31.01.2020 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 31.01.2020
Updated: 03.02.2020

Updated on 03.02.2020 09:02

🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

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*संस्था शिरोमणि जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा106 वीं वार्षिक साधारण सभाचयन*
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*महासभाकी हुब्बल्ली में 31 जनवरी, 2020 को आयोजित वार्षिक साधारण सभा में निम्नोक्त न्यासी एवं पंचमण्डल सदस्य एवं अध्यक्ष चुने गए*

पंच मंडल:

श्री किशन डागलिया
श्री सुरेंद्र बोथरा
श्री अमर चंद लुंकड़

ट्रस्टी

श्रीमति सुशीला पुगलिया
श्री दिलीप सिंघवी
श्री राजेन्द्र बरडिया
श्री मनसुख लाल सेठिया
श्री महेंद्र कुमार बाफना
श्री संजय सुराणा
श्री जसराज मालू

मुख्य न्यासी
*श्री भंवरलाल बैद*

अध्यक्ष
*श्री सुरेश गोयल*

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🌿 *दिनांक - 31 जनवरी 2020*
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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

News, photos, posts, columns, blogs, audio, videos, magazines, bulletins etc.. regarding Jainism and it's reformist fast developing sect. - "Terapanth".

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💐 *श्री सुरेश जैन* (कोलकाता) *श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष निर्वाचित*

दिनांक:31/01/2020

*शुभकामनाएं देता*:
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👉 हुब्बल्ली ~ तेरापंथी महासभा की वार्षिक साधारण सभा का आयोजन

🌿 *दिनांक - 31 जनवरी 2020*
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Updated on 03.02.2020 09:02

🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

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*आचार्य तुलसी शांति प्रतिष्ठान में चयन*
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*आचार्य तुलसी शांति प्रतिष्ठान* की हुब्बल्ली में 31 जनवरी, 2020 को आयोजित वार्षिक साधारण सभा में निम्नोक्त न्यासी एवं पंचमण्डल सदस्य चुने गए ~

🔆 *न्यासी* 🔆
🔅श्री जेठमल बोथरा, बीकानेर
🔅श्री अमरचंद सोनी, गंगाशहर
🔅श्री सुरेन्द्र चोरड़िया, कोलकाता
🔅श्रीमती शांता पुगलिया, कोलकाता
🔅श्री मनोहरलाल नाहटा, गंगाशहर
🔅श्री पदमचंद खटेड़, बेंगलुरु
🔅श्री नारायणचंद गुलगुलिया, गंगाशहर
🔅श्री नवरत्न बैद, दिल्ली
🔅श्री जतनलाल संचेती, गंगाशहर
🔅श्री किशनलाल बैद, गंगाशहर
🔅श्री रणजीत कोठारी, कोलकाता

🔆 *पंचमण्डल सदस्य* 🔆
🔅श्री कन्हैयालाल जैन पटावरी, दिल्ली
🔅श्री जेठमल मरोठी, गंगाशहर
🔅श्री अमरचंद लूंकड़, चेन्नई
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🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

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*"महाप्रज्ञ वाङ्गमय: सदियों का अमूल्य उपहार" संदर्भित महत्वपूर्ण वीडियो*
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🌿 *दिनांक - 31 जनवरी 2020*
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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

Updated on 03.02.2020 09:02

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 2* 🕉️

*1. विशेषता चरणकमल की*

गतांक से आगे...

स्तुति करने का उद्देश्य क्या है? स्तोत्र निर्माण का उद्देश्य क्या है? इसे हम समझें। जो व्यक्ति जिसकी स्तुति करता है, पहले उसके साथ तादात्म्य स्थापित करता है, एकात्मकता स्थापित करता है। जब तक एकात्मकता स्थापित नहीं होती, स्तुति भी नहीं हो सकती। पार्श्व प्रभु में जो विशेषताएं हैं, उन विशेषताओं के साथ स्तोत्रकार सिद्धसेन यदि एकात्मक नहीं होते तो वे भावात्मक स्तुति नहीं कर पाते। कोरे शब्दों का न्यास हो जाता किन्तु वह वास्तव में स्तोत्र नहीं होता। स्तुति के लिए जरूरी है इष्ट के साथ समापत्ति करना। कांच है, स्फटिक है, सामने लाकर लाल वस्तु रख दी तो रंग लाल हो जाएगा। पीली वस्तु रख दी तो रंग पीला बन जाएगा। हरी वस्तु रखी तो उसका रंग हरा हो जाएगा। इसका नाम हे समापत्ति-एकात्म हो जाना, उस रूप में हो जाना। पार्श्वनाथ का स्तोत्र बनाने वाला यदि स्वयं पार्श्व नहीं बनता है तो वह पार्श्व की अच्छी स्तुति नहीं कर सकता।

