18.10.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 18.10.2019
Updated: 18.10.2019

Updated on 18.10.2019 20:27

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 67* 📜

*अध्याय~~7*

*॥आज्ञावाद॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*18. सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वर्ज्या हि संयतैः।*
*प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा।।*

संयमी पुरुषों को सब काल में, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए। न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण।

*19. व्यर्थं कुर्वीत नारम्भं, श्राद्धो नाक्रामको भवेत्।*
*हिंसां संकल्पजां नूनं, वर्जयेद् धर्ममर्मवित्।।*

धर्म के मर्म को जानने वाला श्रावक अनावश्यक आरंभजा-हिंसा न करे, आक्रमणकारी न बने और संकल्पजा-हिंसा का अवश्य वर्जन करे।

*20. अहिंसैव विहितोस्ति, धर्मः संयमिनो ध्रुवम्।*
*निषेधः सर्वहिंसायाः, द्विविधा वृत्तिरस्य यत्।।*

संयमी पुरुष के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है। संयमी की वृत्ति दो प्रकार की होती है— अहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन, यह निषेधात्मक वृत्ति है।

*21. अहिंसाया आचरणे, विधानञ्च यथास्थितिः।*
*संकल्पजा-निषेधश्च, श्रावकाय कृतो मया।।*

श्रावक के लिए मैंने यथाशक्ति अहिंसा के आचरण का विधान और संकल्पजा-हिंसा का निषेध किया है।

*22. अविहिताऽनिषिद्धा च, तृतीया वृत्तिरस्य सा।*
*सर्वहिंसापरित्यागी, नाऽसौ तेन प्रवर्तते।।*

गृहस्थ की तीसरी वृत्ति जो है, वह न विहित है और न निषिद्ध है। वह सर्व-हिंसा का परित्यागी नहीं होता, इसलिए उस वृत्ति का अवलंबन लेता है।

*23. हिंसाविधानं नो शक्यं, तेन साऽविहिता खलु।*
*अनिवार्या जीविकायै, निरोद्धुं शक्यते न तत्।।*

हिंसा का विधान नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अविहित है और आजीविका के लिए जो अनिवार्य हिंसा हो तो उसका निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिषिद्ध है।

*24. द्विविधो गृहिणां धर्म, आत्मिको लौकिकस्तथा।*
*संवरो निर्जरा पूर्वः, समाजाभिमतोऽपरः।।*

गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता है— आत्मिक और लौकिक। आत्मिक-धर्म के दो प्रकार हैं— संवर और निर्जरा। समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है।

*25. आत्मशुद्धयै भवेदाद्यो, देशितः स मया ध्रुवम्।*
*समाजस्य प्रवृत्त्यर्थं, द्वितीयो वर्त्यते जनैः।।*

आत्मिक-धर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है, इसलिए मैंने उसका उपदेश किया है। लौकिक-धर्म समाज के प्रवृत्ति के लिए होता है। उसका प्रवर्तन सामाजिक जनों के द्वारा किया जाता है।

*मुनि और गृहस्थ का आत्म धर्म एक... पालन की तरतमता... तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्म का स्वरूप...* समझेंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रृंखला -- 556* 📝

*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*

*जैन समन्वय सद्भावना का सेतु*
*(पंचसूत्री एवं त्रिसूत्री योजना)*

जैन समन्वय, सद्भावना की दिशा में आचार्य श्री तुलसी सतत जागरूक रहे। उन्होंने पंचसूत्री, त्रिसूत्री आदि योजनाओं के माध्यम से समन्वयात्मक विचारों का प्रश्न फार्मूला दिया एवं सर्वधर्म सद्भावना का विशेष प्लेटफार्म दिया।

परमार्थचेता पूज्य प्रवर ने मज़हबों के बीच गहराते फासलों-दुरावों-अलगावों को मिटाने में काफी कामयाबी हासिल की।

