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👉 कुंम्बलगुडू (बैगलौर) - आचार्य महाश्रमण फिजियोथेरेपी सेंटर का शुभारंभ
👉 टिटलागढ़ - ते.म.म. का सामूहिक शपथ ग्रहण समारोह आयोजित
👉 बारडोली(गुजरात) - तेयुप द्वारा सेवा कार्य
👉 टिटलागढ़ - "Happy & harmonious family" सेमिनार का आयोजन
👉 पाली - आयम्बिल तप अनुष्ठान
👉 इस्लामपुर - महाप्रज्ञ प्रबोध प्रश्न मंच आयोजित
👉 सैंथिया - ज्ञानशाला पखवाड़े का आयोजन
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 90* 📖
*परिणमन की शक्ति*
मनुष्य जागरण काल में अनेक प्रवृत्तियां करता है। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति का अलग-अलग चित्र बनता है। मानतुंग सूरि धर्मोपदेश देते हुए आदिनाथ ऋषभ का चित्र उकेर रहे हैं— जब आदिनाथ समवसरण में विराजमान होकर धर्मोपदेश देते हैं, तब उनका स्वरूप कैसा होता है? जहां तीर्थंकर बैठते हैं, वहां अशोक वृक्ष होता है, किंतु वह हर समय नहीं होता। वह धर्मोपदेश के समय होता है। ये जितने प्रतिहार्य बतलाए गए हैं, वे प्रायः धर्मोपदेश के समय होते हैं। धर्मोपदेश के समय देव-दुंदुभी होती है, दिव्यध्वनि होती है। यदि सदा भगवान् बोले और वह एक योजन तक सुनाई दे तो कोई गुप्त बात तो कर ही नहीं सकते। किसी को कान में तो कुछ कह भी नहीं सकते। मंत्रणा, गूढ़-बात अथवा रहस्य की बात के लिए कोई अवकाश ही न रहे। यदि सब बातें एक योजन तक सुनाई दे तो बड़ी कठिनाई हो जाए। रात में किसी से कुछ कहें और वह एक योजन तक फैल जाए तो फिर सबकी नींद ही उड़ जाएगी। व्यक्ति के लिए सोना भी दुष्कर हो जाएगा। यह दिव्य-ध्वनि धर्मोपदेश के समय ही होती है। धर्म परिषद् में सब प्रकार के व्यक्ति होते हैं। जब भगवान् धर्मोपदेश देते हैं, तब सब लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
*देवा दैवीं नरा नारीं, शबराश्चापि शाबरीम्।*
*तिर्यंचोऽपि ह तैरश्चिं, मेनिरे भगवद्गिरम्।।*
भगवान् के उपदेश को देवता अपनी भाषा में समझ लेते हैं। देवताओं की भाषा अलग होती है। न वह हिंदी में बोलते हैं, न राजस्थानी अथवा अंग्रेजी में बोलते हैं। वे जिस माध्यम से आते हैं, भाषा भी वही बन जाती है, किंतु जब भगवान् बोलते हैं, तब उनकी वाणी को वे अपनी भाषा में सुन लेते हैं। मनुष्य अपनी भाषा में समझ लेता है। तमिल जानने वाला तमिल में, कन्नड़ भाषी कन्नड़ में और बंगाली बांग्ला भाषा में सुन लेता है। तिर्यञ्च भगवान् की वाणी को अपनी भाषा में सुन लेते हैं। पशु-पक्षियों का शब्दकोश बहुत छोटा होता है, फिर भी वे भगवान् की वाणी को अपनी भाषा में सुन-समझ लेते हैं। किंतु यह सब होता है धर्मोपदेश के समय। ऐसा हर समय नहीं होता। यही बात छत्र आदि के संदर्भ में है। जब भगवान् समवसरण में धर्मदेशना देने के लिए विराजित होते हैं, तब सिंहासन, अशोक वृक्ष और तीन छत्र बन जाते हैं।
