👉 औरंगाबाद ~ 'स्व से शिखर तक' कार्यशाला की कड़ी 'चार भावना' का समायोजन
👉 चिकमंगलूर ~ 'मैं हूँ ज्ञान चेतना श्रेष्ठ प्रतियोगी' कार्यशाला आयोजन
👉 विजयनगर, बेंगलुरु ~ जैन संस्कार विधि से नामकरण
👉 छापर ~ शिक्षा संगोष्ठी सह कम्बल वितरण कार्यक्रम
प्रस्तुति: *🌻संघ संवाद🌻*
👉 चिकमंगलूर ~ 'मैं हूँ ज्ञान चेतना श्रेष्ठ प्रतियोगी' कार्यशाला आयोजन
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प्रस्तुति: *🌻संघ संवाद🌻*
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🌼 *अणुव्रत प्रबोधन प्रतियोगिता* 🌼
💫
समितियों के अध्यक्ष-मंत्रियो के ध्यानार्थ सूचित किया जा रहा हैं कि प्रतियोगिता संबंधी *प्रश्न-पुस्तिका एवं तुलसी विचार दर्शन ग्रंथ* महासमिति कार्यालय को प्राप्त समितियों की मांग के आधार पर भेजा जाएगा।
🔅
अतः अपनी आवश्यकता का निर्धारण कर महासमिति कार्यालय को सूचित करें।
🌐 प्रस्तुति: *अणुव्रत सोशल मीडिया*
➡ संप्रसारक: *संघ संवाद*
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*प्रेरणा पाथेय:-आचार्य श्री महाश्रमणजी - 04 January 2020, का वीडियो-प्रस्तुति~अमृतवाणी*
*संप्रसारक: 🌻संघ संवाद*🌻
*संप्रसारक: 🌻संघ संवाद*🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 224* 📜
*आचार्यश्री भारमलजी*
*अन्तिम चरण*
*विहार-स्थगन*
आचार्य भारमलजी की अवस्था काफी वृद्ध हो चुकी थी। विहार भी छोटे ही करने लगे थे। विक्रम सम्वत् 1877 का चतुर्मास नाथद्वारा में किया। उसके पश्चात् अनेक छोटे क्षेत्रों का स्पर्श करते हुए कांकरोली पधारे। वहां एक महीना विराजे, फिर दर्शनार्थ आये हुए सन्त-सतियों के बड़े झुंड के साथ राजनगर पधारे। उस समय संघ में 38 साधु थे। वे सब वहां एकत्रित हो गये। सैकड़ों गृहस्थ भी दर्शनार्थ आये हुए थे। आचार्यश्री ने आगामी कार्य का दिशा-दर्शन देकर कुछ सिंघाड़ों को वहां से विहार करवा दिया। स्वयं भी विहार की तैयारी करने लगे, परन्तु तभी उदर-वेदना से शरीर अस्वस्थ हो गया। फलस्वरूप कुछ समय के लिए विहार को स्थगित कर देना पड़ा। औषधोपचार करने से कुछ स्वस्थ हुए तब वहां से विहार कर केलवा पधार गये। उस समय स्वयं सहित 22 सन्त साथ थे। होली चतुर्मासी वहीं पर की।
वृद्धावस्था में होने वाला हर रोग मिट जाने पर भी कुछ-न-कुछ अशक्ति छोड़ ही जाता है। शीघ्रता से उस कमी को पूरा कर पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। आचार्य भारमलजी केलवा पधार तो गये, परन्तु विहार के परिश्रम से शरीर एकदम अशक्त हो गया। फलतः रोग ने शरीर को फिर घेर लिया। औषधोपचार किया गया, परन्तु कोई विशेष लाभ नहीं हो सका। आचार्यश्री केलवा से आगे मारवाड़ की ओर पधार जाना चाहते थे, पर विहार कर पाना सम्भव नहीं रहा, तब उस विचार को स्थगित कर दिया। आचार्यश्री बहुत स्पष्टता से अनुभव करने लगे कि जीवन अब अपने अन्तिम चरण में प्रविष्ट हो रहा है।
*युवाचार्य की नियुक्ति*
अवस्था के ढलाव और शरीर की क्रमिक क्षीणता को देखकर आचार्य भारमलजी ने धर्मसंघ की भावी व्यवस्था कर देने का विचार किया। तेरापंथ में आचार्य के अनेक दायित्वों में यह सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण दायित्व माना जाता है कि वे उपयुक्त समय पर अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर दें। आचार्यश्री को अनुभव हुआ कि अब वह समय आ चुका है। विलंब करने में खतरा हो सकता है। अपने युग के अनेक प्रभावशाली और योग्य मुनियों में से उन्होंने युवक मुनि रायचंदजी का नाम चुना। उसी समय नियुक्ति-पत्र लिखा गया और उसमें सबके हस्ताक्षर करवाये गये। जनसमुदाय के बीच अपनी चादर उढ़ाकर मुनि रायचंदजी को विधिवत् युवाचार्य घोषित कर दिया गया। वह कार्य केलवा में विक्रम संवत् 1877 (चैत्रादि 1878) वैशाख कृष्णा 9 गुरुवार को सम्पन्न हुआ।
