12.09.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.09.2018
Updated: 02.10.2018

Update

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परम पूज्य आचार्य प्रवर
का प्रेरणा पाथेय....


आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल, माधावरम,
चेन्नई.......

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दिनांक:
12 सितंबर 2018

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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Source: © Facebook

Update

Video

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 12 सिंतबर 2018

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

Video

12 September 2018

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👉 *परम पूज्य आचार्य प्रवर* के
प्रतिदिन के *मुख्य प्रवचन* को
देखने- सुनने के ‌लिए
नीचे दिए गए लिंक पर
क्लिक करें....⏬

https://youtu.be/UCDhHYBb_XY

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: दिनांक:
*12 सितंबर 2018*

: प्रस्तुति:
❄ *अमृतवाणी* ❄

: संप्रसारक:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 422* 📝

*महामनीषी आचार्य मलयगिरि*

*साहित्य*

गतांक से आगे...

महामनीषी आचार्य मलयगिरि द्वारा रचित कतिपय ग्रंथों का परिचय—

*नंदी वृत्ति* आचार्य मलयगिरि की नन्दी वृत्ति 7732 श्लोक परिमाण है। इसमें चूर्णिकार को नमस्कार करने के बाद टीकाकार हरिभद्र का स्मरण किया गया है। यह विविध जैन दार्शनिक मान्यताओं को जानने के लिए उपयोगी है। अपने प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने के लिए प्राकृत और संस्कृत के उद्धरण एवं कथानक भी इसमें हैं। जैन दर्शन ज्ञान पञ्चक का विस्तृत विवेचन करने वाली यह टीका ज्ञानवर्धक और आनंदवर्धन है। टीका प्रशस्ति के चतुर्थ श्लोक में मलयगिरि ने स्वल्प शब्दों में अधिक अर्थ प्रदान करने वाली इस टीका से फलित सिद्धि को लोक कल्याण के लिए अर्पित किया है। टीका के प्रारंभ में वर्धमान जिनेश और जिन प्रवचन की जय बोली गई है।

*प्रज्ञापना वृत्ति* इस वृत्ति का ग्रंथमान 16000 पद्य परिमाण है। आचार्य हरिभद्र ने इस सूत्र का विषमपद लिखा है। यह विवरण प्रज्ञापना के क्लिष्ट सूत्रों की व्याख्या के रूप में था। टीका में आचार्य हरिभद्र का विषमपद विवरण आधारभूत है। आचार्य मलयगिरि ने इस टीका के प्रारंभ में तीर्थंकर महावीर की और अंतिम प्रशस्ति में आचार्य हरिभद्र की जय बोली है। यह संक्षिप्त टीका है। कहीं-कहीं आवश्यकतानुरूप विस्तार है।

*सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति* यह सूर्यप्रज्ञप्ति को उपाङ्ग की टीका है। इसका ग्रंथमान 9500 पद्य परिमाण है। आचार्य मलयगिरि के शब्दों में यह सूत्रस्पर्शी टीका है। क्रूर काल के प्रभाव से आचार्य हरिभद्र कि सूर्यप्रज्ञप्ति निर्युक्ति नष्ट हो गई थी, अतः मलयगिरि ने मूल सूत्रों पर टीका की रचना की। ऐसा मलयगिरि ने टीका के प्रारंभ में उल्लेख किया है। जैन दर्शन सम्मत ज्योतिष ज्ञान के लिए यह टीका उपयोगी है। इस टीका की प्रशस्ति के अनुसार मलयगिरि सूर्यप्रज्ञप्ति रचना से प्राप्त लाभ को जन कल्याणार्थ अर्पित करते थे।

*जीवाभिगम वृत्ति* यह तृतीय उपाङ्ग की टीका है। इसमें विविध सामग्री है। इस टीका में कई प्राचीन ग्रंथों और ग्रंथकारों के नामों का उल्लेख है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे।

*ज्योतिषकरण्ड वृत्ति* यह टीका प्रकीर्णक ग्रंथ पर है। इस टीका में काल ज्ञान की विशेष सामग्री है। इसमें वल्लभी और माथुरी वाचना का विस्तृत वर्णन है। टीका के अंत में मलयगिरि ने टीकागत अशुद्धियों को सुधारने के लिए विद्वानों से नम्र निवेदन किया है एवं टीका रचना से प्राप्त फल को लोक कल्याण के लिए अर्पित किया है।

