Updated on 27.05.2020 20:01
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग* : *श्रृंखला ४*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।
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Posted on 27.05.2020 08:33
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 50* 🕉️
*16. विग्रह शमन का मार्ग*
सिद्धसेन के सामने एक और प्रश्न आ गया। प्रश्न ही नहीं, समस्या आ गई— प्रभो! मैं आपकी स्तुति कर रहा हूं किन्तु मन में एक बड़ी उलझन है। वह यह है— जो मनुष्य जिसके माध्यम से आपका ध्यान करते हैं, आप उसी का विनाश कर देते हैं।
कोई भी आदमी ध्यान करता है तो आंख मूंद कर शरीर को स्थिर करता है। फिर अपने हृदयप्रदेश में, मस्तिष्क में, चैतन्यकेन्द्रों में और विशेष मर्मस्थानों में आपका ध्यान करता है। *विभाव्यसे, ध्यायसे, स्मर्यसे*— आपकी विभावना की जाती है, आपका ध्यान किया जाता है, आपकी स्मृति की जाती है।
स्मृति का माध्यम कौन है? हमारा शरीर। ध्यान करने का माध्यम कौन है? हमारा शरीर। शरीर के बिना कोई ध्यान नहीं होता, शरीर के बिना कोई स्मृति नहीं होती। जो सबसे अच्छा माध्यम है— *यस्य अन्त:*— जिसके अन्तर में आपका ध्यान किया जाता है उसी शरीर का आप नाश कर देते हैं! जो व्यक्ति सहायता करे, कम से कम उसकी तो रक्षा करनी चाहिए। विनाश नहीं करना चाहिए। जो ध्यान करने का माध्यम बना उसी का आप नाश कर देते हैं। कैसे हैं आप? आश्चर्य है। लोग कहेंगे— जिसने स्थान दिया उसी का नाश कर दिया। अच्छा नहीं लगता।
स्तुति उस व्यक्ति की करनी चाहिए जो शरणागत की रक्षा करे। जो स्थान दे, आश्रय दे, उसकी रक्षा करनी चाहिए।
हमारा शरीर सबसे बड़ा माध्यम है। बेचारे शरीर को दोनों बातें सहनी पड़ती हैं। एक ओर शरीर को नौका कहा गया— *सरीरमाहु नावत्ति*— शरीर नौका है। दूसरी ओर शरीर को सब अनर्थों की जड़ कहा गया। नश्वर, क्षणभंगुर, त्याज्य और हेय कहा गया। यह भी कहा गया— यह शरीर अशुचि का भण्डार है। वस्तुतः किसी भी अशरीर वाले ने आज तक साधना नहीं की। सारी साधना किसने की है? जिसके पास अच्छा शरीर है, विकास उसी के माध्यम से हुआ है। जिसके पास अच्छा मस्तिष्क है उसने दुनिया में विकास किया है। उस शरीर को, जो अपने भीतर स्थान देता है, आपको विराजमान करता है उसी शरीर का विनाश कर देते हो! अमरबेल जिस वृक्ष पर उगती है, उसी वृक्ष का रस सोख लेती है। क्या यह अमरबेल जैसा ही नहीं हो रहा है?
दार्शनिक जगत् में दो शब्द बहुत चर्चित रहे हैं— अमूर्त और मूर्त। अमूर्त वह है जो दिखाई नहीं देता। मूर्त वह है जो दिखाई देता है। दार्शनिक लोगों ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया, अदृश्य को देखने का प्रयत्न किया और उसका उपाय भी खोज निकाला। ज्ञान अमूर्त है। लिपि का विकास किया, ज्ञान को मूर्त बना दिया। अगर लिपि नहीं होती तो ज्ञान अमूर्त ही रहता, हमारे सामने नहीं आता। लिपि है, इसीलिए पुस्तकें प्रकाशित होती हैं, अमूर्त मूर्त बन जाता है। हजारों-हजारों वर्ष पहले के ग्रंथ आज हमारे सामने हैं। लिपि नहीं होती तो ये ग्रंथ नहीं होते। काल अमूर्त है। वह दिखाई नहीं देता। आदमी ने घड़ी बनाई, काल को मूर्त बना दिया। इसीलिए काल का ज्ञान हो रहा है। आत्मा और परमात्मा अमूर्त है। उसका भी मूर्तीकरण किया गया।
इसी मनीषा को सामने रखकर आचार्य ने कहा— प्रभो! आप अहिंसक हैं, दयालु हैं। आपने काठ में जलते हुए सर्प को बचाया था। आप यह क्या कर रहे हैं? विचित्र स्थिति है। जो भक्त श्रद्धालु आपको अपने हृदय में, मस्तिष्क में बिठाता है और आप उस शरीर को भी नष्ट कर देते हैं! हम सोच भी नहीं सकते कि इतने दयालु, कृपालु, अहिंसक होकर यह कैसे कर सकते हो?
