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प्रस्तुति - *🌻 संघ संवाद 🌻*
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 80* 📖
*पवित्र आभामंडल*
गतांक से आगे...
अपनी भावना और कल्पना को स्तुतिकार आचार्य मानतुंग ने प्रस्तुत श्लोक में समाहित कर दिया—
*को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै,*
*स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!*
*दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः,*
*स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।।*
इस श्लोक का तात्पर्य है— आप वीतराग बन गए इसलिए सारे दोष समाप्त हो गए। जहां जहां राग था वहां वहां दोनों ने अपना अड्डा जमा लिया। जिन लोगों के दांतो में छोटा सा छेद जैसा होता है, वे लोग यह अनुभव करते हैं— जो भी पदार्थ खाते हैं, उसका कुछ हिस्सा छेद में अटक जाता है। टमाटर, अमरूद आदि के बीज तो पीड़ा का कारण भी बन जाते हैं। दो दांतो के बीच जो अवकाश होता है, वहां अन्न का छोटा सा कण भी समा जाता है। यही स्थिति दोषों की है। जहां अवकाश मिलता है, वे अपना स्थान जमा लेते हैं। दूसरी बात यह है— जहां गुण ही गुण होते हैं, वहां दोषों की अवज्ञा और अवमानना होती है, इसलिए वे वहां जाना भी नहीं चाहते। यह सर्वमान्य सिद्धांत है— जहां कहीं अवज्ञा होती है, पक्षपात होता है, हीनता की भावना होती है, वहां व्यक्ति रहना नहीं चाहता।
दो भाई साथ रहते थे। एक भाई खेत में कृषि का कार्य करता था। दूसरा भाई दुकान में बैठता था। वह दुकान से आते समय बाजार से कुछ मिठाई आदि लाता और दोनों लड़कों को बराबर खिला देता। जो किसान खेती करता था, वह यह देखकर खुश होता— भाई कितना अच्छा है, तटस्थ है। अपने भाई के लड़के को भी अपने लड़के के समान प्यार देता है। कहीं कोई पक्षपात नहीं करता। दो भाइयों के इस सुखी परिवार को देख लोग ईर्ष्या करते। कुछ लोगों ने छोटे भाई से कहा— 'तुम दिन भर मेहनत करते हो, खेतों में रहते हो, हल जोतना, खाद आदि देना कितना श्रम-साध्य कार्य है। तुम्हारा बड़ा भाई दुकान में मनसद के सहारे दिन भर बैठा रहता है। आराम का जीवन जीता है। तुम ऐसा करो– जमीन और दुकान का विभाग कर लो। उसे अपने आप हल जोतना पड़ेगा।' छोटे भाई ने मुस्कुराते हुए कहा— 'तुम्हारी सलाह तो ठीक है, किंतु अभी तक बंटवारे का समय नहीं आया है।'
अनेक वर्ष बीत गए। एक दिन संध्या के समय बड़ा भाई दुकान से लौटा। उसके हाथ में दो लड्डू थे। दाएं हाथ में जो लड्डू था, वह कुछ बड़ा था और बाएं हाथ में जो लड्डू था, वह कुछ छोटा था। योग ऐसा मिला— दाएं हाथ की ओर किसान का लड़का आ गया और बाएं हाथ की ओर अपना लड़का। पक्षपात की किरण जाग गई। उसने दाएं हाथ के लड्डू को अपने लड़के की ओर कर दिया और बाएं हाथ का छोटा लड्डू छोटे भाई के लड़के की ओर। किसान भाई ने देखा— भाई साहब की नियत बदल गई है। तटस्थता और समानता की बात समाप्त हो गई है। वह तत्काल बड़े भाई के पास गया, बोला— 'अब बंटवारे का समय आ गया है। हमें साथ नहीं रहना है।' जमीन जायदाद का विभाजन हो गया।
