सामायिक करना प्रारंभ कर दिया। कई दिनों तक घर पर नहीं मिलने के कारण मित्रों ने अपनी बैठक कहीं अन्यत्र जमा ली और वे उस कुसंगति से सहज ही छूट गये।

एक दिन पनराजजी श्मशान-भूमि में सामायिक-साधना में लीन थे। उसका एक मित्र आया और उनकी अंगुली से हीरे की अंगूठी निकाल कर ले गया। जाते समय उसने धर्म की सौगन्ध दिलाकर किसी तीसरे व्यक्ति को बतलाने का निषेध कर दिया।

पनराजजी सामायिक पूर्ण कर पर आये। उनकी अंगुली में अंगूठी नहीं देखी तो घरवालों को सन्देह हुआ कि जुए में हार आये है। अंगूठी बीस हजार रुपयों की थी। स्थिति जानने के लिए पत्नी ने पूछा तो वे मौन रहे। सन्देह तब विश्वास में परिणत हो गया।

जयाचार्य तक शिकायत पहुंची। उन्होंने पनराजजी को उपालाभ देते हुए फरमाया— 'मैंने समझा था कि तु संकल्प को निभायेगा, परन्तु मैं भूल पर था।'

पनराजजी ने कहा— 'गुरुदेव! मेरा संकल्प यथावत् है। उसमें कोई त्रुटि नहीं हुई है। परन्तु अंगूठी के विषय में अभी मैं कुछ भी बतलाने की स्थिति में नहीं हूं।'

जयाचार्य ने उनके कवन को व्यर्थ समझा और कठोर उपालम्भ दिया। उन्होंने नम्रतापूर्वक उसे सहन किया और चुपचाप घर आ गये।

कालान्तर में उनके मित्र ने अंगूठी लौटाते हुए कहा— 'आर्थिक विवशता से घिर कर मैंने तुम्हारी अंगूठी ली थी। इसे गिरवी रखकर मैंने अपना काम निकाला। अब मैंने पैसे कमा लिए हैं, अतः इसे छुड़ा लाया हूं। इस घटना के विषय में पूर्ण मौन रह कर तुमने मेरी लाज रख ली। वस्तुतः तुम मेरे सच्चे मित्र हो।'

परिजनों के सम्मुख अब उनके मौन का रहस्य खुला। अंगूठी वापस आ जाने से ये सब प्रसन्न थे। जयाचार्य को सारी स्थिति ज्ञात हुई तब वे भी अपने श्रावक की संकल्प-दृढ़ता तथा गम्भीरता से बहुत प्रभावित एवं प्रसन्न हुए। पनराजजी भी बहुत प्रसन्न थे कि व्यसन-मुक्त बनाकर जयाचार्य ने उनको पतन से बचा लिया।

*श्रीमद् जयाचार्य द्वारा संस्कारों में परिष्कार लाने... साधार्मिकता के प्रति जागरूक बनने का मार्ग प्रशस्त करने वाले... प्रेरक प्रसंगों...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#चैेतन्य का #अनुभव* : *श्रृंखला २*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
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