*आचार्य सिद्धसेन अपने प्रश्नों में उलझते ही गए... या उनको कोई समाधान भी मिला...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 293* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*साधुओं का धन*
लिखने का परिश्रम आखिर किस प्रेरणा के आधार पर स्थित किया जाए? उक्त समस्या का समाधान उन्होंने एक नये रूप में ही खोज निकाला। उन्होंने सोचा, जिस प्रकार ज्ञान तथा तपस्या को साधुओं का धन माना जाता है, उसी प्रकार लिपि-कार्य के श्रम को भी क्यों न उनका धन गिन लिया जाए? उसका सम्बन्ध ज्ञान और तपस्या दोनों से ही है। ज्ञान का जहां वह एक उत्कृष्ट साधन है, वहां मनोयोग की एकाग्रता का उत्तम साधन एवं सत्-क्रिया होने के कारण तपस्या के अन्तर्गत भी आ जाता है। इस प्रकार उसे साधु का धन मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । जयाचार्य के उक्त चिन्तन ने जब कार्यरूप ग्रहण किया तब वह 'गाथा-प्रणाली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वस्तुतः उसे अकिंचन साधुओं की एक अभूतपूर्व अर्थ-प्रणाली कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
'गाथा' शब्द शास्त्रीय है और एक पद्य-विशेष का द्योतक है। परन्तु जयाचार्य ने उसे बत्तीस अक्षर-प्रमाण गद्य-लेखन तथा फिसी भी एक पद्य-लेखन के अर्थ में प्रयुक्त किया है। उन्होंने 'गाथा-प्रणाली' को प्रचालित करते हुए यह स्थापना की कि जो साधु जितनी गाथाएं लिखेगा, वे उसकी जमा कर ली जाएंगी, परन्तु लिपिकर्ता के अक्षर तथा लेख्य ग्रन्थ पहले से आचार्य द्वारा स्वीकृत होने चाहिए।
*अग्रगामियों पर कर*
गाथा-प्रणाली चालू कर देने पर भी जयाचार्य के सामने यह समस्या थी कि कोई क्यों उन गाथाओं को एकत्रित करने का प्रयास करेगा? अनुपयोगी वस्तु को संगृहीत करने की किसी की इच्छा होगी भी तो क्यों? आखिर उन्होंने उसमें उपयोगिता उत्पन्न करने के लिए कुछ उपाय खोजे। उनमें प्रथम तो यह था कि सब अग्रणी साधुओं पर उनके अग्रणीकाल में प्रतिदिन पच्चीस गाथाओं के हिसाब से 'कर' लगा दिया। दूसरा यह था कि गाथाओं और कार्यों का सम्बन्ध जोड़ दिया। कोई भी साधु किसी वृद्ध या रोगी साधु की एक दिन सेवा करके पच्चीस गाथाएं प्राप्त कर सकता है। अर्थात् एक दिन की सेवा और पच्चीस गाथाओं का लेखन, यह दोनों कार्य उस व्यवस्था में समकक्ष मान लिए गये। धीरे-धीरे अन्य दैनिक कार्यों की भी गाथाओं के साथ समकक्षता बैठती गई।
यद्यपि सेवा-कार्य और गाथाओं की एक मर्यादित समकक्षता कर दी गई, पर इससे यह भय उत्पन्न होने की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई कि किसी समय सभी साधुओं के पास पर्याप्त गाथाएं जमा हो जाएंगी तो रोगी साधु की सेवा कौन करेगा? सेवा-कार्य का महत्त्व गाथाओं से सदैव ऊपर समझा जाता रहा। उसके लिए यह पृथक् नियम है कि वृद्ध एवं रोगी साधु की सेवा के लिए आचार्य किसी भी साधु को भेज सकते हैं। सेवा के लिए इनकार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। कितनी भी गाथाएं जमा क्यों न हों, फिर भी आवश्यकता होने पर उसके लिए सेवा-कार्य अनिवार्य है। इतना अवश्य है कि जिसने सेवा की हो उसके नाम से प्रतिदिन पच्चीस के हिसाब से गाथाएं जमा कर ली जाती हैं।
*गाथाओं के आय-व्यय इत्यादि के लेखे...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 293* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*साधुओं का धन*
