25.07.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 25.07.2019
Updated: 25.07.2019

Update

*प्रेरणा पाथेय:-आचार्य श्री महाश्रमणजी -25 जुलाई 2019, का वीडियो-प्रस्तुति~अमृतवाणी*

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 97* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*संघर्षों के निकष पर*

*आन्तरिक संघर्ष*

*पृथक् होने की धमकी*

उक्त घटना के पश्चात् एक घटना और हो गई। स्वामीजी ने किसी प्रसंग पर अनेक संतों के सामने मुनि चंद्रभाणजी को उपालंभ दे दिया। तब से वे स्वामीजी के प्रति द्वेष-भाव रखने लगे। अंदर ही अंदर अन्य संतों का मनोभंग कर उन्हें अपने पक्ष में करने लगे। श्रावकों में अश्रद्धा व्याप्त हो, वैसे प्रयास भी करने लगे। कई साधु उनके बहकावे में आ भी गए। स्वामीजी को इस स्थिति का पता चला, तब उन्होंने धीरे-धीरे अन्य सभी संतो को समझाकर सुस्थिर कर लिया। उसके पश्चात् मुनि तिलोकचंदजी तथा मुनि चंद्रभाणजी को भी समझाने का प्रयास किया। अपने पक्ष के सभी साधुओं के विचार बदल जाने के कारण वे शीघ्र नम्र हो गए। स्वामीजी के सम्मुख उन्होंने अपने दोषों को स्वीकार कर लिया और प्रायश्चित्त की भी याचना करने लगे। स्वामीजी ने उनको अत्यंत सरल हुआ देखकर यह छूट दी कि अपने दोषों का वे स्वयं ही प्रायश्चित्त कर लें।

स्वामीजी के इस मृदु व्यवहार का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने कहा— 'हम ऐसा नहीं समझते थे कि इतना विरुद्धाचरण करने पर भी आप हमारे साथ इतना मृदु व्यवहार करेंगे।' उन्होंने अपने अविनय के लिए बार-बार क्षमा याचना की।

उनकी यह नम्रता स्वल्पकालिक ही सिद्ध हुई। वे पुनः पूर्ववत् स्वामीजी के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने लगे। ऊपर से बड़ी नम्रता प्रदर्शित करते, किंतु अंदर ही अंदर अव्यवस्था फैलाने में सूत्रधार का कार्य करते रहते। जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि अनेक साधु-साध्वियां उनके पक्ष में हो गए हैं, तब वे खुलकर स्वामीजी का विरोध करने लगे। उन्हें शिथिल और असाधु बताने लगे।

स्वामीजी को जब उनके बदले हुए रुख का पता चला तो तत्परतापूर्वक उनसे प्रभावित व्यक्तियों को एक-एक करके समझा लिया। उसके पश्चात् मुनि चंद्रभाणजी से बातचीत की। वे उल्टा स्वामीजी को ही दोषी बताने लगे और संघ से पृथक् हो जाने की धमकी देने लगे।

*आओ, संथारा करें*

स्वामीजी ने शांतिपूर्वक समझाते हुए मुनि चंद्रभाणजी से कहा— 'संघ को छोड़ने से तो अच्छा है कि संलेखना तथा संधारा करके आत्म-कल्याण करो।'

चंद्रभाणजी ने कहा— 'मुनि भारमल जी करते हैं, तो मैं भी तैयार हूं।'

स्वामीजी बोले— 'आओ, हम दोनों करें।'

चंद्रभाणजी ने कहा— 'आपके साथ नहीं, भारमलजी के साथ कर सकता हूं।'

*मुनि चंद्रभाणजी के ईर्ष्या-भाव को पहचान लेने के बाद स्वामी भीखणजी ने क्या कदम उठाया...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 85* 📖

*तीन अतिशय: तीन प्रयोग*

गतांक से आगे...

