Updated on 25.05.2020 19:01
📍नवीन सूचना .....दिनांक : 25/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
🟥 अजमेर ~ *"फिर से मुस्कराएगा इंडिया"* विषय पर *"पेंटिंग प्रतियोगिता"* का आयोजन...........
🟥 बल्लारी ~ *संयुक्त सद्भावना कार्यक्रम* का समायोजन.........
संप्रसारक : 🌻 *संघ संवाद*🌻
🟥 बल्लारी ~ *संयुक्त सद्भावना कार्यक्रम* का समायोजन.........
संप्रसारक : 🌻 *संघ संवाद*🌻
Updated on 25.05.2020 12:32
📍नवीन सूचना .....दिनांक : 25/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
📍नवीन सूचना .....
दिनांक : 25/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
दिनांक : 25/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
👉 दिल्ली ~ शांतिनाथ जन्म-कल्याणक पर त्रिदिवसीय जप-अनुष्ठान
👉 सिलिगुड़ी ~ अणुव्रत समिति द्वारा कोरोना महामारी से बचाव के लिए सेवा कार्य
प्रस्तुति : 🌻 *संघ संवाद*🌻
👉 सिलिगुड़ी ~ अणुव्रत समिति द्वारा कोरोना महामारी से बचाव के लिए सेवा कार्य
प्रस्तुति : 🌻 *संघ संवाद*🌻
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔
जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 49* 🕉️
*15. देह से विदेह की यात्रा*
गतांक से आगे...
एक बड़ा साधक योगी राजमहल के सामने दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। चौकीदार बोला— 'महाराज! क्या कर रहे हो?'
'मैं अन्दर जाना चाहता हूं।'
'भीतर क्यों?
'क्योंकि मैं यहां रहना चाहता हूं। मुझे स्थान चाहिए।'
चौकीदार— 'महाराज! यह धर्मशाला नहीं है। यह राजमहल है। आप यहां नहीं रह सकते।'
योगी— 'मैं तो यहीं रहूंगा। इसी धर्मशाला में रहूंगा।'
योगी की तेजस्वी वाणी सुनकर चौकीदार अवाक् रह गया। उसने राजा को स्थिति की अवगति दी। राजा स्वयं आया, नमस्कार कर बोला— 'महाराज! यह धर्मशाला नहीं है, राजमहल है।'
योगी— 'यह राजमहल किसका घर है?'
राजा— 'मेरा घर है।'
योगी— 'यह घर किसने बनाया?'
राजा— 'मेरे परदादा ने बनाया?'
योगी— 'क्या वे यहीं रहते हैं?'
राजा— 'महाराज! उनकी मृत्यु हो गई।'
योगी— 'फिर इसमें कौन रहा?'
राजा— 'मेरे दादा।'
योगी— 'वे कहां हैं?'
राजा— 'महाराज! वे भी चिरनिद्रा में सो गए।'
योगी— 'फिर कौन रहा?'
राजा— 'मेरे पिताश्री।'
योगी— 'वे तो अभी विद्यमान होंगे?'
राजा— 'महाराज ! वे भी इस दुनिया में नहीं रहे।'
योगी— 'राजन्! धर्मशाला और क्या होती है? आदमी आता है, बसेरा करता है, चला जाता है। तेरे परदादा ने बसेरा किया, चले गए। तेरे दादा और पिता ने बसेरा किया, चले गए। क्या तू अमर रहेगा? जिसे तुम राजमहल मानते हो, क्या वह धर्मशाला नहीं है?'
राजा की आंख खुल गई, उसने कहा— 'आइए, रहिए।'
योगी— 'मुझे रहना नहीं है। मुझे तो यह बोध देना था कि इस पराए घर को अपना मत मानो। अपना घर तुम्हारी आत्मा है, तुम उसे समझने का प्रयत्न करो।'
हम भी चिन्तन करें, अपना घर बनाने की सोचें।
आचार्य ने कहा— देह तो पराया घर है। अगर शरीर अपना होता तो क्या आत्मा उसे कभी छोड़ती? उसे इसलिए छोड़ती है कि वह पराया है। अपना घर बनाने के लिए चिन्तन को बदलना होगा।
भगवान महावीर की वाणी में अंतिम सचाई है— मैं अकेला हूं, अकेला आया हूं, अकेले जाना है, और सारे संबंध पराए हैं। अपना वह होता है जो साथ चलता है। जो साथ नहीं चलता वह अपना कैसे हुआ?