जहां पक्षपात होता है, विषमता होती है, वहां बंटवारा हो जाता है। जहां विषमता है, वहां गुणों को भी स्थान मिल जाता है, दोषों को भी स्थान मिल जाता है। भगवान् आदिनाथ वीतराग बन गए। उन्होंने केवल समता और तटस्थता को आश्रय दिया। जहां समता है, वहां सारे गुण आ जाते हैं। उन गुणों से आपकी आत्मा का कण-कण आपूरित हो उठा। दोषों के लिए कहीं कोई अवकाश नहीं रहा। इसलिए यह मेरे लिए आश्चर्य की बात नहीं है कि दोष आपके पास नहीं आए। उन्होंने आपकी ओर आंख उठाकर देखा भी नहीं। वस्तुतः आपकी वीतरागता ही ऐसी है कि उसमें केवल गुणों के लिए अवकाश है, दोषों के लिए कोई अवकाश नहीं है।
*वीतरागता की स्तुति करने के पश्चात् आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभ के शरीर की विशेषता बतला रहे हैं.. वे विशेषताएं...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 92* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*संघर्षों के निकष पर*
*बाह्य संघर्ष*
*निन्दित कर डालूंगा*
स्वामीजी के विरोधियों में अनेक ऐसे थे, जो असत्य दोषारोपण करने में भी नहीं झिझकते थे। एक बार स्वामीजी बहिर्भूमि की ओर जा रहे थे। अन्य संप्रदाय के एक मुनि भी उधर ही जा रहे थे। स्वामीजी को देखा तो वे भी साथ-साथ चलने लगे। मार्ग अधिक चौड़ा नहीं था, अतः दो व्यक्तियों का बराबर चल पाना कठिन था। वे संभवतः बराबर ही चलना चाहते थे, अतः न स्वामीजी के रुकने पर आगे हुए और न तेज चलने पर पीछे रहे। बराबर चलने के लिए उन्हें हरियाली पर चलना पड़ रहा था। स्वामीजी ने हरियाली की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा— 'साफ मार्ग पड़ा है, तब हरियाली पर क्यों चल रहे हो?'
स्वामीजी के इतना कहने ही उन्होंने बड़ी अकड़ के साथ धमकी भरे स्वर में कहा— 'मेरे विषय में कहीं कुछ कहोगे तो मैं पूरे गांव में तुम्हें निन्दित कर डालूंगा और प्रचारित कर दूंगा की भीखणजी हरियाली पर बैठे थे।'
*इससे झगड़*
अनेक व्यक्तियों के मन में स्वामीजी के प्रति इतना रोष था कि उन्हें देखते ही आपे से बाहर हो जाया करते थे। न उन्हें अपने मुनि-वेश का ध्यान रहता और न व्यावहारिक सीमा का ही। पुर की बात है। स्वामीजी शौच के लिए बाहर जा रहे थे। अन्य संप्रदाय के एक मुनि भी उधर ही जा रहे थे। उन्होंने स्वामीजी को देखा तो उन्हें सुना-सुना कर अक-बक बोलने लगे। स्वामीजी ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया और चलते ही रहे। वे मुनि तब सम्मुख आकर मार्ग रोककर खड़े हो गए। स्वामीजी पार्श्व से गुजरने लगे, तब उनके चारों ओर लकीर खींच कर बोले— 'इससे बाहर जाओगे, तो तुम्हें तीर्थंकरों की सौगंध है।' स्वामीजी फिर भी आगे बढ़ने लगे, तो उन्होंने पीछे की ओर धकेल कर रोकना चाहा।'
वहीं पास में एक चरवाहा गायें चरा रहा था। उसने जब यह सब देखा, तो पास आकर उक्त मुनि से कहने लगा— 'ये तो गुरु हैं, इनसे क्यों झगड़ता हैं? झगड़ना ही है तो इस जवान साधु से झगड़।' उसका संकेत स्वामीजी के साथ चल रहे मुनि भारमलजी की ओर था।
आखिर चरवाहे की उस झिड़की ने स्वामीजी के मार्ग की उस बाधा को दूर हटाया, तब कहीं वे अपने गंतव्य की ओर बढ़ पाए।
*भीलवाड़ा में घटित पूर्वाग्रह की एक घटना...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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