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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 40* 📖
*निर्धूम ज्योति का उदय*
आचार्य मानतुंग स्तुति-क्रम में भगवान् आदिनाथ की अप्रकंप धृति की श्लाघा करते हुए कहते हैं— 'प्रभो! आपने राग को जीत लिया। आप वीतराग बन गए। अब कोई भी स्थिति आपको विचलित नहीं कर सकती। देवांगनाओं और सुरंगनाओं के प्रयास आपके मन को किंचित भी विकृत नहीं बना सकते।'
राग-मुक्त होने के बाद व्यक्ति विचलित नहीं होता, यह आश्चर्य की बात नहीं है। राग हो और विचलन न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। राग को जीतकर ऋषभ की धृति अप्रकंप बन गई, इसलिए वे अविचल बन गए। व्यक्ति में जितनी अधिक धृति होगी, उतना ही अधिक वह शक्तिशाली और अविचल होगा। सब कुछ निर्भर है धृति पर। मन का नियमन करने वाली बुद्धि का नाम है धृति। निर्युक्तिकार ने कहा— *'जस्स धिई तस्स सामण्णं'*— जिसके धृति होती है, उसके श्रामण्य ने होता है। उस व्यक्ति में ही कषाय का विजय और राग-द्वेष का विजय होता है, जिसमें धृति प्रबल है। धृति नहीं है तो व्यक्ति शीघ्र ही विचलित हो जाएगा। नीति का यह पद्य कितना मार्मिक है— *'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः'*— जो धृतिमान् होता है, वह विकार का हेतु आने पर भी विचलित नहीं होता।
विचलन और अविचलन के संदर्भ में अनेक स्थितियां होती हैं। एक स्थिति यह है— विकार का हेतु मिला और व्यक्ति विकृत बन गया। दूसरी स्थिति यह है— विकार का हेतु नहीं मिला, इसलिए विचलन नहीं हुआ। तीसरी स्थिति यह है— विकार का हेतु मिला फिर भी विचलित नहीं हुआ। विकार का हेतु मिला, विकृत बन गया— यह सामान्य बात है। निमित्त नहीं मिला इसलिए विकृत नहीं बना— यह पारिपार्श्विक बात है। इन दोनों स्थितियों में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। निमित्त मिला फिर भी विचलन नहीं हुआ, यह आश्चर्य की बात है। आचार्य मानतुंग इसलिए कह रहे हैं— आपका अविचलन आश्चर्यकारी है, किंतु मैं आपको चौथी भूमिका पर देख रहा हूं। इसलिए मुझे आश्चर्य नहीं है। आपने निमित्तों को निरस्त कर दिया। उनसे आप प्रभावित नहीं हुए। जो प्रभावित होने की अवस्था है, उसको आपने अतिक्रांत कर दिया।
*मनुष्य भावित और अभावित इन दो अवस्थाओं में जीता है... इन दोनों अवस्थाओं के बारे में विस्तार से* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 52* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*नवजीवन की ओर*
*ऐतिहासिक स्थल*
बगड़ी और जैतसिंहजी की छत्री— ये दोनों ही तेरापंथ के लिए एक ऐतिहासिक स्थल बन गए। पहला धर्मक्रांति के लिए स्वामीजी द्वारा किए गए अभिनिष्क्रमण के कारण, तो दूसरा प्रथम प्रवास-स्थल बनने के कारण।
बगड़ी में उक्त छत्री राव जैतसिंहजी की स्मृति में बनी हुई है। वे बगड़ी पर शासन करने वाले अपने वंश के प्रथम पुरुष थे। उनके पूर्व वहां सिंधलों का राज्य था। उस समय बगड़ी का नाम वैरागढ़ था। विक्रम संवत् 1300 के आस-पास राव वैरीसालजी सिंधल (राठौर) ने अपने नाम पर बसाया और अपनी राजधानी बनाया था। सिंधलों ने प्रायः ने तीन सौ वर्षों तक वहां राज्य किया।
सोजत के राव पंचायणजी राठौर ने सिंधलों पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर विक्रम संवत् 1573 में वैरागढ़ पर अपना अधिकार कर लिया। युद्धकालीन मारकाट तथा लूटपाट ने नगर को वीरान बना दिया। काफी लंबे समय तक वहां की व्यवस्था ऐसी बिगड़ी हुई रही कि लोगों ने उसका नाम ही बगड़ी कर दिया।
राव पंचायणजी के पुत्र जैतसिंहजी विक्रम संवत् 1574 में बगड़ी के प्रथम शासक बने। उनके शासनकाल में पुनः लोगों में सुरक्षा की भावना पनपी, अतः बस्ती फिर से बढ़ गई। राव जैतसिंहजी विक्रम संवत् 1600 में एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। दसवीं पीढ़ी में उनके वंशज राव पहाड़सिंहजी हुए। उन्होंने अपने पूर्व-पुरुष जैतसिंहजी की स्मृति में बगड़ी के बाहर 'जैतल' तालाब और उसकी पाल पर उक्त छत्री का निर्माण करवाया।
विक्रम संवत् 1817 में रामनवमी के दिन स्वामी भीखणजी द्वारा किए गए अभिनिष्क्रमण ने बगड़ी को तथा स्वल्पकालीन प्रथम प्रवास ने उक्त छत्री को तेरापंथ के गरिमामय इतिहास से अवियोज्य रूप में संबद्ध कर दिया।
*बगड़ी से विहार*
स्वामीजी ने बगड़ी से विहार कर दिया। वे अपने अभिनिष्क्रमण संबंधी सारे समाचारों से आचार्य जयमलजी को अवगत कराना चाहते थे। समान विचार वाले साधुओं से भी विचार-विमर्श करने का उनका ध्येय था। आचार्य जयमलजी उस समय जोधपुर से उत्तर-पूर्ववर्ती क्षेत्रों में विहार कर रहे थे। बरलू (जिसे अब 'भोपालगढ़' कहते हैं) या उसके आस-पास के क्षेत्र में उनके मिलने की संभावना थी। इसीलिए स्वामीजी ने उस और विहार किया। यद्यपि आचार्य जयमलजी ने धर्म-क्रांति में प्रत्यक्ष साथ दे पाने की अपनी असमर्थता जोधपुर चातुर्मास में ही व्यक्त कर दी थी, फिर भी उनके मन में उक्त धर्म-क्रांति के प्रति जो सहानुभूति और सद्भावना थी, उसका आदर करना स्वामीजी अपना कर्तव्य समझते थे। साथ ही आचार्य जयमलजी के जिन शिष्यों ने साथ देने की तैयारी बतलाई थी, उन्हें लेने के लिए भी वहां जाना आवश्यक था।
बगड़ी से सीधा उत्तर की ओर 32 कोस (लगभग 100 किलोमीटर) दूर है। सोजत, बीलाड़ा, भावी और पीपाड़ आदि मार्गवर्ती मुख्य क्षेत्र हैं। स्वामीजी इसी सरल तथा उस समय के चालू मार्ग से बरलू पधारे– ऐसा कहा जा सकता है।
*स्वामीजी के पीछे-पीछे आचार्य रघुनाथजी भी बरलू पहुंचे... वहां दोनों में फिर से चर्चा का वातावरण बना... दोनों के बीच क्या चर्चा हुई और उसका परिणाम क्या रहा...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १४७* - *ध्यान के प्रकार १२*
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