आचार्य ने स्तुति के माध्यम से इस सचाई को प्रकट किया है— जो एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास करता है— 'मैं अकेला हूं।' अन्यत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास करता है— 'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है— यह शरीर अलग है और आत्मा अलग है।' इन दो सचाइयों को समझने वाला अपना घर बना सकता है। जो इन दो सचाइयों को नहीं समझता, वह कभी भी अपना घर नहीं बना सकता। वह पराए घर में ही रहेगा। आएगा, बसेरा करेगा और किसी दिन चला जाएगा।
आचार्य ने कहा— प्रभो! आपके ध्यान से आदमी इस शरीर को छोड़कर परमात्मा बन जाता है, अपने घर में चला जाता है। अपने घर को न कोई खाली करा सकता है और न कोई कब्जा कर सकता है। अपने घर में जाने के बाद शाश्वत निवास रहता है, कोई उसे निकाल नहीं सकता। न सरकार निकाल सकती, न कोई हाउस टैक्स लगा सकता, न कोई कुछ और कर सकता। वहां न तोड़-फोड़ होती, न किसी कारीगर की जरूरत रहती। सामान्य आदमी इस भाषा में सोचता है— शरीर और आत्मा में इतना गहरा संबंध है, उसे अलग करना कैसे संभव होता है? सुन्दर दृष्टान्त के साथ बताया गया— जैसे कोल्हू आदि के द्वारा तेल खल रहित होता है, मथनी आदि के द्वारा घी छाछ रहित होता है, अग्नि आदि के द्वारा धातु मिट्टी रहित होती है, वैसे ही तीव्र आध्यात्मिक साधना के प्रयत्न से व्यक्ति विदेह बन जाता है, परमात्म अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
*विग्रह शमन का मार्ग...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 49* 🕉️
*15. देह से विदेह की यात्रा*
गतांक से आगे...
एक बड़ा साधक योगी राजमहल के सामने दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। चौकीदार बोला— 'महाराज! क्या कर रहे हो?'
'मैं अन्दर जाना चाहता हूं।'
'भीतर क्यों?
'क्योंकि मैं यहां रहना चाहता हूं। मुझे स्थान चाहिए।'
चौकीदार— 'महाराज! यह धर्मशाला नहीं है। यह राजमहल है। आप यहां नहीं रह सकते।'
योगी— 'मैं तो यहीं रहूंगा। इसी धर्मशाला में रहूंगा।'
योगी की तेजस्वी वाणी सुनकर चौकीदार अवाक् रह गया। उसने राजा को स्थिति की अवगति दी। राजा स्वयं आया, नमस्कार कर बोला— 'महाराज! यह धर्मशाला नहीं है, राजमहल है।'
योगी— 'यह राजमहल किसका घर है?'
राजा— 'मेरा घर है।'
योगी— 'यह घर किसने बनाया?'
राजा— 'मेरे परदादा ने बनाया?'
योगी— 'क्या वे यहीं रहते हैं?'
राजा— 'महाराज! उनकी मृत्यु हो गई।'
योगी— 'फिर इसमें कौन रहा?'
राजा— 'मेरे दादा।'
योगी— 'वे कहां हैं?'
राजा— 'महाराज! वे भी चिरनिद्रा में सो गए।'
योगी— 'फिर कौन रहा?'
राजा— 'मेरे पिताश्री।'
योगी— 'वे तो अभी विद्यमान होंगे?'
राजा— 'महाराज ! वे भी इस दुनिया में नहीं रहे।'
योगी— 'राजन्! धर्मशाला और क्या होती है? आदमी आता है, बसेरा करता है, चला जाता है। तेरे परदादा ने बसेरा किया, चले गए। तेरे दादा और पिता ने बसेरा किया, चले गए। क्या तू अमर रहेगा? जिसे तुम राजमहल मानते हो, क्या वह धर्मशाला नहीं है?'
राजा की आंख खुल गई, उसने कहा— 'आइए, रहिए।'
योगी— 'मुझे रहना नहीं है। मुझे तो यह बोध देना था कि इस पराए घर को अपना मत मानो। अपना घर तुम्हारी आत्मा है, तुम उसे समझने का प्रयत्न करो।'
हम भी चिन्तन करें, अपना घर बनाने की सोचें।
आचार्य ने कहा— देह तो पराया घर है। अगर शरीर अपना होता तो क्या आत्मा उसे कभी छोड़ती? उसे इसलिए छोड़ती है कि वह पराया है। अपना घर बनाने के लिए चिन्तन को बदलना होगा।
भगवान महावीर की वाणी में अंतिम सचाई है— मैं अकेला हूं, अकेला आया हूं, अकेले जाना है, और सारे संबंध पराए हैं। अपना वह होता है जो साथ चलता है। जो साथ नहीं चलता वह अपना कैसे हुआ?