*धर्मोपदेश देते हुए आदिनाथ ऋषभ के समवसरण के छत्र कैसे होते हैं...? इस प्रश्न को समाहित करते हुए मानतुंग सूरि क्या कहते हैं...?* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 102* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*1. विरोध का सामना विनोद से*
*कीचड़ के ऊपर*
स्वामीजी के समय में उनके अनुयायियों की संख्या से कहीं अधिक उनके द्वेषियों की संख्या थी। द्वेषी व्यक्तियों में रहकर भी अद्वेषी बने रहना साधारण कार्य नहीं है। कमल और सत्पुरुष— ये दो ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपने चारों ओर फैले कीचड़ से भी सार खींचते हैं और फिर उसे सुगंध में परिणत करके जगत् को बांट देते हैं। इतने पर भी स्वयं उस कीचड़ में कभी लिप्त नहीं होते, सदा उससे ऊपर उठे रहते हैं।
स्वामीजी वस्तुतः द्वेष-वृत्ति से बहुत दूर रहने वाले महापुरुष थे। न उन्हें द्वेषी-जनों के कर्ण-कटु शब्द विचलित कर पाते थे और न ही अपने विरुद्ध में किए जाने वाले कार्य। द्वेष भरी बातों का उत्तर भी वे इस सहज भाव से देते थे कि पासा पलट जाता और कहने वाले को चुप हो जाने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं मिल पाता। वे विरोधी परिस्थिति को अपने विनोद से पराजित कर देते थे।
*और तुम्हारा मुंह देखने से?*
एक बार स्वामीजी विहार करते हुए देसूरी जा रहे थे। मार्ग में घाणेराव का एक भाई मिला। स्वामीजी को उसने वंदन किया, पर पीछे आशंका होने पर पूछा— 'आपका क्या नाम है?'
स्वामीजी ने कहा— 'भीखण।'
'भीखणजी तेरापंथी!!' भय-मिश्रित आश्चर्य से विस्फारित नेत्र होकर उसने नाम को इस प्रकार से दोहराया कि स्वयं स्वामीजी को भी आश्चर्य हुए बिना न रहा।
स्वामीजी ने जिज्ञासा युक्त वाणी में पूछा— 'क्यों, क्या बात हुई?'
अंतःकरण में छिपे द्वेष और तज्जन्य घृणा को अभिव्यक्ति देते हुए वह बोला— 'तुम्हारा तो मुंह देखने मात्र से ही मनुष्य को नरक मिलता है।'
स्वामीजी ने तत्काल उलट कर पूछा— 'और तुम्हारा मुंह देखने से?'
उसने सिर ऊंचा उठाते हुए गर्वीले स्वर में कहा— 'स्वर्ग!'
स्वामीजी बोले— 'किसी का मुंह देखने मात्र से स्वर्ग या नरक मिलता हो, यह बात मैं मानता तो नहीं, पर तुम्हारे ही कथन को सत्य मान लिया जाए, तो यह बताओ कि तुम कहां जाओगे और मैं कहां?'
