11.08.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 14.08.2018
Updated: 15.08.2018

News in Hindi

🙏🏻 *'अणुव्रत अनुशास्ता' परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी* की मंगल सन्निधि में..

🧚🏻‍♀ *6 से 13 वर्ष* 🧚🏻‍♂ के बच्चों के लिए..

💠 *अणुव्रत विश्व भारती का प्रभावी आयोजन*
💥 *चेन्नई किडजोन* 🌈

देनन्दिन समय:
⏰ *प्रातः 09 से 01 एवं दोपहर 02 से 06 बजे तक..*

👉 *विभन्न विषयों पर कार्यशालाओं* का आयोजन *हर शनिवार, रविवार व* अन्य *सार्वजनिक अवकाश* के दिनों में..
⏰ *प्रातः 11 बजे से सांय 05 बजे* तक, अलग-अलग सेशंस में

⛩ स्थान:
*आचार्य महाश्रमण चातुर्मास स्थल, चेन्नई (माधावरम) में..*
https://goo.gl/maps/iWEpdnPWWrz
*प्रवचन पण्डाल के ठीक सामने..*

प्रसारक:
https://www.facebook.com/SanghSamvad/
🌻 *संघ संवाद* 🌻

Source: © Facebook

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 399* 📝

*वादकुशल आचार्य वादिदेव*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

मुनिचंद्रसूरि ने शास्त्रार्थ निपुण, चर्चावादि, न्यायशास्त्र विशेषज्ञ अपने परम योग्य शिष्य रामचंद्र को वीर निर्वाण 1644 (विक्रम संवत् 1174) में आचार्य पद पर नियुक्त किया। मुनि रामचंद्र का नाम आचार्य पदारोहण के समय देव रखा गया। इस अवसर पर चंदनबाला नामक साध्वी को महत्तरा पद से अलंकृत किया गया। साध्वी चंदनबाला श्रेष्ठी वीरनाग की पत्नी थी और मुनि रामचंद्र (वादीदेवसूरि) की माता थी। महत्तरा पद से प्रतिष्ठित करने के बाद साध्वी जिनदेवी का नाम चंदनबाला रखा गया।

आचार्य मुनिचंद्र के आदेश से वे स्वतंत्र विहरण करने लगे। एक बार वे धवलक नगर में पहुंचे। वहां जैन धर्म की महती प्रभावना हुई। धवलक नगर के श्रमणोपासकों में उदय नामक श्रावक प्रमुख था। वह धर्म प्रचारक कार्य में सहयोगी था।

एक बार देवसूरि ने सपादलक्ष (सांभर) में विहरण करने के उद्देश्य से यात्रा प्रारंभ की। मध्यवर्ती ग्रामों का स्पर्श करते हुए वे आबू पहुंचे। आबू की चढ़ाई करते समय पाटण नरेश का मंत्री अंबाप्रसाद भी उनके साथ था। मंत्री अंबाप्रसाद को सांप ने काट लिया। अन्य किसी भी प्रकार की चिकित्सा का सहारा नहीं लेकर देवसूरि के पाद प्रक्षालित जल से सर्पदंशित स्थान को धोया। चरणोदक के स्पर्श से जहर उतर गया। लोग इस चामत्कारिक प्रयोग को देखकर विस्मित हुए। जन-जन की जबान पर देवसूरि का नाम गूंजने लगा। आबू की यात्रा सानंद संपन्न हुई।

यहां से देवसूरि का विहार सपादलक्ष (सांभर) की ओर होने वाला था। अंबादेवी ने साक्षात् प्रकट होकर उनको कहा "मैं बहुमान पूर्वक आपसे निवेदन करती हूं कि आपका इस समय पुनः पाटण की ओर विहार उपयुक्त है। गुरुदेव का आयुष्य आठ मास का बाकी है।" यह कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गई।

देवसूरि ने देवी के वचनों के आधार पर सपादलक्ष (सांभर) की यात्रा स्थगित कर आबू से गुजरात की ओर प्रस्थान किया। वे पाटन पहुंचे। गुरु-दर्शन करके प्रसन्न हुए। उन्होंने अंबादेवी के वचनों को गुरु के समक्ष निवेदन किया।

देवी वचनों से अपनी मृत्यु काल का बोध प्राप्त कर अभय वृत्ति के साधक मुनिचंद्रसूरि को आनंद की अनुभूति हुई।

