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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 86 📖
*तीन अतिशय: तीन प्रयोग*
गतांक से आगे...
अशोक वृक्ष और सिंहासन के बाद मानतुंग की दृष्टि चामर पर केंद्रित हो गई। तीर्थंकर का एक अतिशय यह है कि उन पर चंवर डुलाए जाते हैं। चंवर को देख मानतुंगसूरि के मस्तिष्क में एक नव्य कल्पना प्रस्फुटित हो गई। विकल्प उभरा— चंवर के परिपार्श्व में आदिनाथ की छवि कैसी है? हमारा निर्णय परिपार्श्व के आधार पर होता है, किसी परिप्रेक्ष्य अथवा संदर्भ के आधार पर होता है। संदर्भ के बिना कोई अर्थ नहीं होता। स्तुतिकार ने चामर के साथ भगवान् के शरीर को देखा तो शरीर की छवि बदल गई। आदिनाथ के चारों ओर श्वेत चामर झल रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे चारों और श्वेतिमा फैल गई है। श्वेतिमा के लिए कवियों ने कुंद के फूल का बहुत प्रयोग किया है। बहुत श्वेत होता है कुंद का फूल। कुंद के समान अवदात श्वेत चामर सम्मोहक लग रहे हैं। श्वेतिमा ही श्वेतिमा बिखर रही है। जैसे चामर नहीं, कुंद के फूल ही झर रहे हैं। इससे भगवान् के परिपार्श्व में श्वेतिमा व्याप्त हो गई है। चारों ओर व्याप्त श्वेतिमा के बीच आपका शरीर कलधौतकान्त अर्थात् चमकती हुई चांदी जैसा कमनीय लग रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे पर्वत के शिखर से निर्मल निर्झर के जल की श्वेत धारा नीचे गिर रही है। शिखर से गिरती हुई यह जलधारा उगते हुए चांद जैसी प्रतीत हो रही है। इस प्रकार के वातावरण में आदिनाथ का शरीर एकदम श्वेत प्रतिभाशित हो रहा था। उगता हुआ श्वेत चांद, मेरु पर्वत के शिखर से गिरती हुई श्वेत जलधारा, डुलता हुआ श्वेत चंवर और इन सबके मध्य सुशोभित भगवान् का शरीर शुभ्र श्वेतिमा से आकीर्ण था—
*कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं,*
*विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्।*
*उद्यच्छशांकशुचिनिर्झरवारिधार-*
*मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्।।*
मानतुंग ने जब अशोक वृक्ष के साथ ऋषभ को देखा, तब नीले रंग के साथ भगवान् के दर्शन हुए। जब सिंहासन पर आसीन ऋषभ को देखा तब अरुणिमा के साथ भगवान् के दर्शन हुए। जब चामर के साथ भगवान् को देखा तब श्वेत वर्ण के साथ भगवान् के दर्शन हुए। नीला रंग, अरुण रंग और श्वेत रंग— ये तीनों रंग ध्यान के लिए बड़े उपयोगी हैं। भगवान् की स्तुति का पाठ करने वाले केवल श्लोकों का पाठ करते हैं, शब्दों का उच्चारण करते हैं। यह अच्छा उपक्रम तो है, किंतु इससे जहां पहुंचना चाहिए, वहां नहीं पहुंचा जा सकता। इससे जो बोधपाठ मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। हम स्तुति क्यों करते हैं? इसलिए करते हैं कि कुछ लाभ मिले। यदि वह लाभ नहीं मिलता है तो पूरी बात नहीं बनती। हर घटना के पीछे एक बोधपाठ छिपा होता है। जब वह मिलता है, तब सार्थकता की अनुभूति होती है।
*हर घटना के पीछे एक बोधपाठ छिपा होता है... कुछ घटनाक्रमों के माध्यम से...* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 98* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*संघर्षों के निकष पर*
*आन्तरिक संघर्ष*
*निष्कासन और ग्रहण*
स्वामीजी ने मुनि चंद्रभाणजी के ईर्ष्या-भाव को बहुत अच्छी तरह से पहचान लिया। उन्होंने उसके पश्चात् मुनि तिलोकचंदजी से बातचीत की। वे पूर्णतः मुनि चंद्रभाणजी के ही पक्षधर बने हुए थे। स्वामीजी ने तब मांढा गांव में उन दोनों को संघ से पृथक् कर दिया।
जाते समय चंद्रभाणजी ने धमकी भरे स्वर में कहा— 'आपके श्रावकों को शीतदग्ध आक जैसा न कर डालूं तो मेरा नाम चंद्रभान नहीं।'
