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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 195* 📜
*हीरालालजी लोढा*
*महाराणा का सुझाव*
हीरालालजी का यह सामाजिक बहिष्कार कितने वर्षों तक चलता रहा। परंतु एक घटना के कारण स्थानकवासियों को विवश होकर उसे समाप्त करना पड़ा। महाराणा फतहसिंहजी दिवंगत हुए तब उनकी 'बारहवीं' के उपलक्ष में महाराणा भूपालसिंहजी ने सारे शहर को जिमाया। ओसवाल समाज को निमंत्रण दिया गया तब यह समस्या सामने आई। स्थानकवासियों ने कहा कि हीरालालजी आएंगे तो हम नहीं आएंगे। महाराणा ने सारी बात की छानबीन की तो पता लगा कि न्यायालय में इस बात का अंतिम निर्णय हो चुका है। उन्होंने तब अनावश्यक दुराग्रह छोड़ने की सलाह देते हुए कहा— "न्यायालय का निर्णय होने के पश्चात् यह बात उचित नहीं रह जाती।"
उन लोगों ने इतने पर भी अपना आग्रह नहीं छोड़ा। वे सोचते थे थे कि इसी समय हीरालालजी को अपमानित किया जा सकता है। सारे समाज को भोजन के लिए बुलाते समय यदि महाराणा द्वारा उनको टाल दिया जाता है तो यह उनका सबसे बड़ा अपमान होगा, परंतु महाराणा उन्हें टाल कैसे सकते थे? उधर भी तो सारे तेरापंथ समाज का प्रश्न उठ खड़ा होता, अंततः मध्यम मार्ग निकालते हुए महाराणा ने हीरालालजी को बुलाया और कहा— "मेरे कार्य में बाधा न पड़े इसलिए तू मेरी मोटर में छड़ीदार को साथ लेकर एकलिंगजी जा और पांच रुपये की केसर चढ़ा आ।" पांच रुपये भी उन्होंने अपने पास से ही दिए।
हीरालालजी ने महाराणा के कथन को स्वीकार किया और एकलिंगजी जाकर केसर चढ़ा आए। फिर भी उन लोगों का आग्रह रहा कि यह तो सारा दरबार की ओर से हुआ। उन पर कुछ न कुछ दंड अवश्य होना चाहिए।
महाराणा ने कहा— "निर्दोष को मैं दंड कैसे दे सकता हूं? इतना भी मैंने तुम लोगों के संतोष के लिए ही किया है। उसने जब मेरी बात को नहीं टाला तो अब तुम्हें भी मान जाना चाहिए।" महाराणा ने धमकी के स्वर में यह भी कहा कि यदि अब भी कोई भोज में सम्मिलित होने में आनाकानी करेगा तो उससे मुझे दूसरे प्रकार से निपटना पड़ेगा।
महाराणा की उस धमकी के आगे सारे ढीले पड़ गए और बिना किसी ननुनच के भोज में सम्मिलित हो गए। इस प्रकार अनेक वर्षों का वह झगड़ा, जिसे वे चालू रखना चाहते थे, विवशतापूर्वक समाप्त कर देना पड़ा। इस सारे कांड में मंदिरमार्गी समाज तेरापंथियों के साथ रहा। उसने प्रारंभ से ही उस सारी बात को मनगढ़ंत माना और सांप्रदायिक आवेश को भड़काने वाली उन लोगों की प्रवृत्तियों को अनुचित बतालाया।
*उदयपुर के सेवा-परायण श्रावक हीरालालजी लोढा की संतान के अभाव को कचोटती मन स्थिति* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 541* 📝
*आनन्दघन आचार्य आनन्दऋषि*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
मां के धार्मिक संस्कारों का जागरण बालक में भी हुआ। हुलासीदेवी से प्रेरणा प्राप्त कर बालक ने रत्नऋषिजी से सामायिक पाठ, प्रतिक्रमण, तात्त्विक बोल एवं अध्यात्म प्रधान स्तवन कंठस्थ किए। आनंदऋषिजी मेधावी एवं शांति प्रकृति के थे।
बालक में वैराग्य भाग का जागरण हुआ। माता से आदेश प्राप्त कर वीर निर्वाण 2440 (विक्रम संवत् 1970) में मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी के दिन उन्होंने रत्नऋषिजी से मुनि दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी अवस्था लगभग 13 वर्ष की थी। उनका दीक्षा नाम आनंदऋषि रखा गया।
दीक्षा लेने के बाद उन्होंने व्याकरण, छंद, स्मृतिग्रंथ, काव्यानुशासन और नैषधीय चरित्र आदि उच्चकोटि के काव्य ग्रंथों को पढ़ा। उनकी संगीत में अभिरुचि थी। उनके जीवन का उत्तरोत्तर विकास होता रहा। वे युवाचार्य, प्रधानाचार्य, प्रधानमंत्री, उपाध्याय आदि विभिन्न पदों से अलंकृत होकर स्थानकवासी संप्रदाय में सम्मानित स्थान प्राप्त करते रहे।
ऋषि संप्रदाय के पूज्यश्री अमोलकऋषि के पश्चात् विक्रम संवत् 1993 में देवऋषिजी की आचार्य पद पर एवं आनंदऋषिजी की युवाचार्य पद पर नियुक्ति हुई।
देवऋषिजी के स्वर्गवास के बाद वीर निर्वाण 2469 (विक्रम संवत् 1999) माघ कृष्णा छठ के दिन आनंदऋषिजी ऋषि परंपरा के आचार्य पद पर सुशोभित हुए।
आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब, मारवाड़, मेवाड़ आदि अनेक क्षेत्रों में विहरण कर उन्होंने जैन धर्म का प्रचार किया। विक्रम संवत् 2006 में ब्यावर में स्थानकवासी परंपरा के पांच संप्रदायों ने मिलकर आनंदऋषि को वीर वर्धमान श्रमण संघ के प्रधानाचार्य पद पर मंडित किया।
स्थानकवासी परंपरा का वृहद् श्रमण सम्मेलन सादड़ी में वीर निर्वाण 2479 (विक्रम संवत् 2009) में हुआ। इस अवसर पर श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना हुई। इस नवोदीयमान संघ के प्रधानमंत्री पद पर आनंदऋषिजी का चयन हुआ।
भीनासर (बीकानेर) में विक्रम संवत् 2012 में स्थानकवासी समाज द्वारा दूसरी बार वृहद् श्रमण सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में वर्धमान श्रमण संघ ने उपाध्याय पद पर आनंदऋषिजी को नियुक्त किया।
श्री वर्धमान श्रमण संघ के प्रथम आचार्य आत्मारामजी थे। उनके बाद वीर निर्वाण 2489 (विक्रम संवत् 2019) में आनंदऋषिजी वर्धमान श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य बने।
*आनन्दघन आचार्य आनन्दऋषि के प्रभावशाली व्यक्तित्व, साहित्य रचना व उनके आचार्यकाल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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