*'हारे नहीं हौसले, दूर हुए फासले'*
यह सारगर्भित सूक्ति उनके जीवन में सत्यापित हुई। समाज में भावनात्मक एकता का सरस वातावरण निर्मित हुआ। दीर्घ सोच के धनी आचार्यश्री तुलसी का यह प्रयत्न उनके समन्वयात्मक विचारों का अपूर्व निदर्शन था।

*धर्म के वैज्ञानिक व्याख्याता*

आचार्य श्री तुलसी धर्म के आधुनिक भाष्यकार एवं वैज्ञानिक व्याख्याता थे। उन्होंने धर्म के संबंध में नए-नए मूल्यों की प्रतिष्ठा की एवं वैज्ञानिक व्याख्याएं दी। जैन धर्म को जन-जन का धर्म बताकर एक और व्यापक दृष्टि प्रदान की।

परम पूज्य आचार्य श्री तुलसी के उदार विचार, सार्वभौम चिंतन, चुंबकीय व्यक्तित्व ने जनमानस को विशेष रूप से आकृष्ट किया है। जैन-जैनेतर सभी वर्गों के व्यक्ति आपके संपर्क में आए और प्रभावित हुए।

पंडित सुखलाल जी, पंडित बेचरदासजी, मुनि पुण्यविजयजी जैसे उच्च कोटि के चिंतक, साहित्यकार, अनुसंधानी विद्वान भी आपकी उदात्त सोच से प्रभावित थे।

एक बार किसी विशेष प्रसंग पर महाप्राण गुरुदेव तुलसी के अनुग्रह से अभिभूत जैन दर्शन के मर्मज्ञ पंडित दलसुख मालवणियाजी के मुख से सहज स्वर निकले— "आचार्य श्री का में तीव्र आलोचक रहा, किंतु उन्होंने मुझे अपनत्व दिया, स्नेह दिया, आदर दिया। उनकी यादों को भुलाया नहीं जा सकता।"

चाहे कोई आचार्य श्री तुलसी के आलोचक रहे, प्रशंसक रहे, उन्होंने सबको अपना माना, सबको अपनत्व दिया। बिना किसी भेदभाव के सबके द्वार पर पहुंचे। किसी ने आपके व्यक्तित्व में भगवान का रूप देखा और किसी अन्य ने मानवता का मसीहा मानकर अपना मस्तक झुकाया। समदर्शी आचार्य श्री का स्नेह समान रूप से सब पर बरसता रहा। इसीलिए वे जन-जन के आदरणीय, सम्माननीय बने रहे।

*यात्राओं का कीर्तिमान*

आचार्य श्री के शासनकाल में साधु-साध्वियों की यात्राओं का विस्तार हुआ। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, सिक्किम, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, कश्मीर आदि प्रायः सभी प्रांतों में तथा भारत से बाहर नेपाल, भूटान में भी साधु-साध्वियां पहुंचे। उन्होंने जन-जन को मानवता का संदेश दिया एवं धर्म प्रचार का महान् कार्य किया।

*आचार्य श्री तुलसी महायात्री थे...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 164* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*महान् साहित्य-सर्जक*

*साधना का साहित्य*

स्वामी भीखणजी जहां तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक थे, वहां तेरापंथ के साहित्य-क्षेत्र में भी आद्य पुरुष थे। यद्यपि उनको अपने साधना-काल में भारी संघर्षों की घाटियों से गुजरना पड़ा था, परंतु वे उस सारे समय में पग-पग पर मुंह बाए खड़ी विपरीतताओं का डटकर सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे। इतने पर भी उन्होंने अपने जीवन-रस को निरर्थक कभी नहीं बहने दिया। विरोध में शक्ति का अपव्यय करने की अपेक्षा उन्होंने उसे रचनात्मकता की ओर मोड़ दिया। विरोध में खड़े लोगों ने जब आक्षेप किए, निंदा की और आवेशपूर्ण हो-हल्ला मचाया, तब स्वामीजी ने शांत भाव से उनके उत्तर में आगम-मंथन किया। फलतः नवनीत-रूप में उन्हें जो निष्कर्ष प्राप्त हुए, उन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने साहित्य-सर्जन किया। उनके उस कार्य से विरोधियों को तो सटीक उत्तर मिला ही, पर उससे भी महत्त्वपूर्ण फल यह हुआ कि संसार को इतना गंभीर और खोजपूर्ण साहित्य उपलब्ध हुआ।

