Update
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⛩ *कन्याकुमारी* में आज *पूज्यप्रवर* ने याद किया *जैन विश्व भारती* परिसर को..
✨ तब *प्रमुखाश्री जी* अवसर देख कर रख दी *हम सब के मन की बात..*
🙏 *करुणानिधान ने की करुणा की बारिश*..🙏
*फरमाया* "राजस्थान यात्रा" के दौरान *जैन विश्व भारती प्रवास..*
🙏 *अनंतानंत कृतज्ञता..*🙏
*मीडिया एवं प्रचार प्रसार विभाग*
🌐 *जैन विश्व भारती* 🌐
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
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Update
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 561* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
*प्रतिक्षण जागरूक*
सतत क्रियाशील पुरुषार्थ और पराक्रम के मूर्तरूप आचार्य श्री तुलसी ने सदैव आराम को हराम माना और कार्य परिवर्तन को ही विश्राम माना। उन्होंने अंतिम समय तक अपने इस प्रण को निभाया। वे हर क्षण जागरूक थे। उनकी अप्रमत्त योग की साधना विलक्षण थी। उनको जब कभी देखा, किसी भी क्षण देखा स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन और अध्यापन में संलग्न पाया। वे अंतिम दिन तक बाल मुनियों को पढ़ाते रहे। प्रशिक्षण की प्रेरणा देते रहे। उन्होंने 22 जून की रात्रि में संतों से कहा "आज का अध्यापन कार्य आज ही पूरा करना है। कल का क्या भरोसा है?" गुरुदेव के ये शब्द असामान्य भाव को समेटे हुए थे। शब्दों के भीतर से भावी का संकेत प्रतिध्वनित हो रहा था।
"चरैवेति चरैवेति" का साकार रूप गुरुदेव का जीवन था। अंतिम दिन बोथरा भवन से तेरापंथ भवन तक कुछ कदम चल कर आए। कुर्सी पर बैठकर मंच से श्रावक समाज का वंदन स्वीकार किया। फिर आचार्य श्री महाप्रज्ञजी से कहा "अब विश्राम करना है।"
जो व्यक्ति सदा आराम को हराम मानता रहा वह विश्राम की बात कहे, इसमें भी प्रकृति का गुप्त संकेत उनकी प्रज्ञा से प्रकट रूप ले रहा था।
*पूर्वाभास और महाप्रयाण*
गंगाशहर में गुरुदेव ने 15 दिन तक एकांतवास बोथरा भवन में किया। 16 जून 1997 को गुरुदेव ने अपनी निजी डायरी में लिखा "अब मुझे संथारा संलेखना करना चाहिए। इस शरीर से बहुत काम लिया है।" सुबह परामर्श के बाद लिखा "सात दिन अभी और देखा जाए।" ठीक सात दिन बाद गुरुदेव ने महाप्रयाण कर दिया। मेरे (साहित्यकार साध्वीश्री संघमित्रा) अभिमत से यह घटना प्रसंग उनके अतिंद्रीय ज्ञान की सूचना देता हुआ स्पष्ट प्रतीत होता है। आपको अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था अन्यथा यह भी लिख सकते थे अभी कुछ दिन देखते हैं, पर गुरुदेव श्री तुलसी ने सात दिन का लिखा और सातवें ही दिन हल्के से कंपन के साथ सुखासन की मुद्रा में 23 जून 1997 को अचानक महाप्रयाण कर दिया। शरीर में कुछ सेकेंडों तक प्रकम्पन और आंखों के मार्ग से प्राणों का विसर्जन यह उत्तम कोटि का महाप्रयाण माना जाता है। हो सकता है यह गुरुदेव की इच्छामृत्यु थी। ऐसा महाप्रयाण किसी अध्यात्म शिखर पर पहुंचे हुए विशिष्ट साधक के लिए ही संभव होता है।
महाप्राण ज्योतिर्धर धन गुरुदेव श्री तुलसी 22 वर्ष की वय में आचार्य बने। धर्म संघ को 61 वर्ष तक आपका सुखद और स्वस्थ संरक्षण प्राप्त हुआ। पूर्ण समाधिपूर्वक उम्र के 83वें वर्ष में आपका स्वर्गवास हुआ। तृतीया का दिन गंगापुर (भीलवाड़ा) में आपका युवाचार्य अभिषेक दिवस था और तृतीया के दिन ही आपने गंगाशहर (बीकानेर) में महाप्रयाण किया।
