19.09.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 19.09.2019
Updated: 19.09.2019

Updated on 19.09.2019 20:23

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 42* 📜

*अध्याय~~3*

*॥आत्मकर्तृत्ववाद॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*27. विशुद्धया प्रतिमया, मोहनीये क्षयं गते।*
*सर्वलोकमलोक च वीक्षते सुसमाहितः।।*

विशुद्ध प्रतिमा के द्वारा मोह-कर्म के क्षीण होने पर समाहित आत्मा समस्त लोक और अलोक को देख लेता है।

*28. सुसमाहितलेश्यस्य, अवितर्कस्य संयतेः।*
*सर्वतो विप्रमुक्तस्य, आत्मा जानाति पर्यवान्।।*

जिसकी लेश्या-भावधारा समाहित होती है, जो सुख-सुविधा की तर्कणा-ताक में नहीं रहता और जो बाह्य और आभ्यंतर संयोगों अथवा संबंधों से सर्वदा मुक्त है, उस संयमी की आत्मा लोक-अलोक के नाना पर्यवों-अवस्थाओं को जान लेती है।

*29. तपोपहतलेश्यस्य, दर्शनं परिशुद्ध्यति।*
*काममूर्ध्वमधस्तिर्यक्, स सर्वमनुपश्यति।।*

तपस्या के द्वारा जो कर्महेतुक लेश्याओं का विलय करता है, उसका दर्शन परिशुद्ध हो जाता है। शुद्ध दर्शनवाला व्यक्ति ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में अवस्थित सब पदार्थों को देखता है।

*30. ओजश्चित्तं समादाय, ध्यानं यस्य प्रजायते।*
*धर्मे स्थितः स्थिरचित्तो, निर्वाणमधिगच्छति।।*

जो निर्मल अथवा राग-द्वेष मुक्त चेतना का आलंबन लेकर ध्यान करता है, वह धर्म में स्थित हो जाता है। वह स्थिरचित्त होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

*31. नेदं चित्तं समादाय, भूयो लोके स जायते।*
*संज्ञिज्ञानेन जानाति, विशुद्धं स्थानमात्मनः।।*

निर्मल चित्तवाला व्यक्ति बार-बार संसार में जन्म नहीं लेता। वह संज्ञिज्ञान— जाति-स्मृति के द्वारा आत्मा के विशुद्ध स्थान को जानता है।

*कैसे साधक को देव-दर्शन... यथार्थ स्वप्नद्रष्टा कौन...? उसका परिणाम... अवधिज्ञान किसको...? जीवलोक के प्रति कर्तृत्व किसका...?* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Updated on 19.09.2019 20:23

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 130* 📖

*गुणों की माला पहनें*

गतांक से आगे...