जिसकी हम स्तुति कर रहे हैं, उसके साथ हमारी एकात्मकता हो तभी लाभ होता है। ध्यान का एक प्रयोग है तन्मय ध्यान, तादात्म्य ध्यान। यदि तुम दूसरे व्यक्ति के गुणों को अपने आपमें लाना चाहते हो, उसकी विशेषता को अपने में प्रकट करना चाहते हो तो उसके साथ तादात्म्य स्थापित करो, एकात्म हो जाओ। यह अनुभव करो कि मैं स्वयं पार्श्व हूं।

स्तोत्र का पाठ करना ध्यान का एक प्रयोग है, गणों की अभिव्यक्ति का प्रयोग है, अपने में उन विशेषताओं को आरोपित करने का प्रयोग है जिसकी मैं स्तुति कर रहा हूं। उसकी विशेषताएं मुझमें आ जाएं, उनका आरोपण हो जाए, मेरे भीतर समा जाएं— इसका मतलब होता है स्तोत्र या स्तुति। हम स्तुति करें और हमारा ध्यान एकाग्र न हो, केवल पाठ का उच्चारण होता चला जाए और ध्यान कहीं दूसरी जगह हो तो गुणों का संक्रमण नहीं होता। विशेषताओं के संक्रमण के लिए एकात्मकता जरूरी है।

आचार्य सिद्धसेन ने संकल्प किया— मैं स्तुति करूंगा। संकल्प हो गया। दूसरा प्रश्न आया— किसकी करूंगा? भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति करूंगा। तीसरा प्रश्न आया— कैसे करूंगा? एक परंपरा रही— कोई भी काम करे तो पहले नमस्कार करना जरूरी है। विनम्रता के साथ जो काम शुरू किया जाता है वह सफल होता है। विनम्रता के बिना जो काम किया जाता है वह सफल नहीं होता।

सफलता में सबसे बड़ी बाधा है अहंकार। तात्त्विक दृष्टि से हम देखें तो आगम के आधार पर कहा जा सकता है— अहंकार प्राणी का स्वभाव जैसा बना हुआ है। क्रोध, मान, माया, लोभ-कषाय के चार प्रकार हैं। उधर जीवों की दृष्टि से विचार करें तो पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय— ये जीवों के छह निकाय हैं। सबसे निम्न कोटि के जीव हैं एकेन्द्रिय जीव। एकेन्द्रिय जीवों में भी निगोद वनस्पति के जीव सबसे ज्यादा अविकसित कोटि के जीव हैं। जैसे आजकल राष्ट्रों का वर्गीकरण किया जाता है— अविकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्र और विकसित राष्ट्र। मनुष्य विकसित है। जो द्वींद्रिय आदि हैं, वे विकासशील हैं। अविकसित हैं निगोद के जीव। सबसे कम विकास उनमें है। मीमांसा की गई कि उनमें कौनसा कषाय होता है। सबसे पहले अहंकार होता है। निगोद का जीव है, इतना सूक्ष्म है, पृथ्वीकाय का जीव है, बहुत छोटा है, पर अहंकार उनमें भी प्रबल होता है। पदार्थ से जो अहंकार आता है, वह तो आगे की बात है, स्थूल बात है।

हम सूक्ष्म मीमांसा करें तो इस सचाई का बोध होगा— अहंकार प्राणी की एक मौलिक मनोवृत्ति है। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह एक इंस्टिक्ट है। जैन परिभाषा में कहें तो संज्ञा है। आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, अभिमान संज्ञा— ये संज्ञाएं हैं। अहंकार प्राणी का एक लक्षण है। छोटे से छोटा जीव भी अहंकार करता है। मनुष्य के पास मन है, समझ है, वह अहंकार क्यों नहीं करेगा? कभी-कभी मन में विचार आता है— इसके पास कुछ भी नहीं, फिर भी इतना अहंकार क्यों? आगम के आलोक में समाधान मिलता है— कुछ होना, न होना अलग बात है। कुछ है इसलिए अहंकार करता है, यह स्थूल बात है। कुछ नहीं है फिर भी अहंकार करता है। इसलिए कि यह उसकी प्रकृति है, संज्ञा है, मौलिक मनोवृत्ति है।