स्वामीजी के साहित्य में पांडित्य के स्थान पर सहजता के दर्शन ही अधिक होते हैं। वे अपने युग के एक महान् संत थे। कबीर जैसी निर्भयता और फक्कड़पन उनके जीवन में सर्वत्र दृष्टिगत होते हैं। ऐसे संतों की साहित्य-साधना वस्तुतः सत्य की ही साधना होती है। इसीलिए स्वामी जी की सहज वाणी से निःसृत साहित्य-धारा सत्य से ही अनुप्राणित है। इसी अर्थ में वह अपने-आप में पूर्ण भी है। स्वामीजी के साहित्य का मूल आधार सत्य का उद्घाटन तथा जन-मानस को आदर्श की ओर उत्प्रेरित करना रहा। यही कारण है कि उसे प्रकाश-किरणों के समान सहस्रों-सहस्रों मनुष्यों के मानस-कमलों को विकस्वर करने में साफल्य प्राप्त हुआ। स्वामीजी के साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन-मनन करने वालों को अवश्य ही यह अनुभव होगा कि उनके उस उपक्रम को 'साहित्य की साधना' से कहीं अधिक 'साधना का साहित्य' कहना संगत होगा।

*स्वामीजी का साहित्य जन-भाषा में और जन उद्बोधन के लिए था...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 66* 📜

*अध्याय~~7*

*॥आज्ञावाद॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*11. ऐतेषां विरतिः प्रोक्तः, संयमस्तत्त्ववेदिना।*
*पूर्णा सा पूर्ण एवासौ, अपूर्णायाञ्च सोंशतः।*

तत्वज्ञों ने हिंसा आदि की विरति को 'संयम' कहा है। पूर्ण विरति से पूर्ण संयम और अपूर्ण विरति से आंशिक संयम होता है।

*12. पूर्णस्याराधकः प्रोक्तः, संयमी मुनिरुत्तमः।*
*अपूर्णाराधकः प्रोक्तः, श्रावकोऽपूर्णसंयमी।।*

पूर्ण संयम की आराधना करने वाला संयमी उत्तम मुनि कहलाता है और अपूर्ण संयम की आराधना करने वाला अपूर्ण संयमी या श्रावक कहलाता है।

*13. रागद्वेषविनिर्मुक्त्यै, विहिता देशना जिनैः।*
*अहिंसा स्यात्तयोर्मोक्षो, हिंसा तत्र प्रवर्तनम्।।*

वीतराग ने राग और द्वेष से विमुक्त होने के लिए उपदेश दिया। राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है।

*14. आरम्भाच्च विरोधाच्च, संकल्पाज्जायते खलु।*
*तेन हिंसा त्रिधा प्रोक्ता, तत्त्वदर्शनकोविदैः।।*

हिंसा करने के तीन हेतु हैं— आरंभ, विरोध और संकल्प। अतः तत्त्वज्ञानी पंडितों ने हिंसा के तीन भेद बतलाए हैं—

🔸 आरंभजा हिंसा— जीवनयापन हेतु हिंसा।
🔸 विरोधजा हिंसा— प्रतिरक्षात्मक हिंसा।
🔸 संकल्पजा हिंसा— आक्रामक हिंसा।

*15. कृषी रक्षा च वाणिज्यं, शिल्पं यद् यच्च वृत्तये।*
*प्रोक्ता साऽऽरम्भजा हिंसा, दुर्वार्या गृहमेधिना।।*

कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे आरंभजा-हिंसा कहा जाता है। इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं पाता।

*16. आक्रामतां प्रतिरोधः, प्रत्याक्रमणपूर्वकम्।।*
*क्रियते शक्तियोगेन, हिंसा स्यात् सा विरोधजा।।*