आपके वर्चस्वी व्यक्तित्व का प्रभाव था कि देश-विदेश के लाखों लोग अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने गंगाशहर की धरा पर पहुंचे। आस-पास के गांव से अपार जनसैलाब उमड़ा। आंख-आंख में आंसू थे। कण्ठ-कण्ठ में एक ही गूंज थी "मानवता का अनन्य उपासक जन-जन का मार्गदर्शक इस संसार से विदा हो गया।"
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी के महाप्रयाण पर प्रेषित कुछ शोक-संवेदनाओं* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 4* 📜
*ऐतिहासिक काल*
*भगवान् महावीर*
भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे। बिहार प्रांत के क्षत्रिय कुंडलपुर गांव में विक्रम पूर्व 542 (ईसा पूर्व 599) में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उनका जन्म हुआ। उनके पिता राजा सिद्धार्थ और माता वैशालीपति चेटक की बहन त्रिशला थी। भगवान् महावीर जब युवावस्था को प्राप्त हुए तब यशोदा नामक राजकन्या के साथ उनका विवाह किया गया। उनके प्रियदर्शना नामक एक पुत्री हुई, जो कि राजकुमार जमालि को ब्याही गई।
तीस वर्ष की पूर्ण युवावस्था में सहज प्राप्त सुखों को ठुकराकर वे अध्यात्म साधना में लग गए। दीक्षित होते समय उनकी प्रथम प्रतिज्ञा थी— "आज से मेरे लिए सब प्रकार के दोषाचरण अकरणीय हैं।" उन्होंने अपने आपको तपश्चर्या और तत्त्व-चिंतन में लगा दिया। बारह वर्ष और साढ़े छः महीने की निरंतर साधना के अनंतर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई।
साधना के शिखर को प्राप्त कर लेने के पश्चात् उन्होंने मध्यम पावा में आकर सब प्राणियों के हितार्थ धर्मोपदेश दिया। उन्हीं दिनों वहां सोमिल नामक धनाढ्य ब्राह्मण के यहां यज्ञ-विषयक एक विशाल अनुष्ठान चल रहा था। उसकी पूर्ति के लिए इंद्रभूति आदि ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आए हुए थे। महावीर की प्रशंसा सुनकर उनका पांडित्य आहत हुआ। वे उनको शास्त्रार्थ में परास्त करने के लिए एक-एक करके वहां गए, किंतु उनके धर्मोपदेश से स्वयं प्रभावित हो गए। महावीर ने उनके प्रच्छन्न संशयों का भी समाधान प्रस्तुत कर दिया। वे श्रद्धाशील बने और भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। भगवान् ने साधु-समूह की व्यवस्था का भार उपर्युक्त ग्यारह विद्वान् शिष्यों को सौंपा, अतः वे गणधर कहलाए। साध्वी-समूह की व्यवस्था के लिए उन्होंने आर्या चंदनबाला को नियुक्त किया। उनके गृहस्थ भक्त श्रावक और श्राविका कहलाए। इस प्रकार चतुर्विध संघ की स्थापना हुई और धर्म तीर्थ का प्रवर्तन हुआ।
अंग, बंग, मगध, विदेह, काशी, कोशल, वत्स, अवंती, कलिंग, पांचाल और सिंधुसौवीर आदि देशों में उन्होंने विहार किया। मगधराज श्रेणिक (बिंबसार) और कूणिक (अजातशत्रु), वैशालीपति चेटक, अवंतीपति प्रद्योत, कौशांबीपति शतानिक आदि प्रभावशाली राजा तथा आनंद, कामदेव आदि धनकुबेर नागरिक उनके अनन्य भक्त बन गए। स्कन्दक आदि अन्य धर्मावलंबी सन्यासी भी उनके सर्व-भूत-समभावकारी उपदेश से प्रभावित हो कर उनके पास प्रव्रजित हुए। हरिकेशबल जैसे शूद्र समझे जाने वाले व्यक्ति भी उनके धर्म तीर्थ में आकर देव पूजित बन गए।
लगभग तीस वर्ष तक जनपद विहार करते हुए भगवान् महावीर ने जनता को अहिंसा और अनेकांतवाद का उपदेश दिया। उन्होंने अपना अंतिम वर्षावास मध्यम पावा में बिताया। वहां विक्रम पूर्व 470 (ईसा पूर्व 527) कार्तिक अमावस्या की रात्रि में वे निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
*जैन परंपरा के ऐतिहासिक काल के उत्तरवर्ती आचार्यों तथा विभिन्न पट्टावलियों* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पायेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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