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#आज का दिन बड़ा खास है आज से लगभग 146 साल पहले जैन धर्म में दिगंबर साधू की चर्या को पुनः स्थापित करने और सिंह के सामान निर्भीक होकर चर्या करने वाले इस पंचम काल में 35 साल की दीक्षा में 27 साल के उपवास करने वाले (इनमे जब वो आहार पर उठे और विधि नही मिली शामिल नही है) लगभग 9668 उपवास थे जिन्होंने अत्यंत घोर उपसर्गों को जैसे शेरो के द्वारा सांपो के द्वारा मनुष्यो के द्वारा किये गए उपसर्गों को समता भाव से शन किया और अपने आत्म बल को कभी भी कमजोर नही होने दिया जीवन के अंत में भी कुंथलगिरी सिद्ध क्षेत्र से 35 दिन की यम सल्लेखना(चारो प्रकार के आहार जल का त्याग कर समाधी की साधना)को स्वीकार किया इनकी पूरी जीवनी पंडित श्री सुमेरचंद दिवाकर जी ने चारित्र चक्रवर्ती नाम की किताब में लिखी है अवश्य पड़े उसी किताब का एक स्मरण याद है
कहते है की जिस समय पूरा भारत अंग्रेजो की गुलामी की जंजीरो में जकड़ा हुआ था उस समय इनके गुरु देवेन्द्र किर्ती जी ने स्थिति को देखते हुए समझोता कर लिया था जब वो आहार करने के लिए जंगल से बाहर आते थे तो कमर के निचे अधो वस्र को ग्रहण कर लेते थे ओर आहार के बाद पुनः जंगल में जाकर नग्न मुनि बनकर वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त ग्रहण करते थे ऐसा ही उन्होंने मुनि शांति सागर जी से भी करने को कहा लेकिन अपने नियम के पक्के शांति सागर जी ऐसा करने से मना कर दिया ओर कह दिया की चाहे समाधी को लेना पड़े पर अपने नियम चर्या और सिद्धांतो से कोई समझोता नही कहते है उनके गुरु पर इन बातो का बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने मुनि शांति सागर से कहा की में आज तुम्हे अपना गुरु मानता हूँ मुझे पुनः दीक्षा प्रदान करो अपने दीक्षा गुरु को पुनः दीक्षा दी और दिगम्बरत्व के संस्कार का निरूपण किया
ये इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी घटना थी इस दीक्षा के बाद उन्हें गुरुणागुरु की पदवी मिली थी पिछले 150 सालो के इतिहास में आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार और लिंग पाहुड के अनुसार पूर्णतया निर्दोष चर्या करने वाले महान साधक घोर उपसर्ग विजेता चारित्र चक्रवर्ती मुनि चर्या के पुनः संस्थापक वर्तमान के प्रथमाचार्य जिन्हें सबने स्वीकार किया है परम् पूज्य प्रातः स्मरणीय मेरी श्रद्धा के आराध्य देव आचार्य श्री शांति सागर जी के 149 जन्म जयंती के अवसर पर मुझ अज्ञानी का छद्मस्त का त्रियोग से कोटि 2
नमन वन्दन अभिन्दन
जैन धर्म के श्रमण और श्रावक प्राणिमात्र के कल्याण के ही उपदेश देते है अभी हाल में ही कुछ बंधुओं द्वारा गुरुओं की उपेक्षा कर के चातुर्मासिक कलश स्थापना बोली आदि की आलोचना की यद्यपि उन अल्पज्ञानियों को सत्य ज्ञात नहीं हैं जैन मुनियों की चर्या का पता नहीं है तथापि विवाद खड़ा करना उनका प्रिय शगल है।
जिन्हें स्वयं दानादिक नहीं करना है जो भी धनार्जन करना है वह स्वयं के मान और इन्द्रिय सुखों में लगाना है वे ही अज्ञानी इस प्रकार की आलोचना करते हैं।
अतः लेखन का सार यह है कि अपने गुरुओं के प्रति बहुमान रखते हुए उनके पुण्य निर्देशन में लौकिक और पारलौकिक कार्य करें तो निश्चित ही सभी सुखी होंगे ।
भगवान ऋषभदेव और महावीर ने मानव धर्म का उपदेश दिया, उनके उपदेश तिर्यंच,देव आदि की मुख्यता से नहीं बल्कि मनुष्य पर्याय की मुख्यता से थे, क्योंकि आत्मोन्नति की जो गुणस्थान रुपी 16 सीढियाँ है उनको मनुष्य ही चढ सकता है, तिर्यंचो के लिए भी प्रभु का उपदेश था पर मुख्यता मानव ही थे। हर वह मानव जो आत्मोन्नति चाहता है।
यह मानव धर्म सुनने के लिए,सुनाने के लिए या पूजा-पाठ के लिए नहीं था बल्कि आचरण के लिए था। श्रावक के लिए 11 प्रतिमारुप आचरण को धारण कर आगे बढते हुए क्रमशः 16 गुणस्थान रुपी सीढी चढकर शिवसौख्य की प्राप्ति ही वास्तविक धर्म है।