आक्रमण करने वालों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध किया जाता है, वह विरोधजा-हिंसा है।

*17. लोभो द्वेषः प्रमादश्च, यस्या मुख्यं प्रयोजकम्।*
*हेतुः गौणो न वा वृत्तेः, हिंसा संकल्पजाऽस्ति सा।।*

जिस हिंसा के प्रयोजक— प्रेरक लोभ, द्वेष और प्रमाद होते हैं और जिसमें आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नहीं होता, वह संकल्पजा-हिंसा है।

*मुनि के लिए हिंसा सर्वथा त्याज्य... श्रावक के लिए हिंसा विवेक... मुनि की दो प्रकार की वृत्ति... श्रावक के लिए अहिंसा का विवेक... दो प्रकार का गृहस्थ-धर्म...* हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रृंखला -- 555* 📝

*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*

*जैन विश्व भारती संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी)*

जैन विश्व भारती संस्थान (भारत सरकार द्वारा मान्य विश्वविद्यालय) आचार्य श्री तुलसी की खुली आंखों में संजोए सपनों का साकार रूप है।

प्राचीन काल में बौद्ध संस्थान तक्षशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालयों को जो गौरव प्राप्त हुआ, आज इस जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं को भी कम गौरव प्राप्त नहीं है। विश्व का यह एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जहां प्राच्य विद्याओं के साथ पारंपरिक एवं गैर पारंपरिक विषयों में स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पी.एच.डी एवं डी.लिट् तक की सुविधा है। इसके अतिरिक्त इस संस्थान में 'भगवान् महावीर इंटरनेशनल शोध केंद्र' एवं 'अनेकांत शोध पीठ' शोध अध्ययन केंद्र संचालित हैं। अनेक साधु-साध्वियां एवं देश-विदेश के सैकड़ों शिक्षार्थी-शोधार्थी इससे लाभान्वित हो रहे हैं। वर्तमान में छह अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के साथ इसका अनुबंध है।

*'णाणस्स सारमायारो'* 'ज्ञान का सार है आचार' को अपना आदर्श बोध वाक्य मानकर यह विश्वविद्यालय जैन विद्या एवं प्राच्य विद्याओं, जीवन विज्ञान एवं मूल्यपरक शिक्षा तथा अहिंसा और शांति के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित हुआ है।

*श्रेष्ठता का सत्यापन:—* विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) के स्वायत्त राशि संस्थान राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद् द्वारा संस्थान को 4 प्वाइंट स्केल में बी+ का दर्जा दिया गया है।

—मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा संस्थान को 'ए' श्रेणी प्रदान की गई है।
—देश के श्रेष्ठतम 25 निजी/मान्य विश्वविद्यालयों में इसका स्थान 17 वां है।
— दी नॉलेज रिव्यु मैगजीन की सर्वे सूची में देश के 20 प्रशंसित विश्वविद्यालयों में शामिल है।

यू.जी.सी. के अलावा डी.ई.बी. व एन.सी.टी.ई. से मान्यता तथा ए.आई.यू. व ए.सी.यू. की स्थाई सदस्यता इसे प्राप्त है।

जैन इतिहास में इसे प्रथम 'जैन विश्वविद्यालय' होने का गौरव प्राप्त है।

जैनधर्म एवं दर्शन का यह उच्च स्तरीय 'जैन विश्व भारती संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी)' कीर्तिधर आचार्य श्री तुलसी के प्रयत्नों का अपूर्व कीर्ति-स्तंभ है।

*आचार्य श्री तुलसी की जैन समन्वय की दिशा में योजनाएं... धर्म के वैज्ञानिक व्याख्याता... पूज्य प्रवर की यात्राओं के कीर्तिमान...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 163* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*18. गहरे व्यंग्य*

