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*नवीन सूचना*
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आज दिनांक 15 फरवरी 2019 को कोयम्बत्तूर में *परम पावन पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमण जी ने* महती कृपा कर के आज *समण सिद्धप्रज्ञ जी को सन.2021 में* मालवा यात्रा के दौरान *मुनि दीक्षा* देने की घोषणा करते हुए साधु प्रतिक्रमण सीखने का आदेश *फरमाया।*
प्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
Source: © Facebook
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 536* 📝
*आत्मसंगीत उद्गाता आचार्य आत्मारामजी*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
सादड़ी सम्मेलन के अवसर पर विशाल श्रमण समाज उपस्थित हुआ। संघ एकता की दिशा में स्थानकवासी समाज की ओर से वह आयोजन किया गया। यह समय वीर निर्वाण 2479 (विक्रम संवत् 2009) था। इस आयोजन में सबकी दृष्टि एक ऐसे विश्वासपात्र सक्षम व्यक्ति को खोज रही थी जो समूचे संघ का समर्पण निगर्वी भाव से ले सके और सबको संतोषजनक नेतृत्व दे सके। एक साथ सबकी दृष्टि अनुभव सिद्ध, वयोवृद्ध आत्मारामजी पर टिकी। तत्काल श्रमण संघ के नाम पर संघ एकता का प्रस्ताव पारित हुआ और उल्लासमय वातावरण में आत्मारामजी को वैशाख शुक्ला नवमी को वर्धमान श्रमण संघ का नेता मनोनीत किया गया।
आचार्य आत्मारामजी आगम के विशिष्ट व्याख्याता थे। उनके प्रवचन में प्रभावकता थी। उनके उपदेश लोकरंजन के लिए नहीं होते थे। प्रवचन में शास्त्रीय आधार रहता था। पंडित जवाहरलाल नेहरू, जर्मन विद्वान् रोथ आदि विशिष्ट व्यक्ति उनके संपर्क में आए।
*साहित्य*
आचार्य आत्मारामजी प्रशस्त रचनाकार थे। वे आशु कवि थे। विविध विषयों पर उनकी लेखनी चली। आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, अनुत्तरौपपातिक, उपासकदशा, अनुयोगद्वार, स्थानांग, दशाश्रुतस्कंध, निरयावलिका, प्रश्नव्याकरण आदि कई आगमों का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया एवं विस्तृत व्याख्याएं लिखीं।
उन्होंने जैन ग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन कर तुलनात्मक साहित्य भी रचा। 'तत्त्वार्थ सूत्र जैनागम समन्वय' नामक कृति तुलनात्मक दृष्टि से ज्ञानवर्धक रचना है।
उनका सचित्र 'अर्धमागधी कोष' आगम ज्ञान का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। 'जैनागमों में स्याद्वाद' उनकी एक और कृति है। इसमें स्याद्वाद से संबंधित आगम-पाठकों का सुंदर संकलन है।
जैनागमों में अष्टांग योग, जैनागम न्याय संग्रह, वीरत्थुई, जीवकर्म संवाद आदि आत्मारामजी की कई मौलिक रचनाएं हैं।
दिल्ली में विक्रम संवत् 1991 में आचार्य आत्मारामजी को जैन दिवाकर की उपाधि से सम्मानित किया गया। सियालकोट में विक्रम संवत् 1993 में उन्हें साहित्यरत्न का अलंकरण प्रदान किया गया था।
*समय-संकेत*
जैन वर्धमान श्रमण संघ के प्रभावक आचार्य आत्मारामजी ने दस वर्ष तक वर्धमान श्रमण संघ का कुशलता पूर्वक संचालन किया। उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास वीर निर्वाण 2488 (विक्रम संवत् 2018, ईस्वी सन् 1961) माघ कृष्णा नवमी के दिन लुधियाना में हुआ। आत्मारामजी समर्थ साहित्यकार एवं वर्धमान श्रमण संघ के तेजस्वी आचार्य थे।
*सद्संस्कार संजीवक आचार्य शिवसागरजी के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 190* 📜
*टीकमचंदजी चंडालिया*
*पदयात्री*
टीकमचंदजी चंडालिया पदयात्री श्रावक थे। साधुओं की तरह कहीं भी जाना-आना होता तो पैदल ही जाते-आते। सवारी मात्र का उन्हें परित्याग था। साधारणतया अन्यत्र कहीं जाते ही नहीं थे। आचार्यश्री यदि पांच-चार मंजिलों में पहुंच पाने योग्य किसी समीपस्थ क्षेत्र में होते तब दर्शन सेवा के लिए कभी-कभी अन्यत्र जाते थे। वे तपस्या ग्रहण करके चलते और उसका पारण आचार्यश्री के दर्शन करके ही करते। एक बार ग्रीष्म ऋतु में चौविहार तपस्या ग्रहण कर वे गुरु दर्शनार्थ तीन दिनों में राजलदेसर से बीदासर पहुंचे थे। इसी प्रकार एक बार पांच दिनों की पदयात्रा करके उन्होंने सरदारशहर में आचार्यश्री के दर्शन किए थे।
*देव और वेदना*
ओसवाल जाति यद्यपि प्रायः जैन ही है। फिर भी देव-देवियों के वंदन-पूजन आदि दुर्बलता उनमें अपने जन्मकाल से ही चलती रही है। बहुत कम व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जो इस प्रपंच से निष्ठापूर्वक दूर रहते हैं। टीकमचंदजी के परिवार में कई पीढ़ियों से भैंरूजी की मान्यता चली आ रही थी। वे उसे पसंद नहीं करते थे, अतः उन्होंने किसी भी देव या देवी को नमस्कार करने तथा पूजन करने का परित्याग कर दिया। कहा जाता है कि उनके उक्त त्याग से भैंरूजी रुष्ट हो गए। उन्होंने उनकी आंखों में भयंकर वेदना उत्पन्न कर दी। रात्रि के समय 'दरसाव' देकर कह भी दिया कि यदि तुम मुझे पूर्ववत् मान्यता नहीं दोगे तो मैं तुम्हारी आंखें फोड़ दूंगा।
टीकमचंदजी के सम्मुख उस समय एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई। वे त्याग को बचाएं या आंखों को। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती गई तो त्यों-त्यों वेदना बढ़ती गई। इतने पर भी वे अडिग रहे। उन्होंने निर्णय कर लिया की आंखें जाएं चाहे रहें, परंतु त्याग को भंग नहीं होने दूंगा। आखिर वेदना की बढ़ती हुई लहर रुक गई और प्रातःकाल तक वे बिल्कुल स्वस्थ हो गए। उनकी सुदृढ़ संकल्प-शक्ति के सम्मुख देव-शक्ति पराजित हो गई।
*दृढ़ प्रत्याख्यानी चूरू के महान् श्रावक रायचंदजी सुराना के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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