एक दिन पाटण नगर में भागवत दर्शन को मानने वाला उद्भट विद्वान् देवबोध आया। कई शास्त्रार्थों में विजयी होने के कारण उसे अपनी ज्ञानशक्ति और वादशक्ति पर गर्व था। राजसभा के द्वार पर उसने एक लघु पट्टिका लटका दी। जिस पर एक श्लोक लिखा हुआ था
*एक द्वित्रिचतुः पंचषण्मेनकमनेन काः।*
*देवबोधे मयि क्रुद्धे षण्मेनकमलेन काः।।63।।*
*(प्रभावक चरित्र, पृष्ठ 173)*

इस श्लोक का अर्थ करने के लिए नगर के सभी विद्वान् आमंत्रित थे। छह महीने बीत गए। कोई भी विद्वान् श्लोक का अर्थ नहीं बता सका। उस समय मंत्री अंबाप्रसाद ने सिद्धराज जयसिंह से निवेदन किया "राजन! सुज्ञशिरोमणि आचार्य वादीदेवसूरि स्तुति श्लोक का अर्थ करने में समर्थ हैं।" मंत्री की सलाह पर नरेश ने देवसूरि को राजसभा में आमंत्रित किया। राज निमंत्रण पर देवसूरि आए। गिरिनदी का प्रवाह जैसे पर्वतशीला को भेद देता है उसी प्रकार पंक्ति का भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्थ करके देवसूरि ने राजसभा में नरेश के समक्ष श्लोक की स्पष्ट व्याख्या की। सभी सभासद इस प्रकार की व्याख्या सुनकर प्रसन्न हुए। राजा भी संतुष्ट था। जैन धर्म की विशेष प्रभावना हुई।

मुनिचंद्रसूरि ने मृत्युकाल नजदीक जानकर अनशन किया। परम समाधि की अवस्था में उनका वीर निर्वाण 1648 (विक्रम संवत् 1178, ईस्वी सन् 1121) में स्वर्गवास हुआ। शासन देवी की बात सत्य प्रमाणित हुई।

*आचार्य वादिदेवसूरि की सपादलक्ष (सांभर) यात्रा का संक्षिप्त विवरण* प्राप्त करेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 53* 📜

*शोभाचंदजी बैंगानी (द्वितीय)*

*सेवाभावी श्रावक*

गतांक से आगे...

एक बार कालूगणी लाडनूं में विराजमान थे। शोभाचंदजी पूरे परिवार सहित सेवा करने के लिए वहां गए। वे जहां भी जाते वहीं उनसे मिलने वालों का प्रायः तांता लग जाया करता। किसानों से लेकर महाजनों तक हर जाति के व्यक्ति किसी न किसी कार्य से उनके यहां आते रहते। अन्य गांव से आए व्यक्तियों की भोजन व्यवस्था के लिए उनका 'रसोड़ा' प्रायः चालू ही रहता। एक दिन गोचरी कर लेने के पश्चात् किसी कार्यवश एक संत उनके वहां गए। उन्होंने देखा कि रसोई में आटा गूंधा जा रहा है। अपना कार्य करके जब वे वापस लौटे तो उन्होंने कालूगणी के पास शिकायत की कि शोभाचंदजी के यहां गोचरी के पश्चात् फिर रसोई बनाई जा रही है। यद्यपि कालूगणी जानते थे कि शोभाचंदजी ऐसे श्रावक नहीं है जो 'पश्चातकर्म दोष' लगाएं। अवश्य ही फिर भोजन बनाने के पीछे कोई आवश्यक कारण होगा। परंतु उन्होंने उस साधु को अन्य कोई बात कहकर यही कहा कि तुम वापस जाकर इस विषय की पूछताछ करो।

वे सन्त तत्काल वापस गए। सेठ ने उठकर वंदन किया और पुनः आगमन का कारण पूछा। मुनि ने अपनी आशंका व्यक्त करते हुए कहा— "तुम जैसे श्रावकों के यहां यह 'पश्चातकर्म' का दोष कैसे हो रहा है?" सेठ ने कहा— नहीं महाराज! मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं कि स्वयं दोषी बनूं और आपको भी दोषी बनाऊं। आप मकान के पीछे की ओर चलिए वहां आपकी यह आशंका स्वयं निर्मूल हो जाएगी।" वे उन्हें पीछे की ओर ले गए, यहां बाहर से आए हुए दस-पंद्रह व्यक्ति बैठे थे। उनकी ओर संकेत करते हुए सेठ ने कहा— "इतने तो आए हुए हैं, और कितने आएंगे इसका कोई पता नहीं। नवागंतुकों के लिए गोचरी के पश्चात् भोजन बनाया जाए तो वह कोई 'पश्चातकर्म' नहीं है।" मन की शंका मिट जाने पर वे मुनि वापस आए और सारी स्थिति कालूगणी से निवेदन कर दी।

*श्रावक शोभाचंदजी की साधर्मिक वात्सल्य वृत्ति* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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