*तपस्या में अभिरुचि*
*'कंखे गुणे जाव सरीग्भेउ'—* साधु अन्तिम सांस तक गुणवृद्धि की आकांक्षा करता रहे। आचार्य भारमलजी इस आगम-शिक्षा के एक मूर्त उदाहरण थे। उन्होंने अपने शरीर की शक्ति को घटते हुए देखा तो सोचा कि अब मेरे लिए जनपद विहार के द्वारा लोगों में धर्म-प्रसार कर पाना सम्भव नहीं है। क्षीण हुई शारीरिक क्षमता को पुनः प्राप्त कर लेना कठिन था, अतः उन्होंने शरीर से तत्काल दूसरा काम लेने की तैयारी कर ली।
उन्होंने सन्तों को बुलाकर कहा— 'शरीर नश्वर है, अतः उसके विनाश में तो किसी को आश्चर्य हो ही नहीं सकता। परन्तु मैं चाहता हूं कि उसके विनाश से पहले उससे कुछ सार और खींच लूं। धर्म-प्रसार का कार्य मैंने किया है, पर अब शरीर उसके उपयुक्त नहीं रह गया है, अतः मेरी अभिरुचि संलेखना-तप प्रारम्भ करने की हो रही है।' सन्तों ने औषधि-प्रयोग के लिए प्रार्थना की, पर उन्होंने अपने विचारानुसार तपस्या की औषधि को ही प्रमुखता देने क विचार दुहराया।
संलेखना-तप प्रारम्भ करते हुए उन्होंने पहले-पहल वैशाख कृष्णा अष्टमी से चौविहार तेला किया। उसके पश्चात् तो तपस्या का एक सिलसिला ही चालू हो गया। उपवास, बेले, तेले और चोले तक की तपस्या अनेक बार दुहराई गई। पारण के दिन भी वे ऊनोदरता के लिए अति अल्पमात्रा में ही भोजन लिया करते थे। तपस्या के उस क्रम में कम-से-कम उपवास से लेकर अधिक-से-अधिक उन्होंने दस दिनों का उपवास किया, जो कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पूर्ण हुआ। उसके पश्चात् श्रावण महीने में एकांतर उपवास चालू किये। बीच-बीच में बेला आदि की तपस्या भी होती रही।
इस प्रकार उन्होंने बड़ी शूरवीरता के साथ तपस्या के द्वारा अपने शरीर को काफी क्षीण कर लिया। *'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः'—* 'आत्मा और पुद्गलमय शरीर— ये दोनों एक नहीं हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न हैं'— यह भावना उनकी तपस्या में व्याप्त थी। पूर्ण मानसिक समाधि के साथ वे अपने निर्णीत मार्ग पर चलते रहे।
*आचार्य श्री भारमल जी की चतुर्विध धर्म संघ को प्रदत अंतिम शिक्षा इत्यादि...* के बारे में जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 224* 📜
*आचार्यश्री भारमलजी*
*अन्तिम चरण*
*विहार-स्थगन*
आचार्य भारमलजी की अवस्था काफी वृद्ध हो चुकी थी। विहार भी छोटे ही करने लगे थे। विक्रम सम्वत् 1877 का चतुर्मास नाथद्वारा में किया। उसके पश्चात् अनेक छोटे क्षेत्रों का स्पर्श करते हुए कांकरोली पधारे। वहां एक महीना विराजे, फिर दर्शनार्थ आये हुए सन्त-सतियों के बड़े झुंड के साथ राजनगर पधारे। उस समय संघ में 38 साधु थे। वे सब वहां एकत्रित हो गये। सैकड़ों गृहस्थ भी दर्शनार्थ आये हुए थे। आचार्यश्री ने आगामी कार्य का दिशा-दर्शन देकर कुछ सिंघाड़ों को वहां से विहार करवा दिया। स्वयं भी विहार की तैयारी करने लगे, परन्तु तभी उदर-वेदना से शरीर अस्वस्थ हो गया। फलस्वरूप कुछ समय के लिए विहार को स्थगित कर देना पड़ा। औषधोपचार करने से कुछ स्वस्थ हुए तब वहां से विहार कर केलवा पधार गये। उस समय स्वयं सहित 22 सन्त साथ थे। होली चतुर्मासी वहीं पर की।
वृद्धावस्था में होने वाला हर रोग मिट जाने पर भी कुछ-न-कुछ अशक्ति छोड़ ही जाता है। शीघ्रता से उस कमी को पूरा कर पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। आचार्य भारमलजी केलवा पधार तो गये, परन्तु विहार के परिश्रम से शरीर एकदम अशक्त हो गया। फलतः रोग ने शरीर को फिर घेर लिया। औषधोपचार किया गया, परन्तु कोई विशेष लाभ नहीं हो सका। आचार्यश्री केलवा से आगे मारवाड़ की ओर पधार जाना चाहते थे, पर विहार कर पाना सम्भव नहीं रहा, तब उस विचार को स्थगित कर दिया। आचार्यश्री बहुत स्पष्टता से अनुभव करने लगे कि जीवन अब अपने अन्तिम चरण में प्रविष्ट हो रहा है।