*व्यवहार वृत्ति* यह विशाल वृत्ति 34625 श्लोक परिमाण है। मलयगिरि के उपलब्ध टीका साहित्य में यह सबसे बड़ी वृत्ति है। इस वृत्ति की रचना निर्युक्ति, भाष्य सहित मूल सूत्रों पर हुई है। वृति के प्रारंभ में प्रस्तावना रूप विस्तृत पीठिका है। आगम, श्रुत आदि पांच व्यवहारों का वर्णन, गीतार्थ, अगीतार्थ के स्वरूप व्याख्या, प्रायश्चित के भेदों का विवेचन आदि विषय टीका में सम्यक् प्रकार चर्चित हुए हैं। टीका के अंत में इस विवरण को श्रमणों के लिए अमृत-तुल्य बताया गया है।

*राजप्रश्नीय वृत्ति* राजप्रश्नीय आगम सूत्रकृताङ्ग का उपाङ्ग है। उपाङ्गागमों में इसका दूसरा क्रम है। प्रस्तुत टीका इस द्वितीय उपाङ्ग पर है। इस टीका में अङ्ग और उपाङ्ग की चर्चा करने के बाद नरेश प्रदेशी और केशीकुमार का आख्यान विस्तार से है। इस टीका का ग्रंथमान 3700 श्लोक परिमाण है।

*महामनीषी आचार्य मलयगिरि द्वारा रचित अन्य और भी ग्रंथों का परिचय* प्राप्त करेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 76* 📜

*प्यारचंदजी दलाल*

*माता को सहयोग*

संवत् 1943 में मघवागणी ने उदयपुर में चातुर्मास किया उस समय तक प्यारचंदजी की आर्थिक स्थिति सभी प्रकार से सुदृढ़ हो चुकी थी। अच्छा व्यापार चलता था। अच्छी इज्जत थी और अच्छा मित्र वर्ग था। पहले की स्थिति में तो वे साधु-साध्वियों के स्थान पर थोड़ा ही समय लगा पाते थे, परंतु उसके बाद की स्थितियों ने उन्हें भरपूर सेवा करने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने उसका पूर्ण रूप से लाभ उठाया।

धर्म के विषय में वे अपनी माता का ही पूर्ण रूप से उपकार मानते थे। वे उन्हें देववत् माना करते थे। उनकी माता ने भी तेरापंथी रहकर कोई कम कष्ट नहीं उठाए थे। पारिवारिक उपेक्षाओं के न जाने कितने विष-घूंट उन्हें पीने पड़े थे। धन होते हुए भी उन्हें पहनने-ओढ़ने का पूर्ण संतोष करके ही अपनी युवावस्था बितानी पड़ी। घर की अन्य स्त्रियां जहां अच्छे साज-श्रृंगार में रहा करती थीं। वहां प्यार चंद जी की माता को न अच्छे कपड़े दिए जाते और न गहने। एक नौकरानी की तरह उनको काम में जोते रखा जाता था। समय-असमय अपमानित किए जाने का तो कोई पार ही नहीं था। मात्र तेरापंथी होने का ही उन्हें यह सारा दंड भुगतना पड़ा था। उन्होंने सभी प्रकार की मानसिक यातनाओं को सहर्ष झेल कर अपने सम्यक्त्व को अक्षुण्ण बनाए रखा था।

मघवागणी का चातुर्मास उदयपुर में हुआ, तब तक वे काफी वृद्ध हो चुकी थीं। आंखों की ज्योति भी प्रायः लुप्त हो गई थी, फिर भी वे तीनों समय स्थान पर जाती और व्याख्यान आदि का लाभ उठातीं। प्यारचंदजी ने इस अवसर पर उन्हें धर्म लाभ प्राप्त करने में पूरा सहयोग दिया। गोद के पुत्र होते हुए भी प्यारचंदजी ने सगे पुत्र की तरह अपनी माता की तन, मन और धन से सेवा की। उन्होंने उनको न केवल शारीरिक शांति प्रदान की अपितु धार्मिक सहयोग देकर भरपूर आत्मिक शांति भी प्रदान की। माता ने उन्हें जो मार्गदर्शन दिया था, उसके सम्मुख अपने उस सहयोग को वे अत्यंत तुच्छ मानते थे।