आचार्य ने स्तुति के माध्यम से इस सचाई को प्रकट किया है— जो एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास करता है— 'मैं अकेला हूं।' अन्यत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास करता है— 'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है— यह शरीर अलग है और आत्मा अलग है।' इन दो सचाइयों को समझने वाला अपना घर बना सकता है। जो इन दो सचाइयों को नहीं समझता, वह कभी भी अपना घर नहीं बना सकता। वह पराए घर में ही रहेगा। आएगा, बसेरा करेगा और किसी दिन चला जाएगा।
आचार्य ने कहा— प्रभो! आपके ध्यान से आदमी इस शरीर को छोड़कर परमात्मा बन जाता है, अपने घर में चला जाता है। अपने घर को न कोई खाली करा सकता है और न कोई कब्जा कर सकता है। अपने घर में जाने के बाद शाश्वत निवास रहता है, कोई उसे निकाल नहीं सकता। न सरकार निकाल सकती, न कोई हाउस टैक्स लगा सकता, न कोई कुछ और कर सकता। वहां न तोड़-फोड़ होती, न किसी कारीगर की जरूरत रहती। सामान्य आदमी इस भाषा में सोचता है— शरीर और आत्मा में इतना गहरा संबंध है, उसे अलग करना कैसे संभव होता है? सुन्दर दृष्टान्त के साथ बताया गया— जैसे कोल्हू आदि के द्वारा तेल खल रहित होता है, मथनी आदि के द्वारा घी छाछ रहित होता है, अग्नि आदि के द्वारा धातु मिट्टी रहित होती है, वैसे ही तीव्र आध्यात्मिक साधना के प्रयत्न से व्यक्ति विदेह बन जाता है, परमात्म अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
*विग्रह शमन का मार्ग...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 292* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*एक आशंका*
पुस्तकों के सांधिकीकरण द्वारा संघ की स्वाध्याय-सम्बन्धी अनेक आवश्यकताओं को पूरा किया गया था, किन्तु उससे एक नई समस्या उत्पन्न होने की आशंका भी थी। पहले अनेक साधु अपनी आवश्यकता के ग्रन्थ भण्डारों आदि से कुछ काल के लिए प्राप्त कर स्वयं लिख लिया करते थे। पुस्तकों पर से अधिकार हट जाने के पश्चात् उनके उत्साह में कमी हो जाने की आशंका थी। यह चिंतन उभर सकता था कि अब लिखना व्यर्थ है, क्योंकि स्वयं द्वारा लिखे जाने पर भी यह ग्रन्थ उनका न होकर संघ का ही होगा। आचार्य आवश्यकता होने पर उसे किसी दूसरे को भी दे सकेंगे। उक्त भावना के द्वारा लिपिकों की संख्या कहीं कम न हो जाए, अतः उस सम्भावित समस्या का समाधान शीघ्र ही खोजना आवश्यक था।
*लिपि-सुधार*
जयाचार्य जब लिपिकों के स्थायी आकर्षण का आधार खोज रहे थे, तब अचानक उनका ध्यान लिपि-सुधार की तरफ भी गया। उन्होंने अनेक प्राचीन प्रतियों के बड़े ही सुन्दर अक्षर देखे थे, पर साधुजनों में वैसे सुन्दर अक्षर लिखने वालों का अभाव-सा था। साधारण अक्षर और अशुद्धिबहुल लिखने वाले व्यक्ति केवल संघ में पुस्तकों का भार ही बढ़ा सकते थे। जयाचार्य चाहते थे कि मुनिजनों में सुन्दर अक्षर लिखने वाले हों। उसके लिए लिपिकर्ताओं पर कुछ ऐसा भावनात्मक दबाव देना आवश्यक था कि जिससे वे अपने अक्षरों को सुधारने के लिए स्वतः प्रेरित हों।
लिपि-सुधार के उस कार्यक्रम में पहले-पहल जयाचार्य ने अपने ही अक्षर सुधारने का निश्चय किया। संघ में भगवती की एक प्राचीन प्रति बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई थी। वे उसे ही 'मानक' मानकर अपने अक्षर उसके अनुरूप करने के प्रयास में लग गये। उस प्रति के अक्षरों को देख-देख कर उन्होंने कुछ ही दिनों में अपने अक्षरों में इतना सुधार कर लिया कि उनकी उस समय से पूर्व लिखित प्रतियों तथा उसके पश्चात् लिखी गई प्रतियों में लिपिकर्ता के एकत्व की कल्पना करना भी कठिन हो गया। इस तरह अपने अक्षरों को सुधार लेने के पश्चात् उन्होंने अन्य साधुओं को भी लिपि-सुधार के लिए प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया।
*लिखने का परिश्रम आखिर किस प्रेरणा के आधार पर स्थित किया जाए...? कोई क्यों गाथाओं को एकत्रित करने का प्रयास करेगा...? इत्यादि समस्याओं का श्रीमद् जयाचार्य ने क्या समाधान खोजा...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 292* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*एक आशंका*
