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👉 चेन्नई: ताम्बरम - शिक्षा से मानवता का विकास हो
👉 इस्लामपुर - नूतन गृहप्रवेश जैन संस्कार विधि द्वारा
👉 साउथ कोलकात्ता - सीखलें अगर रिस्तो की A.B.C.D खुशहाल रहेगी नई पीढ़ी कार्यशाला का आयोजन
👉 जोधपुर - जैन संस्कार विधि के बढते चरण
👉 फरीदाबाद - सही अवसर की करें पहचान, सफलता की राह बने आसान कार्यशाला का आयोजन
प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद 🌻*
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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 06 जून 2019
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १५६* - *चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग ९*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#समाधी साध्य है या #साधना*: #श्रंखला ३*
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 47* 📖
*अपूर्व सूर्य: अपूर्व चांद*
गतांक के आगे...
सूर्य के बाद आचार्य मानतुंग का ध्यान चंद्रमा पर केंद्रित हुआ। अच्छा होता यदि पहली चंद्रमा से तुलना करते। यह हमारी कल्पना को हो सकती है किंतु स्तुतिकार स्वतंत्र होता है। लेखक और विचारक स्वतंत्र होता है। वह अपनी सूझ-बूझ से अथवा विशेष प्रयोजन से पहले वर्णनीय को पश्चात् और पश्चात् वर्णनीय को पहले वर्णित कर देता है। यह उसकी अपनी इच्छा का प्रश्न है।
एक प्रश्न को लेकर दो व्यक्तियों में लड़ाई हो गई। एक ने कहा— 'सिंह पैदा होता है तो सिंहनी अंडा देती है।' दूसरे ने कहा— 'नहीं, सिंह अंडे से नहीं निकलता। वह सिंह शावक के रूप में पैदा होता है।' इस बात को लेकर विवाद गहरा हो गया। उसी समय तीसरा आदमी उधर से गुजरा। दोनों को विवाद करते देख उसने पूछा— 'भाई! इस प्रकार क्यों लड़ रहे हो? बात क्या है?' दोनों ने अपनी-अपनी अवधारणा प्रस्तुत कर दी। एक ने कहा— 'सिंह अंडे से पैदा होता है।' दूसरे ने कहा— 'सिंह अंडे से पैदा नहीं होता।' उस आदमी ने मुस्कराते हुए कहा— 'तुम मूर्ख हो। सिंह जंगल का राजा है। उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे अंडे से पैदा हो या सिंह शावक के रूप में पैदा हो। उसकी जैसी इच्छा होगी वह वैसा ही करेगा।'
कभी स्वतंत्र होता है। मानतुंग ने इसी स्वतंत्रता का प्रयोग किया। सूर्य को पहले और चंद्रमा को बाद में काव्य का विषय बनाया। इसमें कुछ कारण भी हो सकता है। वस्तुतः दोनों श्लोक जुड़े हुए हैं। इसकी पुष्टि भी प्रस्तुत श्लोक कर रहा है—
*नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं*
*गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।*
*विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति*
*विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम्।।*
मानतुंग कहते हैं— चंद्रमा अस्त हो जाता है। आप नित्य उदित रहते हैं। सूर्य के संदर्भ में कहा गया— आप कभी अस्त नहीं होते और चंद्रमा के संदर्भ में कहा जा रहा है— आप नित्योदय हैं। दोनों का तात्पर्य भिन्न नहीं है। चंद्रमा रात को चमकता है और प्रातःकाल बादल का टुकड़ा जैसा बन जाता है। चंद्रमा अंधकार को दूर करता है, किंतु वह बहुत थोड़े अंधकार को दूर करता है। आपने मोह के महान् अंधकार को नष्ट कर दिया है। नित्योदय का हेतु यही है। वही नित्य उदित रह सकता है, जिसने मोह के अंधकार का विलय कर दिया है। जिसने मोह को क्षीण नहीं किया, वह कभी उदित होता है और कभी अस्त। उदितोदित वही है जिसका मोह क्षीण हो गया है। यह अध्यात्म का एक महान् सूत्र है।
*उदय और अस्त होने के संदर्भ में चार प्रकार के व्यक्ति बतलाए गए हैं...* उनके बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 59* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*नवजीवन की ओर*
*तेरापंथ का अर्थ*