हम कोई अच्छा काम करें तो सबसे पहले अहंकार का परित्याग करना चाहिए, विलयन करना चाहिए। विकास करना है, ऊर्ध्वारोहण करना है, आगे बढ़ना है तो सबसे पहले अहंकार को कम करो। क्रोध भी अहंकार से जुड़ा हुआ है। जितना ज्यादा अहंकार होगा, उतना ज्यादा क्रोध होगा। इसीलिए धर्मग्रंथों में, चाहे वे जैन ग्रंथ हैं, वैदिक ग्रंथ हैं, बौद्ध ग्रंथ हैं— विनम्रता का सबसे ऊंचा स्थान है। कहा गया— बड़ों के पास जाओ, नमस्कार करो। देवता के पास जाओ, नमस्कार करो। किसी के पास जाओ, कुछ लेना है तो विनय करो, नमस्कार करो।

*विनम्रता के महत्त्व को सम्राट श्रेणिक से जुड़े एक प्रसंग द्वारा...* समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 03.02.2020 09:02

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 245* 📜

*आचार्यश्री रायचन्दजी*

*प्रभावशाली आचार्य*

*आशातना और दंड*

मुनि अमीचंदजी (क्र. 80) अग्रणी विचरते थे। उन्होंने ऋषिराय का अच्छा सामीप्य साधा और उनके कृपापात्र बन गये। मूलतः वे ऊपर से तो बहुत मीठे थे, परन्तु भीतर से उतने ही मायावी। कहीं भी भेद डाल देना उनके बायें हाथ का खेल था। दूसरों को अपमानित करने में उन्हें किसी विशेष आनन्द की अनुभूति होती थी। अपने दीक्षा-गुरु मुनि गुलाबजी (क्र. 53) को तो संघ से पृथक् करवा देने तक का वे प्रयास कर चुके थे। वे कालान्तर में आचार्यश्री का भी अविनय करने लगे। एक बार भगवती सूत्र की एक प्रति के लिए उन्होंने काफी प्रपंच किया। ऋषिराय ने तब वह प्रति मुनि जीतमलजी को प्रदान कर दी। शायद तभी से उनके मन में ऋषिराय के प्रति कोई गांठ पड़ गई। अपने मायामय प्रहार की तैयारी में वे और अधिक नम्र एवं मीठे बन गये। सरलमना आचार्यश्री उनके बाह्य व्यवहार को ही वास्तविक मानते रहे, उनकी छद्मता पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया।

मुनि अमीचंदजी ने ऋषिराय के पास रहने वाले संतों को भी अपने प्रभाव में ले लिया। फिर ऋषिराय से कहा— 'मैं अपने सिंघाड़े के संतों सहित आपकी सेवा में रह जाऊंगा। फिर आप अन्य संतों को रख कर क्या करेंगे? बाहर भेजेंगे तो क्षेत्रों की संभाल होगी और नया उपकार होगा।' ऋषिराय ने तब अपने साथ रहने वालों को विहार करवा दिया। मुनि सरूपचन्दजी का सिंघाड़ा साथ में था। आषाढ़ मास में नाथद्वारा से उन्हें भी मारवाड़ में विचरने का आदेश दे दिया। मुनिश्री ने निवेदन किया— 'आप पहले तो मुझे भेजते हैं और फिर वापस बुला लेते हैं। इस बार भी शायद आपको बुलाना पड़े, अतः क्यों न मुझे साथ में ही रख लिया जाए?' ऋषिराय तो मुनि अमीचंदजी के विश्वास में निश्चिंत थे, अतः कहा— 'इस बार मैं बुलाऊं तो भी मत आना, यह मेरी आज्ञा है।' मुनि सरूपचन्दजी ने कहा— 'आप बुलाएं और में न आऊं, यह कैसे हो सकता है? आवश्यकता होने पर आप बुलाने में संकोच मत करना।' और वे विहार कर गये।

