28.02.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 28.02.2019
Updated: 28.02.2019

Update

💥🌼💥 *नवीन घोषणा* 💥🌼💥

*परमपूज्य गुरुदेव ने महत्ती कृपा कर वि. सं. 2076 का यह नया चतुर्मास फरमाया है --*

💢 *"शासनश्री" साध्वी श्री कंचन कुमारी जी(लाडनूं)*

*रोहतक* (हरियाणा)

28.02.2019
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 545* 📝

*धर्मवृद्धिकारक आचार्य धर्मसागर*

आचार्य धर्मसागरजी दिगंबर परंपरा के प्रभावक आचार्य थे। वीरसागरजी की भांति धर्मसागरजी भी बाल ब्रह्मचारी थे। उनका त्याग और तप विशिष्ट था। उनकी वीतराग शासन के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा थी। वे सिद्धांतों एवं मान्यताओं के प्रति अटल एवं सुदृढ़ थे।

*गुरु-परम्परा*

धर्मसागरजी आचार्य शांतिसागरजी की उत्तराधिकारी परंपरा में तृतीय पट्टाचार्य थे। शांतिसागरजी के शिष्य वीरसागरजी, वीरसागरजी के शिष्य शिवसागरजी और शिवसागरजी के उत्तराधिकारी धर्मसागरजी थे। आचार्य धर्मसागरजी की क्षुल्लक दीक्षा आचार्यकल्प मुनि चंद्रसागरजी द्वारा एवं एलक तथा मुनि दीक्षा वीरसागरजी द्वारा संपन्न हुई थी, अतः धर्मसागरजी के दीक्षा गुरु मुनि चंद्रसागरजी एवं वीरसागरजी थे।

*जन्म एवं परिवार*

धर्मसागरजी का जन्म वीर निर्वाण 2440 (विक्रम संवत् 1970) पौष पूर्णिमा को राजस्थान प्रांत के बूंदी जिलांतर्गत 'गम्भीरा' ग्राम में खंडेलवाल जाति एवं छावड़ा गोत्रीय परिवार में हुआ। पिता का नाम बख्तावरमल एवं माता का नाम उमरावबाई था। धर्मसागरजी का जन्म नाम चिरंजीलाल रखा गया। उनका दूसरा नाम कजोड़ीमल भी था।

*जीवन-वृत्त*

बालक चिरंजीलाल के जन्म से माता-पिता को आनंद की अनुभूति हुई। चिर प्रतीक्षा के बाद पुत्र के आगमन पर ऐसा होना स्वाभाविक भी था। बालक चिरंजीलाल से पूर्व होने वाली संतानों में एक भी संतान उमरावबाई की जीवित नहीं रही, अतः बालक का नाम चिरंजीलाल रखा गया, जो पुत्र के दीर्घजीवी होने की मंगलभावना का प्रतीक था।

माता-पिता का सुख चिरंजीलाल को अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो सका। बालक के शैशवकाल में पिता बख्तावरमल जी एवं माता उमरावबाई दोनों का देहावसान हो गया। किसलय-सी कोमल वय में माता-पिता के वियोग का यह क्रूर आघात था। वियोग की असह्य घड़ी में बालक चिरंजीलाल को बड़ी बहन दाखांबाई का संरक्षण मिला। कंवरलालजी एवं बख्तावरमलजी दोनों सहोदर थे। बख्तावरमलजी के चिरंजीलाल एक ही पुत्र था और कंवरलालजी के दाखांबाई एक ही पुत्री थी। कंवरलालजी एवं उनकी धर्मपत्नी दोनों का ही निधन असमय में हो गया था।

दाखांबाई का ससुराल वामणवास गांव में था। दाखांबाई के पति भंवरलालजी का भी लघुवय में देहांत हो गया, अतः बहन और भाई (दाखांबाई और चिरंजीलाल) दोनों परस्पर सुख-दुःख में सहभागी थे। पवित्र स्नेह से अपना जीवन रथ आगे बढ़ाते रहे।

*धर्मवृद्धिकारक आचार्य धर्मसागर का अध्यात्म के प्रति झुकाव और दीक्षा आदि* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 199* 📜