स्वामीजी के पास नामकरण के समाचार पहुंचे। उस समय वे बीलाड़ा या उसके समीपवर्ती किसी क्षेत्र में थे। उन्होंने नामकरण के समय कि उक्त सारी घटना को सुना तो उनकी मूलग्राहिणी प्रतिभा ने उस शब्द को तत्काल स्वीकार कर लिया। कवि द्वारा सहज रूप से व्यवहृत उस 'तेरापंथी' शब्द में उनको बड़ा अर्थ-गौरव जान पड़ा। उन्हें अपनी आंतरिक विचारधारा की सारी अभिव्यक्ति उसी एक शब्द में होती हुई दिखाई दी। तत्काल उन्होंने उसे अपना 'प्रतीक शब्द' बना लिया और अपने संघ की 'संज्ञा' के रूप में स्वीकार कर लिया।
राजस्थानी भाषा में संख्यावाची 'तेरह' शब्द को 'तेरा' कहा जाता है और 'तू' सर्वनाम की संबंध-वाचक विभक्ति का एकवचन भी 'तेरा' बनता है। स्वामीजी ने उन दोनों ही शब्द-रूपों को ध्यान में रखते हुए अपने प्रत्युत्पन्न बुद्धि के द्वारा उक्त शब्द की व्याख्या की। अपने आसन का परित्याग कर वंदन मुद्रा में बैठते हुए उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और बद्धाञ्जली कहा— 'हे प्रभो! यह तेरापंथ है। हम सब निर्भ्रान्त होकर इस पर चलने वाले हैं, अतः तेरापंथी हैं।'
मूलतः कवि की भावना को तेरह की संख्या ने ही प्रेरणा प्रदान की थी, अतः स्वामीजी ने उसे भी उतना ही महत्त्व दिया और उस शब्द का दूसरा संख्यापरक अर्थ करते हुए कहा— 'पांच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), पांच समितियां (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग) एवं तीन गुप्तियां (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति)— ये तेरह नियम जहां पालनीय हैं, वह तेरापंथ है।'
'तेरापंथ' शब्द का उपयुक्त अर्थ यद्यपि स्वामीजी की प्रत्युत्पन्न बुद्धि द्वारा तत्काल प्रस्तुत हुआ था, फिर भी उसमें संयम के जिन तेरह नियमों का उल्लेख किया गया है, वे आगम-सम्मत तथा प्राचीन जैनाचार्यों द्वारा इसी संख्या के रूप में बहुमान्य रहे हैं। इस विषय में जैनाचार्य पूज्यपाद देवनन्दी का निम्नोक्त श्लोक दर्शनीय है—
*तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनु-मनो-भाषानिमित्तोदयाः*
*पञ्चेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पञ्चव्रतानीत्यपि।*
*चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परै-*
*राचारं परमेष्टिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम्।।*
इसका तात्पर्य है— भगवान् महावीर को नमस्कार है। उन्होंने तेरह प्रकार के चारित्र का जैसा प्रतिपादन किया, वैसा पूर्व काल में अन्य किसी ने नहीं किया। वे तेरह प्रकार ये हैं— अहिंसादि पांच महाव्रत, ईर्यादि पांच समितियां और मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियां।
*नाम और काम का तादात्म्य*
स्वामीजी ने 'तेरापंथ' शब्द के साथ उपर्युक्त अर्थ का तादात्म्य स्थापित किया और अपने संघ को इतना आचार-कुशल बनाया कि जो व्यक्ति व्यंग के रूप में उसका प्रयोग करना चाहते थे, वे अपनी चाल भूल गए। उन्हें 'तेरापंथ' के नाम से घबराहट होने लगी। उनकी अपनी आचार-शिथिलता ने उनके मन में इस नाम से एक भय उत्पन्न कर दिया।
स्वामीजी का विश्वास नाम पर नहीं, काम पर था। उन्होंने अपने अनुयायियों के सामने केवल काम ही प्रस्तुत किया। नाम की उन्होंने कोई चिंता की ही नहीं। संभवतः नामकरण के समय तक भी उनके मन में यह कल्पना नहीं उठी थी। जनता को पहचान की सरलता के लिए प्रत्येक वस्तु, भाव और क्रिया का कोई न कोई पृथक् नाम चाहिए। उसकी पूर्ति एक सेवग कवि ने की, तो प्रचार विरोधियों ने किया और अर्थदान स्वामीजी ने। अर्थ क्या दिया, वस्तुतः उस नाम को फिर से कार्य में पलट दिया। इसीलिए 'तेरापंथ' केवल संज्ञा ही नहीं रहा, बल्कि आचार-कुशलता और विचार-दृढ़ता का एक सक्रिय उदाहरण बनकर संसार के सम्मुख उपस्थित हुआ।
*तेरापंथ के उदय-काल व व्यवस्था-संबंधी लिए गए स्वामीजी के निर्णय* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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