मुनि अमीचंदजी ने अपनी योजना को आगे सरकाते हुए ऋषिराय से कहा— 'मैं आपके साथ हूं ही, ये संत कुछ दिनों के लिए विचर आयें तो अच्छा रहेगा।' और उन्होंने अपने साथ वाले संतों को अन्यत्र भेज दिया। फिर एक दिन कहने लगे— 'मैं गोगुंदा चतुर्मास करूंगा, अतः आप राजनगर पधार जाएं। वहां मुनि माणकचन्दजी आदि संत हैं ही, वे आपके साथ रह लेंगे।' ऋषिराय को उनका वह व्यवहार बहुत अपमानजनक लगा, परन्तु अब क्या हो सकता था? अन्य कोई सन्त भी तो पास में नहीं था। उन्होंने तब राजनगर चले जाना ही निरापद समझा। विहार किया तो मुनि अमीचंदजी बनास नदी तक तो साथ गये, फिर कहने लगे— 'आपके साथ जाऊंगा और फिर वापस आऊंगा— इस प्रकार व्यर्थ ही दो बार नदी लगेगी। आप पधार जाइये, मैं वापस जाता हूं।'

ऋषिराय ने मुनि अमीचंदजी की दुर्नीति को अच्छी तरह से समझ लिया, अतः आगे न जाकर वापस नाथद्वारा आ गये। भाइयों ने तब मुनि सरूपचंदजी के पास कासिद भेजकर सूचना करवाई कि उन्हें वापस नाथद्वारा पधारना है। मुनिश्री आमेट होते हुए कुवाथल तक पहुंच गये थे। उक्त समाचार पाकर वहां से वापस लौट पड़े। जब नाथद्वारा पहुंचने में एक मंजिल ही शेष रही तब मुनि अमीचंदजी ऋषिराय को अकेला छोड़कर विहार कर गये। ऋषिराय ने जाते समय उनसे कहा— 'तुमने ऐसी आशातना की है कि छह महीनों के अन्दर ही तुम्हें उसका दण्ड भोग लेना पड़े तो आश्चर्य नहीं।' दूसरे दिन मुनि सरूपचंदजी ने ऋषिराय के दर्शन कर लिये और फिर विक्रम सम्वत् 1894 के नाथद्वारा चतुर्मास में उनकी सेवा में ही रहे।

मुनि अमीचंदजी ने अपना वह चतुर्मास गोगुंदा में किया। *अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव लभते फलम्।* अर्थात्— अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप के फल तत्काल इसी जन्म में मिल जाते हैं— यह उक्ति वहां उन पर चरितार्थ हो गई। उन्हें वहां तीव्र रुग्णावस्था भोगनी पड़ी। कार्तिक मास में शीत उधड़ आया, अतः ज्वर और सन्निपात में पागल की तरह बकते-झकते ही उनका शरीरांत हुआ। कहा जा सकता है कि गुरु की आशातना का उन्हें प्रत्यक्ष दण्ड भोग लेना पड़ा।

*ऋषिराय द्वारा अपने उत्तराधिकारी के चयन..* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 03.02.2020 09:02

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 1* 🕉️

*1. विशेषता चरणकमल की*

जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। पहले तीर्थंकर अर्हत् ऋषभ और अंतिम तीर्थकर वर्धमान महावीर। भगवान् पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थकर हुए हैं। उनके लिए पुरुषादानीय विशेषण प्रयुक्त हुआ है। ऋषभ की स्तुति में आचार्य मानतुंगसूरि ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की। यह स्तोत्र पूरे जैन समाज में प्रतिष्ठित है। केवल जैन समाज में ही नहीं, अन्य समाज के जो मंत्रज्ञ हैं, वे भी भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हैं। हम (ग्रनथकार आचार्यश्री महाप्रज्ञजी) जब जयपुर थे, कुछ अजैन लोग आए। उन्होंने कहा— भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।

आचार्य सिद्धसेन ने अर्हत् पार्श्वनाथ की स्तुति में कल्याण मंदिर स्तोत्र लिखा। मंत्र शास्त्र में पार्श्वनाथ प्रमुख रहे हैं। उनकी स्तुति में जितने स्तोत्र लिखे गए हैं, शायद अन्य तीर्थंकरों की स्तुति में नहीं लिखे गए। जैन परम्परा के अनुसार भारत में पार्श्वनाथ के जितने मंदिर हैं उतने शायद अन्य तीर्थंकरों के नहीं हैं। विघ्न-निवारण के लिए भगवान् पार्श्व के स्तोत्रों का स्वाध्याय किया जाता है। उनकी स्तुति बहुत कल्याणकारी है।