उस भाई के पास बोलने को कुछ भी अवशिष्ट नहीं था, क्योंकि उसने अपने-आपकी नरकगामिता और स्वामीजी की स्वर्गगामिता स्वयं ही सिद्ध कर दी थी।
*विरोध को विनोद में परिवर्तित करने वाले स्वामीजी के जीवन के और भी प्रसंगों...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 101* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*पुस्तक, नदी और इक्षु*
स्वामीजी का समस्त जीवन उस पवित्र पुस्तक के समान था, जिसके प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति प्रेरणादायक होती है। सार्थक व सोद्देश्य शब्द-संयोजन, निर्भीक व निर्लिप्त अभिव्यक्ति और साद्यन्त सत्य प्रतिबद्धता— ये उस पुस्तक की पवित्रता के साक्ष्य हैं। जिसने भी उसे पढ़ा, नई स्फूर्ति से भर गया। सहस्रों-सहस्रों व्यक्ति उनके संपर्क में आते रहते थे। उनमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के होते थे, परंतु उनसे प्रभावित हुए बिना शायद ही कोई बच पाता था।
नदी के प्रवाह की तरह निरंतर गतिशील स्वामीजी की संयम-यात्रा की प्रत्येक लहर न जाने कितने व्यक्तियों की पिपासा शांत कर गई, कितनों के उत्ताप हरण कर गई और कितनों की सूखती हुई खेतियां लहलहा गईं। साथ में यह भी सत्य है कि न जाने वह कितने अवरोधों को ढहा कर अपने साथ बहा ले गई।
जन-कल्याण के उद्देश्य से किया गया स्वामीजी का जन-संपर्क रत्नत्रयी की वृद्धि करने में अत्यंत सफल रहा। संपर्क विषयक विचित्र घटनाएं इक्षु के छोटे-छोटे पोरों की तरह अत्यंत सरस और सुमधुर तो हैं ही, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से बलदायक भी हैं।
*घटनाओं के माध्यम से*
स्वामीजी का जीवन-पट घटनाओं के ही ताने-बाने से बुना हुआ था, इसलिए कहा जा सकता है कि उन्हें घटनाओं के माध्यम से जितनी सरलता से समझा जा सकता है, उतनी सरलता से अन्य किसी माध्यम से नहीं। प्रत्येक घटना उनके विविधांगी जीवन के किसी-न-किसी नए पहलू को अवगति प्रदान करती है। हीरे के पहलुओं के समान सभी घटनाओं का अपना-अपना पृथक् सौंदर्य और पृथक् कटाव-छंटाव है। फिर भी संपूर्ण जीवन-सौंदर्य के साथ उनका अविकल सामंजस्य बना हुआ है।
अपनी समग्रता में स्वामीजी का जीवन समुद्र के समान गहरा और विशाल था, इसलिए दुरवगाह्य भी था, परंतु घटना-बिंदुओं की आंशिकता उसे हमारे लिए सहज अवगाह्य बना देती है। उनके घटना-संकुल जीवन की समस्त घटनाओं का विवरण दे पाना तो अत्यंत प्रयास-साध्य तथा अन्वेषण-सापेक्ष है, परंतु यहां कुछ ऐसी प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है, जिनसे उनके जीवन की विविधता को समझने में सहयोग प्राप्त हो सकता है।
*स्वामी भीखणजी विरोध का सामना विनोद से करते थे... कैसे...? कुछ घटनाओं के माध्यम से...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 89* 📖
*तीन अतिशय: तीन प्रयोग*
गतांक से आगे...
भक्तामर के पूर्व प्रस्तुत तीन श्लोक (28, 29, 30) लेश्याध्यान के तीन प्रयोग हैं। हम केवल स्तुति करें, किंतु स्तुति का जो आराध्य है, उसके साथ तादात्म्य स्थापित न करें, समापत्ति न करें तो स्तुति का अर्थ कम हो जाता है। जिस समय *'कुंदावदात.......'