पूज्य गुरुदेव दिल्ली में प्रवास कर रहे थे। चित्तूर से एक व्यक्ति आया। वह आभामंडल का अध्ययन करता था। एक सामान्य आदमी को आभामंडल दिखाई नहीं देता, किंतु वह व्यक्ति आभामंडल को देख लेता था। किस व्यक्ति का आभामंडल कितना निर्मल और पवित्र है अथवा कितना मलिन और भद्दा है, उसे इसकी पहचान हो जाती। राजलदेसर में विदेश से एक आभामंडल विशेषज्ञ आया। उसके पास वह कैमरा था, जिससे आभामंडल का फोटो लिया जा सके। उसने अनेक लोगों के अंगूठे के फोटो लिए और उसके आधार पर व्यक्तित्व का विश्लेषण किया।

ऐसा प्रतीत होता है— एक प्रतिहार्य को प्रतीकात्मक रूप दे दिया गया। इसे वैज्ञानिक शब्दावली में परिभाषित करें तो कहा जा सकता है— आभामंडल और उससे निकलने वाली रश्मियों का प्रकाश चारों ओर फैल रहा है। प्रस्तुतीकरण का अलग-अलग कोण होता है। कहीं स्थूल जगत् की चेतना को प्रतीकात्मक रूप देकर सूक्ष्म जगत् की व्याख्या कर दी जाती है तो कहीं सूक्ष्म चेतना के स्तर पर घटित होने वाली घटना को स्थूल जगत् के स्तर पर प्रस्तुत कर दिया जाता है। जहां स्तुति का प्रसंग है वहां कण को भी मेरु बनाया जाता है। काव्यानुशासन के अनुसार कवि का अपना समय और सिद्धांत होता है। कवि का समय सामान्य सिद्धांत से नहीं मिलता। सब जानते हैं— समुद्र में कमल नहीं होता। कमल तालाब में होता है, पुष्करणी में होता है, मीठे जल में होता है। वह समुद्र के खारे जल में कभी नहीं होता। कभी का सत्य इससे सर्वथा अलग है। उसके सामने सत्य-असत्य होता ही नहीं है। यह कवि का सत्य है— जहां भी जलाशय है, जल है, वहां कमल का वर्णन कर दो। सामान्य जन कहेगा— यह असत्य बात है, समुद्र में कमल नहीं होता, किंतु कवि के लिए यह सत्य है, वह समुद्र में कमल खिला सकता है। स्तुतिकार अपनी कल्पना से कथ्य को कोई भी रूप दे सकता है। यथार्थ को परखने का अलग दृष्टिकोण होता है। स्तुतिकार ने जिस रूप में देखा, उसी रूप में तुलना कर दी। जैसे उदयाद्री से रश्मियां फूटती हैं, वैसे ही आदिनाथ के सिंहासन से रश्मियां फूट रही हैं। जैसे अंशु की लता है, वैसे मणि से निकलने वाली राशियों की लता है। उन रश्मियों के बीच जैसे सूर्य का बिंब प्रभास्वर है, वैसे ही आदिनाथ का शरीर प्रभास्वर हो रहा है। उदयाद्री और सिंहासन, अंशुलता और मणि-निःसृत रश्मियां, सूर्य का बिंब और आदिनाथ का शरीर— इस तुलना को काव्य का विषय बनाते हुए मानतुंग सूरि ने प्रस्तुत श्लोक की रचना कर दी—

*सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे*
*विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।*
*बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानम्।*
*तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः।।*

*भगवान् ऋषभ के तीसरे अतिशय चामर की व्याख्या आचार्य मानतुंग किस प्रकार कर रहे हैं...* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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*तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केंद्र*
*कुम्बलगुडू,बेंगलुरू*

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*पूज्यप्रवर के आज प्रातः*
*भ्रमण के अनुपम दृश्य*



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दिनांक:
25 जुलाई 2019

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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २०४* - *चित्त शुद्धि और शरीर प्रेक्षा १०*

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