पुस्तकों के सांधिकीकरण द्वारा संघ की स्वाध्याय-सम्बन्धी अनेक आवश्यकताओं को पूरा किया गया था, किन्तु उससे एक नई समस्या उत्पन्न होने की आशंका भी थी। पहले अनेक साधु अपनी आवश्यकता के ग्रन्थ भण्डारों आदि से कुछ काल के लिए प्राप्त कर स्वयं लिख लिया करते थे। पुस्तकों पर से अधिकार हट जाने के पश्चात् उनके उत्साह में कमी हो जाने की आशंका थी। यह चिंतन उभर सकता था कि अब लिखना व्यर्थ है, क्योंकि स्वयं द्वारा लिखे जाने पर भी यह ग्रन्थ उनका न होकर संघ का ही होगा। आचार्य आवश्यकता होने पर उसे किसी दूसरे को भी दे सकेंगे। उक्त भावना के द्वारा लिपिकों की संख्या कहीं कम न हो जाए, अतः उस सम्भावित समस्या का समाधान शीघ्र ही खोजना आवश्यक था।
*लिपि-सुधार*
जयाचार्य जब लिपिकों के स्थायी आकर्षण का आधार खोज रहे थे, तब अचानक उनका ध्यान लिपि-सुधार की तरफ भी गया। उन्होंने अनेक प्राचीन प्रतियों के बड़े ही सुन्दर अक्षर देखे थे, पर साधुजनों में वैसे सुन्दर अक्षर लिखने वालों का अभाव-सा था। साधारण अक्षर और अशुद्धिबहुल लिखने वाले व्यक्ति केवल संघ में पुस्तकों का भार ही बढ़ा सकते थे। जयाचार्य चाहते थे कि मुनिजनों में सुन्दर अक्षर लिखने वाले हों। उसके लिए लिपिकर्ताओं पर कुछ ऐसा भावनात्मक दबाव देना आवश्यक था कि जिससे वे अपने अक्षरों को सुधारने के लिए स्वतः प्रेरित हों।
लिपि-सुधार के उस कार्यक्रम में पहले-पहल जयाचार्य ने अपने ही अक्षर सुधारने का निश्चय किया। संघ में भगवती की एक प्राचीन प्रति बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई थी। वे उसे ही 'मानक' मानकर अपने अक्षर उसके अनुरूप करने के प्रयास में लग गये। उस प्रति के अक्षरों को देख-देख कर उन्होंने कुछ ही दिनों में अपने अक्षरों में इतना सुधार कर लिया कि उनकी उस समय से पूर्व लिखित प्रतियों तथा उसके पश्चात् लिखी गई प्रतियों में लिपिकर्ता के एकत्व की कल्पना करना भी कठिन हो गया। इस तरह अपने अक्षरों को सुधार लेने के पश्चात् उन्होंने अन्य साधुओं को भी लिपि-सुधार के लिए प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया।
*लिखने का परिश्रम आखिर किस प्रेरणा के आधार पर स्थित किया जाए...? कोई क्यों गाथाओं को एकत्रित करने का प्रयास करेगा...? इत्यादि समस्याओं का श्रीमद् जयाचार्य ने क्या समाधान खोजा...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Posted on 25.05.2020 07:46
🛐 *"चौबीसी" क्रमांक* : ५🔊 *"सुमति जिन स्तवन"*
https://youtu.be/7kkI84J3_nk
🙏 *रचना : श्रीमद जयाचार्य*
🎙️ *स्वर : श्रीमती बबिता गुनेचा, कोयम्बटूर*
संप्रसारक :
https://www.youtube.com/channel/UC0dyEH1ZPzOwv9QIdvfMjcQ
🌻 *संघ संवाद* 🌻
रचना : श्रीमद जयाचार्य स्वर : श्रीमती बबिता गुनेचा, कोयम्बटूर संप्रसारक : https://www.youtube.com/channel/UC0dyEH1ZPzOwv9QIdvfMjcQ 🌻 *संघ संवाद* 🌻
🙏 *वंदे गुरुवरम्* 🙏
https://www.instagram.com/p/CAl3RhEJeI4/?igshid=1ff2jcr306xw4
आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)
दिनांक : 25/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻
https://www.instagram.com/p/CAl3RhEJeI4/?igshid=1ff2jcr306xw4
आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)
दिनांक : 25/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग* : *श्रृंखला १*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा
।
प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482
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🌻 #संघ #संवाद 🌻
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग* : *श्रृंखला १*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
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