* इस श्लोक का पाठ करें, उस समय कुंद का फूल भी सामने आ जाए, डुलता हुआ चामर भी सामने आ जाए, मेरु के शिखर से गिरने वाला पानी का झरना भी सामने आ जाए— यह समापत्ति हो जाए तो स्तुति करने वाला जहां पहुंचना चाहता है, वहां सुविधा से पहुंच जाता है। वह जिस आराध्य के साथ तादात्म्य की अनुभूति करना चाहता है, उस आराध्य के साथ उसे तादात्म्य की अनुभूति हो जाती है। केवल भक्तामर के श्लोकपाठ को गलत तो नहीं कहा जा सकता, किंतु उससे वह उपलब्धि नहीं हो सकती, जो समापत्ति अथवा तादात्म्य की अनुभूति से होती है। तर्कशास्त्र में कहा गया है— *न हि कर्पदिकामात्रेण धनवान् इत्युच्यते*। व्यक्ति के पास एक कर्पदिका (कौड़ी) है। कौड़ी कोई धन नहीं है। वह प्राचीन समय में सिक्के के रूप में चलती थी, किंतु कर्पदिका मात्र से कोई धनवान् नहीं कहलाता। इसी प्रकार केवल स्तोत्र के पाठ से कोई भक्त नहीं कहलाता। शब्द, शब्द का अर्थ, तात्पर्यार्थ और उसके साथ तादात्म्य की अनुभूति— जहां ये सब हैं, वहां स्तुति का वांछित परिणाम मिल सकता है।
भक्तामर महत्त्वपूर्ण स्तोत्र है। यह माना जाता है, जब मानतुंग ने भक्तामर की रचना की तो चमत्कार घटित हो गया। बंधन टूट गए। यह चमत्कार केवल शब्दों के उच्चारण मात्र से घटित नहीं होता। जब तक शब्द के साथ भावना का योग नहीं मिलता, उसके अर्थ के साथ तादात्म्य नहीं जुड़ता, तब तक शक्ति का विस्फोट नहीं होता। पांच तत्वों के पांच बीज मंत्र माने जाते हैं— *यं वं रं लं हं*। इन बीज मंत्रों में शक्ति आती है भावना के द्वारा। भावना पुष्ट होती है तो ये मंत्र शक्तिशाली बन जाते हैं। यह परीक्षित तथ्य है। यदि भावनापूर्वक *रं* का एक हजार बार उच्चारण किया जाए तो एक डिग्री तापमान निश्चित बढ़ जाए। यदि भावनापूर्वक एक हजार बार *वं* का उच्चारण किया जाए तो एक डिग्री शीतलता बढ़ जाए। भावना की इस शक्ति का मूल्यांकन करें। स्तुतिकार ने भगवान् को जिस रूप में देखा है, वास्तव में वह रूप ध्यान के लिए बड़ा उपयोगी है। इन श्लोकों में आचार्य मानतुंग ने जिस वैज्ञानिक ढंग से स्तुति की है, उसका गहराई से अनुशीलन करें, प्रयोग की भूमिका पर जीएं तो निश्चित ही इस स्तुति का मर्म समझ पाएंगे, ऋषभ सन्निधि की उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो पाएगा।
*मानतुंग सूरि धर्मोपदेश देते हुए आदिनाथ ऋषभ का चित्र किस प्रकार उकेर रहे हैं...?* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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👉 अमेरिका: शिकागो शहर बार्टलेट - "हैप्पी एंड हॉर्मोनियस फैमिली विषय पर वर्कशॉप का आयोजन'
👉 हुबली - प्रथम बार 440 सामूहिक एकासन
👉 उधना- नव युवती परिचय संगोष्ठी आयोजित
👉 वापी - महिलामण्डल द्वारा आचार्य महाश्रमण कन्या सुरक्षा सर्कल का जैन संस्कार विधि से भूमि पूजन व शिलान्यास
👉 हिसार - प्रेक्षावाहिनी भट्टूकलां का उद्घाटन
👉 चूरू - तिविहार संथारे का प्रत्याख्यान
👉 विजयनगरम - आवो चले गांव कि ओर
👉 पूर्वांचल कोलकात्ता - शपथ ग्रहण समारोह
👉 उदयपुर - वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन
👉 साकरी (महा) - दिशा बोध कार्यशाला का आयोजन
👉 कालीकट (केरल) - महिला मंडल शपथग्रहण समारोह
प्रस्तुति - 🌻 *संघ संवाद*🌻
💢 *अणुव्रत महासमिति अध्यक्ष की गुजरात व महाराष्ट्र की संगठन यात्रा* 💢
👉 पालघर - महासमिति अध्यक्ष की संगठन यात्रा
👉 वापी - महासमिति अध्यक्ष की यात्रा से दुगने उत्साह का संचार
👉 व्यारा (गुजरात) - अणुव्रत महासमिति के साथ समस्त जैन समाज की वैचारिक गोष्ठी का आयोजन
👉 बारडोली - सरदार वल्लभभाई पटेल की जन्मस्थली पहुंची महासमिति अध्यक्ष की यात्रा
प्रस्तुति - *अणुव्रत सोशल मीडिया*
प्रसारक - 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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Source: © Facebook
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २१०* - *चित्त शुद्धि और शरीर प्रेक्षा १६*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
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