*अखंड निष्ठा*

प्यारचंदजी की माता का जब देहांत हो गया तब परिवार वालों ने पुनः मान्यता परिवर्तन के लिए उन पर दबाव डालना प्रारंभ किया। शायद उन लोगों का विश्वास था कि माता के प्रभाव में आकर ही वे तेरापंथी बने थे, अतः उनके हटते ही वह प्रभाव भी समाप्त हो जाने की उन्हें संभावना थी, परंतु उनका यह अनुमान सत्य नहीं निकला। जो व्यक्ति विकट स्थिति में भी नहीं झुका वह अब सब प्रकार की संपन्नता की स्थिति में क्यों झुकने लगा? संपन्नता न भी हुई होती तो भी जिसने एक बार सत्य को आंतरिक रूप से पहचान लिया उसके लिए उससे मुंह मोड़ लेना कभी संभव नहीं होता। तेरापंथ के प्रति प्यारचंदजी की अखंड निष्ठा उसी सत्य दर्शन का फल थी। उनकी निष्ठा न कभी झुकी और न कभी विचलित हुई।

*सेवा का अवसर*

संवत् 1949 के शेष काल में डालगणी का उदयपुर पदार्पण हुआ तथा संवत् 1972 में कालूगणी का चातुर्मास हुआ। दोनों ही अवसरों पर प्यारचंदजी ने महत्त्वपूर्ण सेवाएं कीं। अनेक व्यक्तियों को उनके सहयोग से तेरापंथ के संपर्क में आने तथा उसे समझने का अवसर मिला। दीवान जसवंतसिंहजी उनके घनिष्ठ मित्रों में से थे। कालूगणी से उन्होंने ही उनका संपर्क कराया था। प्यारचंदजी की वृत्तियों में प्रारंभ से ही विराग भाग रहा था। ऊंची-नीची परिस्थितियों ने उनके उस भाव में वृद्धि ही की। अनेक प्रकार के त्याग प्रत्याख्यानों से उन्होंने अपने जीवन को धीरे-धीरे कर लिया। इस प्रकार धर्म की आराधना करते हुए संवत् 1990 में वे दिवंगत हुए।

*गंगाशहर के श्रावक हीरालालजी आंचलिया के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 421* 📝

*महामनीषी आचार्य मलयगिरि*

*साहित्य*

मलयगिरि सूक्ष्म मनीषा के धनी थे। उनकी मेधा असाधारण थी। उन्होंने आगम ग्रंथों पर सहस्रों पद्य परिमाण टीका ग्रंथों की रचना की एवं टीकातिरिक्त ग्रन्थों की रचना भी की। उनकी प्रसिद्धि स्वतंत्र ग्रंथकार के रूप में नहीं टीकाकार के रूप में है। टीकाकार आचार्यों के क्रम में आचार्य मलयगिरि का गौरवपूर्ण स्थान है।

मलयगिरि की टीकाएं सूत्रस्पर्शी और व्याख्यात्मक दोनों हैं। जहां आवश्यक हुआ उन्होंने अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया। प्रतिपाद्य विषय को पुष्ट करने के लिए प्राचीन प्रमाणों के उल्लेख तथा सप्रसंग विषयांतरित विषयों की चर्चा उनके बहुमुखी ज्ञान की सूचक हैं। 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' में मलयगिरि के 25 टीका ग्रंथों एवं शब्दानुशासन नामक स्वतंत्र ग्रंथ का उल्लेख है। उन टिकाओं में से 19 टीका ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध हैं। उपलब्ध टीका ग्रंथों का कुल ग्रंथ 196612 पद्य परिमाण है।

मलयगिरि के उपलब्ध ग्रंथों में टीका ग्रंथों के नाम तथा कतिपय ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है

*(1)* भगवतीसूत्र-द्वितीय शतक वृत्ति 3750 पद्य परिमाण
*(2)* जीवाभिगमोपाङ्गटीका 1600 पद्य परिमाण
*(3)* राजप्रश्नीयोपाङ्गटीका 3700 पद्य परिमाण
*(4)* प्रज्ञापनोपाङ्गगटीका 16000 पद्य परिमाण
*(5)* चन्द्रप्रज्ञप्त्युपाङ्गटीका 9500 पद्य परिमाण
*(6)* सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्गटीका 9500 पद्य परिमाण
*(7)* नन्दीसूत्र टीका 7732 पद्य परिमाण
*(8)* व्यवहारसूत्र वृत्ति 34625 पद्य परिमाण
*(9)* वृहत्कल्पपीठिका वृत्ति (अपूर्ण) 4600 पद्य परिमाण
*(10)* आवश्यक वृत्ति (अपूर्ण) 18000 पद्य परिमाण
*(11)* पिण्डनिर्युक्ति टीका 6700 पद्य परिमाण
*(12)* ज्योतिष्करण्ड टीका 5000 पद्य परिमाण
*(13)* धर्मसंग्रहणी वृत्ति 10000 पद्य परिमाण
*(14)* कर्मप्रकृति वृत्ति 8000 पद्य परिमाण
*(15)* पंचसंग्रहणी वृत्ति 18850 पद्य परिमाण
*(16)* षडशीति वृत्ति 2000 पद्य परिमाण
*(17)* सप्ततिका वृत्ति 3780 पद्य परिमाण
*(18)* वृहत्संग्रहणी वृत्ति 5000 पद्य परिमाण
*(19)* वृहत्क्षेत्र समास वृत्ति 9500 पद्य परिमाण
*(20)* मलयगिरि शब्दानुशासन (स्व. ग्रंथ) 5000 पद्य परिमाण।