मनुष्य कोई भी काम करता है तो उसमें सफल होना चाहता है। असफलता के लिए कोई काम करना नहीं चाहता। सफलता के लिए पहली शर्त है संकल्प, दूसरी शर्त है नमस्कार और तीसरी शर्त है अहं का विलय। ये तीन बातें होने पर आदमी सफल हो सकता है।

व्यक्ति काम शुरू करता है तो पहले लक्ष्य बनाता है। लक्ष्य की पूर्ति के लिए संकल्प करता है। संकल्प से किया हुआ काम सिद्ध होता है। संकल्प नहीं होता है तो वह काम सफल नहीं होता, सिद्ध भी नहीं होता। सिद्धसेन संकल्प कर रहे हैं कि मैं स्तुति करूंगा। यह एक संकल्प है— मैं स्तवना करूंगा और उसके लिए स्तोत्र की रचना करूंगा।

संकल्प की पूर्ति के लिए सबसे पहले मंगलभावना की अपेक्षा है, जिससे कोई विघ्न-बाधा न आए। इसीलिए कार्य के प्रारंभ में संकल्प के अनंतर नमस्कार किया जाता है। दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र में तीन मंगल माने गये हैं— आदि मंगल, मध्य मंगल और अन्त्य मंगल। मंगल आवश्यक है क्योंकि दुनिया में विघ्न-बाधाएं आती रहती हैं। ऊपर से भी बाधाएं आती हैं, नीचे से भी आती हैं, तिरछे लोक से भी आती हैं और प्राजनित बाधाएं भी आती हैं।

आचारांग सूत्र का महत्त्वपूर्ण वचन है— *उड्ढं सोया, अहे सोया, तिरियं सोया*— स्रोत पर भी हैं, नीचे भी हैं और मध्य लोक में भी हैं। इतनी विघ्न-बाधाओं के बीच जो आदमी जी रहा है, उसके लिए मंगल बहुत जरूरी है। आज इस परमाणु युग में, जैव रासायनिक हथियारों के युग में पता नहीं कब, कहां, क्या घटित हो जाए? इस दुनिया में जीने वाला व्यक्ति अपने चारों ओर एक मंगल कवच बनाए, यह बहुत आवश्यक है। आचार्य ने भी कार्य की सिद्धि के लिए अपना मंगल कवच बनाया।

स्तुति या स्तोत्र की रचना महत्त्वपूर्ण है। जो अपने से विशिष्ट व्यक्ति हैं, जिनमें विशेषताएं हैं, जिनमें गुणों का विकास हुआ है, उन व्यक्तियों की स्तुति करना हमारी भारतीय परम्परा रही है। संस्कृत-प्राकृत साहित्य में आज भी वह क्रम अविच्छिन्न रूप से चल रहा है।

*स्तुति करने का... स्तोत्र निर्माण का... उद्देश्य क्या है...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 03.02.2020 09:02

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परम श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञ मंत्रवेत्ता आचार्य थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक मंत्रों की साधना की। बहुत लोगों ने उनके मंत्र साधना की सिद्धि का साक्षात् भी किया है। मंत्रशास्त्र में भगवान पार्श्व से जुड़े मंत्रों की प्रचुरता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ स्वयं भगवान पार्श्व से संबद्ध मंत्रों का जप एवं स्तुति करते थे।

आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित प्रभावक *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों में अनेक अनुभूत तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है। जिनमें उत्प्रेरणा का यह स्वर प्रखरता से अभिव्यक्त हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति में भगवान पार्श्व बनने की अर्हता है। वह स्वयं भगवान पार्श्व बन सकता है। अपेक्षित है— भक्त से भगवान बनने के रहस्य-सूत्रों की पूर्ण निष्ठा से खोज और सर्वात्मना समर्पण भाव से साधना।