*युवाचार्य की नियुक्ति*
अवस्था के ढलाव और शरीर की क्रमिक क्षीणता को देखकर आचार्य भारमलजी ने धर्मसंघ की भावी व्यवस्था कर देने का विचार किया। तेरापंथ में आचार्य के अनेक दायित्वों में यह सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण दायित्व माना जाता है कि वे उपयुक्त समय पर अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर दें। आचार्यश्री को अनुभव हुआ कि अब वह समय आ चुका है। विलंब करने में खतरा हो सकता है। अपने युग के अनेक प्रभावशाली और योग्य मुनियों में से उन्होंने युवक मुनि रायचंदजी का नाम चुना। उसी समय नियुक्ति-पत्र लिखा गया और उसमें सबके हस्ताक्षर करवाये गये। जनसमुदाय के बीच अपनी चादर उढ़ाकर मुनि रायचंदजी को विधिवत् युवाचार्य घोषित कर दिया गया। वह कार्य केलवा में विक्रम संवत् 1877 (चैत्रादि 1878) वैशाख कृष्णा 9 गुरुवार को सम्पन्न हुआ।
*तपस्या में अभिरुचि*
*'कंखे गुणे जाव सरीग्भेउ'—* साधु अन्तिम सांस तक गुणवृद्धि की आकांक्षा करता रहे। आचार्य भारमलजी इस आगम-शिक्षा के एक मूर्त उदाहरण थे। उन्होंने अपने शरीर की शक्ति को घटते हुए देखा तो सोचा कि अब मेरे लिए जनपद विहार के द्वारा लोगों में धर्म-प्रसार कर पाना सम्भव नहीं है। क्षीण हुई शारीरिक क्षमता को पुनः प्राप्त कर लेना कठिन था, अतः उन्होंने शरीर से तत्काल दूसरा काम लेने की तैयारी कर ली।
उन्होंने सन्तों को बुलाकर कहा— 'शरीर नश्वर है, अतः उसके विनाश में तो किसी को आश्चर्य हो ही नहीं सकता। परन्तु मैं चाहता हूं कि उसके विनाश से पहले उससे कुछ सार और खींच लूं। धर्म-प्रसार का कार्य मैंने किया है, पर अब शरीर उसके उपयुक्त नहीं रह गया है, अतः मेरी अभिरुचि संलेखना-तप प्रारम्भ करने की हो रही है।' सन्तों ने औषधि-प्रयोग के लिए प्रार्थना की, पर उन्होंने अपने विचारानुसार तपस्या की औषधि को ही प्रमुखता देने क विचार दुहराया।
संलेखना-तप प्रारम्भ करते हुए उन्होंने पहले-पहल वैशाख कृष्णा अष्टमी से चौविहार तेला किया। उसके पश्चात् तो तपस्या का एक सिलसिला ही चालू हो गया। उपवास, बेले, तेले और चोले तक की तपस्या अनेक बार दुहराई गई। पारण के दिन भी वे ऊनोदरता के लिए अति अल्पमात्रा में ही भोजन लिया करते थे। तपस्या के उस क्रम में कम-से-कम उपवास से लेकर अधिक-से-अधिक उन्होंने दस दिनों का उपवास किया, जो कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पूर्ण हुआ। उसके पश्चात् श्रावण महीने में एकांतर उपवास चालू किये। बीच-बीच में बेला आदि की तपस्या भी होती रही।
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *मानसिक चेतना:*भाग १*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
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卐🌼🔺🕉अर्हम् 🕉 🔺🌼卐
🌸 *परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी की अहिंसा यात्रा* 🌸
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*(संभावित कार्यक्रम)*
*04 जनवरी 2020, शनिवार*
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
*प्रातःकालीन प्रवास स्थल*
Prerana Navodaya Techno School
Kannari
Near Sindhanur, Karnataka
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*लोकेशन जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करे।*
https://maps.app.goo.gl/yd1ijLHZk3YRAYfj7
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*(संभावित यात्रा- 22.2 k.m)*
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*प्रस्तुति 🌻संघ संवाद*🌻
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