*महात्मा-धर्म*

पुर में में स्वामीजी व्याख्यान दे रहे थे। धर्म का विवेचन करते हुए उन्होंने कहा— 'आगम में श्रमण-धर्म के दस भेद बतलाए हैं। जयचंदजी विराणी, जो कि यति आम्नाय को मानने वाले थे, बीच में बोल पड़े— 'श्रमण-धर्म के नहीं यति-धर्म के।'

स्वामीजी ने तत्काल कहा— 'तुम उन्हें महात्मा-धर्म के भेद भी कह सकते हो।'

स्वामीजी का उक्त कथन सुनकर जयचंदजी चुप हो गए। क्योंकि उस समय जो यति घर बसा लेते थे, वे अपने आपको 'महात्मा' कहा करते थे। स्वामीजी का संकेत भी उसी ओर था, जबकि मूलतः श्रमण, यति और महात्मा पर्यायवाची शब्द हैं।

*गधे पर बिठाएं तो*

एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा— 'मार्ग में चलते-चलते कोई साधु थक जाए और उसी समय उधर जाने वाली कोई बैलगाड़ी सहज रूप में आ जाए तो उस पर बिठाकर साधु को ले आने में क्या दोष है?'

स्वामीजी ने कहा— 'मान लो, गाड़ी नहीं आई, किंतु गधा आ गया, तो उस पर बिठाकर ले आना कैसा रहे?'

वह व्यक्ति झल्ला कर बोला— 'आप गधे की बात बीच में क्यों लाते हैं? मैं गाड़ी की पूछ रहा हूं।'

स्वामीजी ने कहा— 'अहिंसा की दृष्टि से साधु के लिए दोनों ही अकल्पनीय हैं, अतः किसी पर बिठाकर लाया जाए, क्या अंतर पड़ता है?'

*मेरणियां और दीक्षा*

कंटालिया के एक भाई ने स्वामीजी से कहा— मेरे दीक्षा ग्रहण करने के भाव हैं, किंतु माता के प्रति अत्यंत मोह होने के कारण जब तक वे जीवित हैं, तब तक तो दीक्षा नहीं ली जा सकेगी।'

कुछ वर्षों पश्चात् जब उसकी माता गुजर गई, तब स्वामीजी ने उससे पूछा— 'दीक्षा के लिए तेरी भावना थी न? अब तो तेरी माता भी गुजर चुकी है। फिर विलंब किसलिए करता है?'

वह भाई बोला— 'स्वामीजी! मां तो गुजर गई, पर अब तो एक और अड़चन आ गई है। मैं पहाड़ी गांव में व्यापार करता हूं। वहां 'मेर' बसते हैं। मेरा मोह कुछ 'मेरणियों' से हो गया है। सोचता हूं, कुछ ठहर कर ही दीक्षा लूंगा।'

स्वामीजी उसकी दुर्बलता को लक्ष्य कर बोले— 'माता तो एक ही थी, पर ये मेरणियां तो बहुत हैं। कब वे मरेंगी और कब तुझे दीक्षा आएगी? ऐसी निर्बल मनोदशा वाले को दीक्षा की आशा नहीं करनी चाहिए।'

*स्वामीजी महान् साहित्य-सर्जक थे...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 18.10.2019 20:27

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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

⌚ _दिनांक_: *_18 अक्टूबर 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

https://www.facebook.com/SanghSamvad/

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Updated on 18.10.2019 20:27

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*आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ*
*चेतना सेवा केन्द्र,*
*कुम्बलगुड़ु,*
*बेंगलुरु*

💧
*महाश्रमण चरणों में...*
*_____◆_____◆_____*


*: दिनांक:*
18 अक्टूबर 2019

💠
*: प्रस्तुति:*
🌻 संघ संवाद 🌻

🌀🌐🌀🌐🌀🌐

Updated on 18.10.2019 20:27

👉 अहमदाबाद - तिविहार संथारा प्रत्याख्यान

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#कैसे #सोचें *: #हृदय परिवर्तन के #प्रयोग ४*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482

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🌻 #संघ #संवाद 🌻

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २८९* - *आभामंडल १७*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482

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