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जाप की नहीं पापों की गिनती करें - पूज्य आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी मुनिराज
श्री चंद्रप्रभु दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, तिजारा जी की पावन धरा पर आयोजित श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान की बेला में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनिराज ने अपनी पीयूष वाणी द्वारा कहा कि "अब तक अज्ञान अंधकार में बहुत समय निकाला है। सिद्धचक्र महामंडल विधान के द्वारा हमें अपने जीवन में सम्यग्ज्ञान का प्रकाश लाना है। बाहर के अंधकार को दूर करने के लिए तो आप तुरंत उपाय कर लेते हो पर अहंकार अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए क्या उपाय किया है। अगर नहीं तो इस विधान के मध्य अपने अंदर प्रकाश ले आएं। सिद्धचक्र महामंडल विधान के द्वारा आज आपको जानकारी मिलेगी कि किस प्रकार संसार प्राणी पाप का द्वार खुलता है। आलोचना पाठ में आप पढ़ते हैं-
समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्य धरिकै॥
संसारी प्राणी स्वयं पाप करता है, दूसरों से भी करवाता है, करते हुए की अनुमोदना करता है। मन वचन काय इन तीनों का सहारा लेकर पाप करता है। *मन में खोटे विचार आते हैं घृणा, ईर्ष्या, कलह, क्लेश हिंसा के भावों से पाप का द्वार खुलता है।* वचन से बुरे वचन बोलकर, दूसरों की निंदा करके, कठोर शब्द बोलकर पापों का आश्रय करते हैं। काय से खोटी प्रवृत्ति, बुरे कार्य करके पाप करते हैं। इन सभी द्वारों से संसारी प्राणी कर्म का आश्रय करता है। इन पापों के द्वार को रोकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को णमोकार मंत्र की कम से कम एक माला अवश्य करनी चाहिए।
पाप के नहीं पुण्य के कार्य करो। स्वयं करो, दूसरों को प्रेरणा दो, करते हुए की अनुमोदना करो। *जाप की नहीं पापों की गिनती करो।* प्रभु के पास जाकर किए हुए पापों के बोझ को कम करने के लिए पश्चाताप करो, निंदा ग्रहा करो। अपनी आलोचना करो तो पाप के द्वार को आप रोक सकते हैं।"