*मगनीरामजी गाधिया*

*पौषध और पुत्र*

मगनीरामजी गाधिया सांसारिक कार्यों में जितने पक्के थे उतने ही धार्मिक कार्यों में भी। अपने परिणामों को सम बनाए रखना उन्हें खूब आता था। एक घटना उनकी उस वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालती है—

एक बार उन्होंने अठाई के प्रत्याख्यान किए और साथ ही 64 प्रहर का पौषध ग्रहण कर लिया। उसी बीच में उनका डेढ़ वर्ष का लड़का रुग्ण हुआ और गुजर गया। उन्हें जब इस बात की सूचना दी गई तो उन्होंने अपनी आकृति पर किसी भी प्रकार की भावाभिव्यक्ति नहीं होने दी। वे पूर्ववत् सुदृढ़ भाव से अपने स्वाध्याय तथा ध्यान में लगे रहे। पौषध का समय पूरा होने पर ही वे उससे निवृत्त हुए और घर पर गए। वहां कुछ देर ठहरे। बालक के संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त की। उनका मन शोक के बजाय विराग से भर गया। पारण किए बिना ही वे पुनः साधुओं के स्थान पर आ गए और अपनी तपस्या को दो दिन आगे बढ़ाते हुए सोलह प्रहर का पौषध स्वीकार कर लिया। इस प्रकार लगातार अस्सी प्रहरों में बहुत थोड़ा सा समय ही उन्होंने खुला बिताया। वह उनका सर्वाधिक बड़ा पौषध था। साथ ही वह उनके स्थिर परिणाम तथा विराग भाग का परीक्षण भी था।

*प्रशस्त धार्मिकता*

उनकी धार्मिक वृत्ति अत्यंत प्रशस्य थी। दर्शन, सेवा और सामायिक से लेकर तपस्या आदि तक के प्रत्येक कार्य में वे वहां के अग्रणी श्रावक गिने जाते थे। गांव में जब पचरंगी आदि सामूहिक तपस्या प्रारंभ होती तब उसमें सर्वप्रथम नाम उन्हीं का लिखा जाता था। जितनी तपस्या करनी होती उतनी प्रायः एक साथ ही पचख लिया करते थे। एक-एक दिन का प्रत्याख्यान करने को वे दुर्बलता माना करते थे। अपने जीवनकाल में उपवास से लेकर दस दिनों तक की तपस्या उन्होंने अनेक बार की थी, परंतु उन सब की कोई निर्णीत संख्या प्राप्त नहीं है। पंचौले लगभग तीस किए थे। तपस्या के दिनों में वे अपना अधिकांश समय संत-सतियों की सेवा में ही बिताया करते थे। बहुधा तो वे तपस्या पर्यंत पौषध ही कर लिया करते थे। अन्य विभिन्न प्रकार के प्रत्याख्यान भी उन्होंने काफी संख्या में कर रखे थे। जीवन के अंतिम 35 वर्षों तक उन्होंने निरंतर रात्रिकालीन चौविहार तप किया था।

अपने जीवन के अंतिम सोलह वर्षों में वे पक्षाघात से पीड़ित रहे, फिर भी न कभी उन्होंने चौविहार ही छोड़ा और न कभी अन्य किसी प्रत्याख्यान में ही छूट का उपयोग किया। मृत्यु के सामने उन्होंने कभी दैन्य का प्रदर्शन नहीं किया। अन्य कार्यों में जितनी दृढ़ता और निर्भीकता उनमें रही थी, उतनी ही मृत्यु के आह्वान पर भी थी।

*उदयपुर के श्रावक हीरालालजी मुरड़िया के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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💢 *साध्वी श्री संघ प्रभा जी*

*श्री गंगानगर* (राजस्थान)


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🌈 *"अहिंसा यात्रा"* के बढ़ते कदम..

⛩ *आज दिन का प्रवास स्थल- Sri Datta Anjaneya temple, Thottakkattukara, (Aluva) Kerala*
🚦लोकेशन: 👇
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🛣 *आज प्रातःकाल का विहार लगभग 12 कि.मी. का..*

👉 *दिनांक - 28 फरवरी 2019*
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👉 *परिवर्तन मष्तिष्क का: श्रंखला ३*

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👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला ५९* - *स्वभाव परिवर्तन और प्रेक्षाध्यान ५*

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