*महामनीषी आचार्य मलयगिरि द्वारा रचित कतिपय ग्रंथों का परिचय विस्तार में* प्राप्त करेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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📜 *श्रंखला -- 75* 📜

*प्यारचंदजी दलाल*

*चबूतरे का किराया*

अर्थ की समस्या प्यारचंदजी के सामने मुंह बाए खड़ी थी। उसके अभाव में न व्यापार हो सकता था और न परिवार की व्यवस्था। किसी से कुछ रुपए उधार लेकर उन्होंने अपना कार्य प्रारंभ किया। थोड़ी पूंजी से तो कोई साधारण कार्य ही किया जा सकता था, अतः 'रेजगी' का लेन-देन करके ही उन्हें संतोष कर लेना पड़ा। उस छोटे से कार्य के लिए भी प्रतिदिन किसी एक स्थान पर बैठने की आवश्यकता थी। कहां बैठे? उनके पास छोटा-मोटा कोई भी स्थान नहीं था। किराए पर कोई नया स्थान लेने की स्थिति भी उनकी नहीं थी। आखिर उन्होंने कुछ साहस किया और नेणचंदजी की दुकान के चबूतरे पर ही बैठकर वह कार्य करने लगे।

पहले उसी दुकान के उत्तराधिकारी थे और अब उसी के बाहर एक शरणार्थी की तरह बैठकर छोटा सा कार्य कर रहे थे। यह बात किसी अन्य को चाहे कितनी ही अखरी हो, परंतु उन्होंने मन में किसी प्रकार की हीन भावना को जन्मने नहीं दिया। उन दिनों उन्हें न जाने कितने व्यक्तियों के व्यंग वचन सुनने का अवसर मिला होगा, परंतु वे उन सबको सहज भाव से सह गए। सीख देने के नाम पर भी उन पर अनेक व्यक्तियों के तरह-तरह के दबाव पड़ते रहे, परंतु उन सबको भी उन्होंने बड़ी नम्रता और शालीनता के साथ सुन लिया। कभी किसी बात पर उन्होंने नाक पर सलवट तक नहीं पड़ने दी।

नेणचंदजी को उनकी उस दुरव्यस्था पर खेद होने के स्थान में प्रसन्नता हुई। उन्होंने इतने पर ही अपने पुत्र को क्षमा नहीं कर दिया, उस चबूतरे पर बैठने का उनसे किराया भी वसूला गया। इस प्रकार की और भी न जाने उन्हें कितनी जहर की घूंटें पीनी पड़ी, परंतु वे उनसे कभी विचलित नहीं हुए। धैर्य का फल मीठा होता है– यह केवल कहावत मात्र ही नहीं है, इसमें वास्तविकता भी है। प्यारचंदजी के धैर्य ने फलना प्रारंभ किया। उनके पास कुछ पूंजी इकट्ठी हुई। घर का खर्च ठीक ढंग से चलने लगा। धीरे-धीरे घर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। उन्होंने यथावसर नई दुकान खरीद ली और उसमें नया व्यापार प्रारंभ कर दिया। कुछ ही वर्षों में वे लखपति हो गए।

*श्रावक प्यारचंदजी दलाल ने अपनी माता को किस प्रकार धार्मिक सहयोग दिया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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📿 *चारित्र सहित जिको नाणी,*
*पंच परमेष्ठी औलख जपै जाणी।*
*तो स्यूं कहियै तसु फल सारं,*
*इम जाण जपो श्री नवकारं ।।*🧘🏻‍♂🧘🏻‍♀

⛩ *चेन्नई (माधावरम), महाश्रमण समवसरण में..*

👉 *पर्युषण पर्व का छठा दिन "जप दिवस"*

👉 *आज के "मुख्य प्रवचन" कार्यक्रम के कुछ विशेष दृश्य..*

दिनांक: 12/09/2018

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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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