स्वामीजी की सेवा में बैठे श्रावक चतरोजी बोले— 'आप तो विहार करते हुए विलंब से पहुंचेंगे। मैं 'कासीद' के द्वारा पहले ही सर्वत्र सूचना करवा दूंगा कि आप संघ से पृथक् हो गए हैं। फिर आपको कोई नहीं पूछेगा।'
चतरोजी की बात सत्य निकली। न उनके पक्षपाती साधु ने साथ दिया और न विशेष किसी श्रावक ने ही। उन्हें तब अपनी स्थिति का अच्छी तरह से भान हो गया। अहंभाव को कहीं से कोई पोषण नहीं मिल पाया, तब वे पुनः गण में आने का प्रयास करने लगे। कई बार की बातचीत के पश्चात् स्वामीजी को लगा कि अब उनके भावों में सरलता आई है, अनुताप और प्रायश्चित्त के भाव भी उभरे हैं। उन्होंने तब उनको पुनः गण में लेने का निर्णय तो किया, परंतु उससे पूर्व कुछ शर्तें भी स्वीकार करवाईं। उनमें कुछ शर्त ये थीं— व्यक्तिगत शिष्य न करना, दलबंदी न करना, दोष एकत्रित न कर तत्काल बतलाना, अपने पूर्व दोषों की आलोचना और प्रायश्चित्त करना इत्यादि। उक्त लेखपत्र पर चेलावास में उन्होंने साधुओं और श्रावकों की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए। तब उन्हें संघ में ले लिया गया।
*पुनः निष्कासन*
उनका पुनरागमन संघ के लिए बड़ा गुणकारक रहा। जिन व्यक्तियों को उन्होंने शंकाशील बना दिया था, उन सबने अनुभव कर लिया कि संघ और स्वामीजी निर्दोष हैं। ये ही दंड स्वीकार कर संघ में आए हैं। इस तरह की बात जब जनता में फैली, तो मुनि चंद्रभाणजी के अहं को ठेस लगी। उनका मनोभाव बदल गया। लेखपत्र की निर्धारित शर्तों से वे मुकरने लगे। स्वामीजी तथा अन्य साधुओं ने अनेक बार चेताया, फिर भी उन्होंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनका आग्रह था— 'जनता में यह प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए कि हम प्रायश्चित्त स्वीकार करके अंदर आए हैं।'
स्वामीजी ने कहा— 'यदि कोई गृहस्थ इस विषय में जिज्ञासा करे, तो उसका क्या उत्तर दिया जाना चाहिए?'
मुनि चंद्रभाणजी ने कहा— 'यही कहना चाहिए कि हमने अपने पद्धति के अनुसार कार्य कर लिया है।'
स्वामीजी ने कहा— 'ऐसी संदिग्ध भाषा क्यों कहें? इससे तो जनता में यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि कुछ बातों का प्रायश्चित्त इन्होने लिया होगा और कुछ का उन्होंने। हम तो यह स्पष्ट कहेंगे कि संघ के किसी सदस्य ने कोई प्रायश्चित्त नहीं लिया, ये ही प्रायश्चित्त स्वीकार करके संघ में आए हैं।'
मुनि चंद्रभाणजी ने कहा— 'ऐसा तो बिल्कुल नहीं कहना चाहिए।'
स्वामीजी ने उनकी नीति को शुद्ध नहीं पाया, तब विक्रम संवत् 1836 के शेषकाल में खैरवा में उन्हें संघ से पृथक् कर दिया। फिर मुनि तिलोकचंदजी को बुलाकर कहा— 'चंद्रभाण के साथ यदि तुम्हारी कोई सांठगांठ न हो तो तुम गण में रह सकते हो, अन्यथा नहीं।' उन्होंने तब रहने की ही भावना व्यक्त की। वे रह तो गए, किंतु मन की मलिनता दूर नहीं हुई। मुनि चंद्रभाणजी की प्रत्येक बात का समर्थन तथा स्वामीजी की बात का प्रच्छन्न विरोध करना उनका स्वभाव हो गया। स्वामीजी ने तब उनको भी संघ से पृथक् कर दिया। वे तत्काल मुनि चंद्रभाणजी से जा मिले।
*क्या मुनि चंद्रभाणजी और मुनि तिलोकचंदजी दोनों स्वामीजी के श्रावकों को भ्रांत करने की अपनी योजना में सफल हुए...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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*तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केंद्र*
*कुम्बलगुडू,बेंगलुरू*
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*पूज्यप्रवर के आज प्रातः*
*भ्रमण के अनुपम दृश्य*
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दिनांक:
26 जुलाई 2019
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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २०५* - *चित्त शुद्धि और शरीर प्रेक्षा ११*
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