गुणों की वह माला कैसे बनाई गई है? मानतुंग कहते हैं— भगवन्! आपकी स्तुति की मैंने माला बनाई है। मैंने स्तवन किया, चौवालीस श्लोक बनाए। इन चौवालीस मनकों की एक माला बन गई। माला में धागा होता है। धागे के बिना माला पिरोई नहीं जाती। पिरोने के लिए धागा चाहिए। जो वीतराग के गुण हैं, वे धागे हैं। गुण का एक अर्थ है— विशेषता और दूसरा अर्थ है— धागा, डोरा। यहां गुण के दोनों अर्थ हैं। इस दुनियां से सर्वथा ऊंचा व्यक्ति है— वीतराग। वीतराग के समान कोई बड़ा आदमी नहीं होता। वहां बड़ा, छोटा— ये शब्द समाप्त हो जाते हैं। जब वीतरागता आती है तब न कोई ऊंचा रहता है और न कोई नीचा, न कोई बड़ा रहता है और न कोई छोटा। सबकी समान भूमिका होती है किंतु फिर भी व्यवहार की भाषा में यह कहा जाता है— वीतराग से बड़ा इस दुनिया में कोई आदमी नहीं होता। वीतराग से अधिक इस दुनिया में कोई सुखी नहीं होता। वीतराग से अधिक इस दुनिया में कोई अभय नहीं होता। वीतराग से अधिक इस दुनिया में कोई भी तनाव-मुक्त नहीं होता। उसे न अनिद्रा की बीमारी सताती है और न निद्रा की बीमारी सताती है। न काल्पनिक भय सताता है और न वास्तविक भय सताता है। न भय, न शोक, न घृणा, न किसी के प्रति राग और न किसी के प्रति द्वेष। इन सब झंझटों से मुक्त होकर वह चेतना की सर्वोच्च भूमिका पर चला जाता है। मानतुंग कहते हैं— उन वीतरागता के गुणों का मैंने धागा लिया है। उन गुणों के धागे से मैंने एक माला पिरोई है। वह माला मैंने व्यवसाय की दृष्टि से नहीं पिरोई है। एक मालाकार माला बनाता है, फिर उसे बाजार में जाकर बेचता है। यह व्यवसाय है। मैंने माला व्यावसायिक अथवा धन कमाने की दृष्टि से नहीं बनाई है, भक्ति के साथ बनाई है। जहां भक्ति नहीं होती, श्रद्धा नहीं होती, वहां रस नहीं आता। श्रद्धा और भक्ति में जो चेप है, मिठास है, वह व्यवसाय में कभी नहीं हो सकता। एक व्यक्ति श्रद्धा और समर्पण के साथ काम करता है, अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है, उसके द्वारा जो काम होता है, वह शायद दूसरों के द्वारा नहीं होता। एक रसोईया भी रसोई बनाता है और एक पत्नी भी अपने पति के लिए रसोई बनाती है। दोनों के भोजन की मिठास में अंतर आ जाएगा। रसोईया व्यावसायिक दृष्टि से रसोई बनाता है। पत्नी पति के लिए बनाती है, उसके मन में एक प्रीति का भाव होता है। अंतर आ जाएगा, यदि कोई सूक्ष्मता से जान सके। जहां भक्ति है, श्रद्धा है, वहां क्रिया अलग होगी और जहां व्यावसायिक दृष्टि है, वहां क्रिया बिल्कुल अलग होगी।

मानतुंग कह रहे हैं— उस माला में नाना प्रकार के फूल हैं। वे बड़े सुंदर वर्ण वाले हैं। वर्ण के दो अर्थ हैं। रुचिर वर्ण का एक अर्थ है— सुंदर रंग। दूसरा अर्थ है— सुंदर अक्षर। उस माला में मैंने ऐसे अक्षरों का विन्यास किया है, संयोजन किया है, जिससे वह माला बहुत सुंदर बन गई है। अक्षर भी दो प्रकार के होते हैं— असंयुक्त और संयुक्त, एकाक्षर और अनेकाक्षर। मानतुंग कह रहे हैं— मैंने जो माला बनाई है, उसमें विचित्र वर्ण-पुष्प हैं। बहुत ही सुंदर-सुंदर अक्षरों का संयोजन है। एक भी अक्षर ऐसा नहीं है, जो मंत्र न हो। प्रत्येक अक्षर मंत्र है। भक्तामर शक्तिशाली क्यों बना? इसलिए कि इसमें वर्ण की संयोजना, विन्यास ऐसा किया गया है, जिससे प्रत्येक अक्षर मंत्र बन गया। एक विकल्प है श्लोक के साथ मंत्रों की साधना। कुछ श्लोक ऐसे होते हैं जिनके साथ मंत्रों की स्वतंत्र साधना होती है। विचित्र प्रकार के वर्ण-पुष्प और गुणों के धागे से जो स्तुति रूपी माला मैंने बनाई है, उस माला को जो व्यक्ति निरंतर अपने कंठ में पहनता है, उस व्यक्ति के पास अपने आप लक्ष्मी आती है।