मुनि नियमसागर के प्रवचन से साभार (शिष्य- आचार्य विद्यासागर)
वो एक विदेशी महिला थी जो भारत सिर्फ मनोरंजन के लिये आयी थी और उसने सुन रखा था खजुराहो पर्यटन का बहुत रमणीक स्थान है जो इतिहास में अपनी एक विशेष पहिचान रखता है वहा के मंदिर की दीवारों पर बने आकर्षक भित्ति चित्रों में एक अनूठी कला का प्रत्यारोपण किया गया है जो पाश्चात्य संस्कृति को पसंद करने वाले लोगो को बहुत भाता, अपने आठ दिनों के भारत भृमण में उसने दिल्ली से सीधा खजुराहो का सफर तय किया और आगे 2 दिन रुक कर जयपुर अजमेर के पुष्कर आदि के घूमने का इरादा था सो एक गाइड के साथ देखते दिखाते वह शांतिनाथ भगवान के मंदिर को देखने पहुची ही थी कि कही दूर उसे आचार्य भगवंत की झलक दिखाई दी फिर तो जैसे वह दीवानों की तरह आगे पीछे होकर उन्हें देखने का प्रयास करने लगी
अब उसे और किसी चित्र को देखने मे मन ही नही लग रहा था वह तो उस जीवंत चित्र को देख कर उसे समझने का प्रयास कर रही थी सो उसने एक नही दो नही पूरे सात दिनों तक का समय वही खजुराहो में बिता दिया जबकि उसके आगे की सारी यात्राओं के टिकिट थे जो उसने निरस्त करा दिए, वह लगातार सात दिनों तक सातों पहर आगे पीछे घूमती रही और जिस दिन उसे वापिस जाना था उसके एक दिन पूर्व उसने सरकार में एक आवेदन दिया कि उसे कुछ दिनों ओर रुकने का समय चाहिये क्योंकि वह खजुराहो में आई तो थी घूमने किन्तु आचार्य भगवंत को देखने के बाद उसे लगता है भारत मे इनसे अच्छा और पवित्र संत शायद ही कोई हो जिसे देखा जाए और मन भर जाए
आचार्य विद्यासागर जी ऐसे संत जिनकी अलौकिक छवि ने विदेशियों के मन मे भी हलचल पैदा कर दी है और वे कहने लगे है कि संत है और खजुराहो में है
श्रीश ललितपुर
शंका समाधान पूज्य गुरुदेव मुनिपुंगवश्री #सुधासागर जी मुनिराज द्वारा
*1.क्या जैन साधू मोबाइल लेपटाॅप आदि चला सकते है ❓*
नहीं! साधू द्वारा मोबाइल लेपटॉप आदि चलाना जैन आगमानुसार गलत है।
2.मोबाइल चलाने में क्या गलती है ❓
समाधान- मोबाइल चलाने वाले साधू के पाँचो महाव्रत नष्ट हो जाते है जिससे श्रमण व्रतो से रहित हो जाता है। त्रैलोकपूज्य साधू जो प्रतिपल अपनी परिणति को विशुद्ध करने में लगा रहता है जिसको एक क्षण भी निज से बाहर जाना आत्मा का आघात के समान प्रतीत होता है वह अगर मोबाइल चलाएगा तो उसकी परिणति क्या होगी ऐसे साधू के तो सम्यक्त्व में भी शंका है, रत्नत्रय की तो बात दूर! क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव आगम विरुद्ध कार्य करने से डरता है मोबाइल लेपटाप चलाने वाले साधू 5चों महाव्रतो से भ्रष्ट है। वह तो नमोस्तु के अधिकारी भी नहीं है।
3. अगर किसी मुनि के पास मोबाइल हो तो क्या करना चाहिए ❓
मोबाइल छीन लेना चाहिए कोई दोष नहीं लगता जैसे बच्चा अगर गलत कार्य की जिद करे तो माँ उसे डाट देती है यह बच्चे के हित में हे ऐसे ही हमे जिनशासन के हित में जो कार्य आगमानुसार बताए हो उनको करना चाहिए।
4. क्या आगम में मोबाइल चलाने का निषेध है ❓
हाँ आगम में तिलतुषमात्र परिग्रह रखने वाले साधू को नरक-निगोद गर्मी बताया है जो श्रावक यह परिग्रह साधू को उपलब्ध कराता है वह भी नरक का पात्र है। ना ही मोबाइल वाले साधूओ के मोबाइल में बैलेंस डलवाना चाहिए क्योंकि इससे आपको साधू की साधूता की हत्या करने का पाप लगेगा क्योंकि वह इसका प्रयोग गलत कार्यों में करते है।
5. इस स्थिति में समाज क्या करे ❓
समाज ऐसे नियम बनाए कि हमारे यहाँ वही साधू ठहरेंगे तो मोबाइल लेपटाॅप पंखा कूलर आदि का त्याग करेंगे अगर कोई साधू चलाता है तो कमेटी उसके पास जाकर यह सब चीजे जब्त कर ले।
*🌐धर्म रक्षा के लिए श्रावको को चेतना होगा🌐*