हमें पूर्ण विश्वास है कि आध्यात्मिक आरोहण के पथ में हम सभी की दिशासूचक यंत्र बन सकेगी... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति *कल्याण मंदिर: अंतस्तल का स्पर्श* की हमारी पोस्ट...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 03.02.2020 09:02

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 244* 📜

*आचार्यश्री रायचन्दजी*

*प्रभावशाली आचार्य*

*साध्वियों पर संकट*

विक्रम सम्वत् 1896 की बात है। दीपांजी आदि 14 साध्वियों ने खैरवा (मारवाड़) से विहार किया। जनशून्य मार्ग में उन्हें दो दुष्ट व्यक्ति मिले। दोनों के पास लाठियां थीं। उन्होंने कुछ साध्वियों को रोकना चाहा। उनकी मलिन दृष्टि को समझते ही प्रमुख साध्वी दीपांजी आदि ने युवती साध्वियों को बीच में लेकर एक घेरा बना लिया। उन व्यक्तियों ने पहले तो गालियां निकालते हुए धक्का-मुक्की से अपना काम करना चाहा, पर साध्वियों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। तब वे मार-पीट पर उतर आये। अनेक साध्वियों के चोटें लगीं, परन्तु उन्होंने उनको घेरे में नहीं घुसने दिया। लगभग दो मुहूर्त्त तक यह संकट उन पर छाया रहा। इतने लम्बे समय तक उस मार्ग पर कोई अन्य व्यक्ति आता हुआ दिखाई नहीं दिया कि जो उन्हें उस संकट से मुक्त कराये।

आखिर उन्होंने अपनी शीलरक्षा के लिए प्राणाहुति देने का निश्चय कर लिया। सभी ने नांगले की रस्सी अपने-अपने गले में इस प्रकार से डाल ली कि दुर्भाग्यवशात् घेरा टूट जाने से यदि किसी पर व्यक्तिगत संकट आ जाए तो वह अपनी शीलरक्षा के लिए उस गलपाश को कसकर अपने प्राण दे दे। इस तैयारी के साथ ही मानो शील-रक्षक देवों के आसन हिल गये और उस जनशून्य मार्ग पर देवदूतों के समान कुछ व्यक्ति आते हुए दिखाई दिये। साध्वियों में नये प्राणों का संचार हुआ और उन पापिष्ठों में भय का। उन लोगों के वहां पहुंचने से पूर्व ही वे भाग गये। साध्वियां उन सज्जन पुरुषों के साथ-साथ अपने गंतव्य की ओर आगे विहार कर गईं।

उक्त घटना के पश्चात् बीहड़, जनशून्य या आशंकित मार्ग होता, उस दिन विशेष स्थिति के रूप में ऋषिराय अपने पास रहने वाली साध्वियों को अपने से कुछ ही आगे विहार करवाते ताकि उन्हें पुनः किसी ऐसे संकट का सामना न करना पड़े। कई वर्षों तक उक्त क्रम चलता रहा। फिर जयाचार्य पदासीन हुए तब विक्रम सम्वत् 1909 में उन्होंने पुनः उस मर्यादा को पूर्ववत् कर दिया कि साधु और साध्वियां साथ में विहार न करें।

*सूई और आज्ञा*

आचार्य को बड़ी सजगता के साथ अनुशासन की डोर कसे रखना पड़ता है, अन्यथा उसे कोई भी तोड़ सकता है। छोटा दोष बड़े दोष की ओर बढ़ने वाला प्रथम चरणन्यास होता है। यदि उसे नहीं रोका जाता तो अगले चरणन्यासों को रोकना उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है। सजग आचार्य वही है— जो दोष की प्रथम चिनगारी को ही बुझा दे ताकि लपट बनने का कोई अवसर ही न आने पाये।

एक बार कोई साधु आज्ञा लिए बिना ही किसी घर से सूई ले आया। ऋषिराय को पता चला तो उन्होंने उसे टोकते हुए कहा— 'गृहस्थ के घर किसी वस्तु के लिए जाना पड़े तो गुरु से पूछ कर जाये। क्या तुम इस नियम को नहीं जानते, जो बिना पूछे ही सूई ले आये?'

दोष की स्वीकृति कठिन होती है, अतः दोषी व्यक्ति उसे टालने के लिए प्रायः बहस करने लगता है। उस साधु ने भी वही मार्ग अपनाया। उसने कहा— 'सूई ही तो लाया हूं। कोई सोना-चांदी थोड़े ही ले आया। ऐसी छोटी वस्तु की क्या आज्ञा ली जाए?'