इस भावना के साथ मानतुंग अपने स्तोत्र को संपन्न कर रहे हैं। सबके लिए एक शुभ-भावना, मंगल-कामना कर रहे हैं— इस माला को हर कोई पहन सकता है। दिन में, रात में, जंगल में, गांव में, पुरुष और स्त्री उस माला को धारण करें। कोई नेकलेस पहने या न पहने किंतु इस माला को अवश्य पहने। जो इस माला को धारण करता है, वह सचमुच सौभाग्यशाली बनता है। लक्ष्मी उसके पास आती है। इस माला को पहनने के लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की जरूरत है। श्रद्धा के साथ जो इस माला को धारण करता है, अवश्य ही वह अपने जीवन में सफल होता है।

*भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों का अर्थ...* जानेंगे और समझेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 19.09.2019 20:23

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 142* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*13. तीखे आलोचक*

*तेरे बाप का क्या जाएगा*

कुछ साधु तपस्या के पारणे पर समाज में मिठाई बांटने की बड़ी प्रेरणा दिया करते थे। स्वामीजी का कथन था— 'तपस्या अध्यात्म साधना के लिए की जाती है। उसके उपलक्ष में यह आडंबर उचित नहीं।'

कभी-कभी वे बड़े तीखेपन के साथ यह भी कहते— 'मिठाई बांटने की प्रेरणा देने वाले साधु अपनी लोलुपता ही प्रकट करते हैं। वे सोचते हैं कि समाज में बांटी जाएगी तो उन्हें भी मिलेगी।'

एक व्यक्ति ने कहा— 'वे तो उसमें से थोड़ी मिठाई ला पाते हैं। शेष सारी तो समाज के घरों में ही जाती है।'

स्वामीजी ने दृष्टांत के द्वारा उत्तर देते हुए कहा— 'विवाह-मंडप में मंत्रोच्चारण करते हुए ब्राह्मण ने मंत्र की लय में अपनी पुत्री को संकेत किया— 'घी चुरा ले, घी चुरा ले।'

पुत्री समझ तो गई परंतु पास में कोई पात्र नहीं था, अतः पिता की लय में ही अपना स्वर मिलाती हुई बोली— 'किसमें डालूं? किसमें डालूं?'

ब्राह्मण ने मूर्ख पुत्री को समझाते हुए फिर कहा— 'नया सिकोरा, नया सिकोरा।'

पुत्री ने एक अन्य समस्या सम्मुख रखते हुए कहा— 'सूख जाएगा, सुख जाएगा।'

ब्राह्मण ने तब उकताहट के क्रुद्ध स्वर में कहा— 'तेरे बाप का क्या जाएगा? तेरे बाप का क्या जाएगा?'

स्वामीजी ने उपसंहार करते हुए कहा— यदि तपस्या के उपलक्ष में की गई अधिकांश मिठाई बांटने में चली जाती है, तो उनके बाप का क्या जाता है? उनके लिए तो जितनी पल्ले पड़ी, उतनी ही ठीक है।'

*पोल खुल न जाए*

उस युग में अनेक साधु और आचार्य अपने श्रावकों को स्वामीजी के संपर्क में नहीं आने देते थे। उन्हें उनके पास जाने का त्याग करवा दिया करते थे।

किसी ने पूछा— 'ऐसा करने से उनको क्या लाभ है?'

स्वामीजी ने कहा— 'आगम में 'रयणा देवी' के वर्णन में बतलाया है कि उसने जिनऋषि और जिनपाल को दक्षिण के उद्यान में जाने का निषेध किया था। वह जानती थी कि वहां जाने से उसकी पोल खुल जाएगी। वही 'रयणा देवी' वाली दशा उन साधुओं और आचार्यों की है। उन्हें भय है कि भीखणजी के पास जाएंगे तो उन्हें शिथिलाचारी समझने लगेंगे और संभवतः सदा के लिए ही चले ले जाएंगे।'

*स्वामीजी कभी-कभी ऐसा उत्तर देते थे... जिससे झगड़ा तथा वितण्डा करने वाले तत्काल चुप तथा निरुत्तर हो जाते थे...* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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Updated on 19.09.2019 20:23

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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

⌚ _दिनांक_: *_19 सितंबर 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

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