लिखने का परिश्रम आखिर किस प्रेरणा के आधार पर स्थित किया जाए? उक्त समस्या का समाधान उन्होंने एक नये रूप में ही खोज निकाला। उन्होंने सोचा, जिस प्रकार ज्ञान तथा तपस्या को साधुओं का धन माना जाता है, उसी प्रकार लिपि-कार्य के श्रम को भी क्यों न उनका धन गिन लिया जाए? उसका सम्बन्ध ज्ञान और तपस्या दोनों से ही है। ज्ञान का जहां वह एक उत्कृष्ट साधन है, वहां मनोयोग की एकाग्रता का उत्तम साधन एवं सत्-क्रिया होने के कारण तपस्या के अन्तर्गत भी आ जाता है। इस प्रकार उसे साधु का धन मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । जयाचार्य के उक्त चिन्तन ने जब कार्यरूप ग्रहण किया तब वह 'गाथा-प्रणाली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वस्तुतः उसे अकिंचन साधुओं की एक अभूतपूर्व अर्थ-प्रणाली कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
'गाथा' शब्द शास्त्रीय है और एक पद्य-विशेष का द्योतक है। परन्तु जयाचार्य ने उसे बत्तीस अक्षर-प्रमाण गद्य-लेखन तथा फिसी भी एक पद्य-लेखन के अर्थ में प्रयुक्त किया है। उन्होंने 'गाथा-प्रणाली' को प्रचालित करते हुए यह स्थापना की कि जो साधु जितनी गाथाएं लिखेगा, वे उसकी जमा कर ली जाएंगी, परन्तु लिपिकर्ता के अक्षर तथा लेख्य ग्रन्थ पहले से आचार्य द्वारा स्वीकृत होने चाहिए।
*अग्रगामियों पर कर*
गाथा-प्रणाली चालू कर देने पर भी जयाचार्य के सामने यह समस्या थी कि कोई क्यों उन गाथाओं को एकत्रित करने का प्रयास करेगा? अनुपयोगी वस्तु को संगृहीत करने की किसी की इच्छा होगी भी तो क्यों? आखिर उन्होंने उसमें उपयोगिता उत्पन्न करने के लिए कुछ उपाय खोजे। उनमें प्रथम तो यह था कि सब अग्रणी साधुओं पर उनके अग्रणीकाल में प्रतिदिन पच्चीस गाथाओं के हिसाब से 'कर' लगा दिया। दूसरा यह था कि गाथाओं और कार्यों का सम्बन्ध जोड़ दिया। कोई भी साधु किसी वृद्ध या रोगी साधु की एक दिन सेवा करके पच्चीस गाथाएं प्राप्त कर सकता है। अर्थात् एक दिन की सेवा और पच्चीस गाथाओं का लेखन, यह दोनों कार्य उस व्यवस्था में समकक्ष मान लिए गये। धीरे-धीरे अन्य दैनिक कार्यों की भी गाथाओं के साथ समकक्षता बैठती गई।
यद्यपि सेवा-कार्य और गाथाओं की एक मर्यादित समकक्षता कर दी गई, पर इससे यह भय उत्पन्न होने की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई कि किसी समय सभी साधुओं के पास पर्याप्त गाथाएं जमा हो जाएंगी तो रोगी साधु की सेवा कौन करेगा? सेवा-कार्य का महत्त्व गाथाओं से सदैव ऊपर समझा जाता रहा। उसके लिए यह पृथक् नियम है कि वृद्ध एवं रोगी साधु की सेवा के लिए आचार्य किसी भी साधु को भेज सकते हैं। सेवा के लिए इनकार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। कितनी भी गाथाएं जमा क्यों न हों, फिर भी आवश्यकता होने पर उसके लिए सेवा-कार्य अनिवार्य है। इतना अवश्य है कि जिसने सेवा की हो उसके नाम से प्रतिदिन पच्चीस के हिसाब से गाथाएं जमा कर ली जाती हैं।
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प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🙏 *वंदे गुरुवरम्* 🙏
https://www.instagram.com/p/CArBvwRpgS2/?igshid=1l9qbv1a7ols4
आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)
दिनांक : 27/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻
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