ऋषिराय ने उसको समझाया— 'छोटी वस्तु के लिए असावधानी करने वाला बड़ी वस्तु के लिए भी असावधान हो जाता है, अतः सूई या सोने का प्रश्न नहीं, मूल बात गुरु को पूछकर जाने की है, ताकि कोई साधु निष्प्रयोजन गृहस्थ के घर न जाने पाये।'

अपनी उदंडता को धार देते हुए उस मुनि ने कहा— 'ये सब चोंचले मैं नहीं निभा सकता। आज सूई लेने की आज्ञा लेने को कहते हैं, कल कहेंगे कि सांस लेने की भी आज्ञा लो।'

ऋषिराय ने उसकी उच्छृंखलता-भरी बातों से समझ लिया कि वह अनुशासन के प्रति कोई सम्मान की भावना नहीं रखता। उसकी उच्छृंखलता स्वयं उसके लिए ही नहीं, सारे संघ के लिए भी एक खतरा बन सकती है। रोग की तरह वह वृत्ति अन्य किसी में संक्रांत न होने पाये— इसलिए उन्होंने उस व्यक्ति को संघ से पृथक कर दिया।

*एक मुनि ने दुर्नीति से ऋषिराय की आशातना की... उसे आचार्यश्री की आशातना के इस पाप कर्म का क्या फल भोगना पड़ा...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 03.02.2020 09:02

🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

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💫 *जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री अरविंद संचेती की वाङ्गमय संबंधी प्रस्तुति*

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💫 *हुब्बल्ली महिला मंडल का श्रद्धागीत संगान*


🌿 *दिनांक - 31 जनवरी 2020*
https://www.facebook.com/SanghSamvad/
प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

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🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

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*आचार्य महाश्रमण के हुब्बल्ली मर्यादा महोत्सव की स्मृति स्वरूप भारत सरकार के डाक विभाग द्वारा प्रकाशित विशेष आवरण का विमोचन एवं विरूपण 'धर्माधिकारी' डॉ. वीरेन्द्र हेगड़े द्वारा*

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*हुबली एजुकेशन सोसाइटी की संस्कार स्कूल के मुखिया श्री महेन्द्र जी सिंघी का महत्त्वपूर्ण सहकार*

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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

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🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

💫 *महाप्रज्ञ वाङ्गमय लोकार्पण*

💫 *इतनी बड़ी संख्या में किसी एक व्यक्ति का साहित्य आना बहुत बड़ी बात है ~ महाप्रज्ञ वांग्मय के संदर्भ में परमपूज्य आचार्य श्री महाश्रमण*

🌿 *दिनांक - 31 जनवरी 2020*
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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

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🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

💫 *धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े की मंचीय उपस्थिति*

💫 *केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री श्री कैलाश चौधरी का मार्मिक वक्तव्य*

🌿 *दिनांक - 30 जनवरी 2020*
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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

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🏭 *156 वें मर्यादा महोत्सव 2020 ~ 'हुब्बल्ली' में त्रिदिवसीय कार्यक्रम* __________

🌈🌈 *_सान्निध्य - तेरापंथ अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी.........._*

💫 *द्वितीय दिवस के कार्यक्रम का प्रारम्भ*
💫 *परमपूज्य द्वारा आर्षवाणी उच्चारण*
💫 *महाप्रज्ञ वांग्मय लोकार्पण की पूर्वभूमिका में समणीवृन्द द्वारा शब्दचित्र की प्रस्तुति*
💫 *हुब्बल्ली के श्रावक- श्राविकाओं द्वारा श्रद्धागीत का संगान।*

🌿 *दिनांक - 30 जनवरी 2020*
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प्रस्तुति: 🌻 *_संघ संवाद_* 🌻

*देवलोकगमन संवाद*:
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🙏 *शासन श्री साध्वी श्री वसुमती जी* का देवलोक गमन दिनांक 31 जनवरी, 2020 को प्रातः 07:20 बजे *बिदासर* (चुरू) राजस्थान में हो गया है।

दिनांक 31/01/2020
संप्रेषक:
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🙏 *संघ संवाद* 🙏

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SS
Sangh Samvad
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