10.05.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 10.05.2018
Updated: 14.05.2018

News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 321* 📝

*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द*

*साहित्य*

गतांक से आगे...

*युक्त्यनुशासनालंकृति* यह आचार्य विद्यानन्द की मध्यम परिमाण टीका है। इसकी रचना आचार्य समंतभद्र के युक्त्यनुशासन स्तोत्र पर हुई है। युक्त्यनुशासन स्तोत्र की 64 कारिकाएं हैं। प्रत्येक कारिका जटिल एवं गूढ़ है। इन जटिल कारिकाओं के कारण युक्त्यनुशासन जैसे दुरूह ग्रंथ में प्रवेश के लिए युक्त्यनुशासनालंकार ग्रंथ सरल राजपथ है। टीका की शैली प्रौढ़ है। आचार्य विद्यानन्द की यह रचना विशेष रूप से पठनीय है। आप्त परीक्षा और प्रमाण परीक्षा में इस ग्रंथ का उल्लेख है। अतः यह रचना उक्त दोनों परीक्षान्त ग्रंथों के बाद की है। इस टीका पर जुगलकिशोर मुख्तयार का हिंदी अनुवाद भी है।

*स्वतंत्र रचनाएं* आचार्य विद्यानन्द की छह स्वतंत्र रचनाएं हैं। टीका ग्रंथों की भांति उनकी स्वतंत्र रचनाएं भी गंभीर और विशेष पठनीय तथा माननीय हैं। उनका परिचय इस प्रकार है—

*विद्यानन्द महोदय* इस ग्रंथ का नाम इसकी गुरुता को प्रकट करता है। आचार्य विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि प्रायः ग्रंथों में अनेक स्थानों पर इस ग्रंथ का उल्लेख होने के कारण संभवतः यह प्रथम रचना है। ग्रनथान्तर्गत प्रतिपाद्य को विस्तार से जानने के लिए भी आचार्य विद्यानन्द ने 'विद्यानन्द महोदय' ग्रंथ की सूचना दी है। इससे स्पष्ट है यह विद्यानन्द महोदय विशाल ग्रंथ था और वह नाना प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण था। ग्रंथ में वस्तु वर्णन की विशद प्रस्तुति पाठकों के लिए विविध दिशाबोध में सहायक थी। आचार्य वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में नामोल्लेखपूर्वक विद्यानन्द महोदय ग्रंथ का एक वाक्य उद्धृत किया है—

*"महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारणं*
*हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः।*
*प्रतीयते' इति वदन् (विद्यानन्दः)*
*संस्कारधारणयोरेकार्थ्यमचकथत्।।"*

दिग्गज विद्वान् वादिदेवसूरि द्वारा किया गया यह उल्लेख भी विद्यानन्द महोदय ग्रंथ की विशिष्टता का द्योतक है। आचार्य वादिदेवसूरि विक्रम की 13वीं शताब्दी के विद्वान् थे। अतः इस समय तक प्रस्तुत ग्रंथ के होने का बोध होता है। वर्तमान में यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है।

*आप्त-परीक्षा* परीक्षान्त कृतियों में आप्त परीक्षा कृति प्रथम है। प्रमाण परीक्षा कृति में इस कृति का उल्लेख भी है। इस कृति की 124 कारिकाएं और 10 प्रकरण हैं। इन प्रकरणों में ईश्वर परीक्षा, कपिल परीक्षा, सुगत परीक्षा, परम पुरुष परीक्षा (ब्रह्माद्वैत परीक्षा) ये प्रकरण आप्त पुरुष के स्वरूप को समझने के लिए उपयोगी हैं। इन प्रकरणों के द्वारा ईश्वर, कपिल, सुगत और ब्रह्म परीक्षा तथा इनके स्वरूप का युक्तिपूर्वक विश्लेषण एवं विवेचन करने के बाद आप्त पुरुषों के आप्तत्व को सिद्ध किया गया है। प्रसिद्ध दार्शनिक स्व. पंडित अंबादास जी शास्त्री के अभिमत से ईश्वर कर्तृत्व की जैसी विशद, सबल एवं तर्कपूर्ण समालोचना आचार्य विद्यानन्द ने की है वैसी अन्य किसी ने की हो अब तक देखने में नहीं आई। उनकी आप्त परीक्षा बेजोड़ रचना है।

आचार्य विद्यानन्द की यह कृति संस्कृति वाङ्मय का रत्न है। इस दार्शनिक कृति में आप्त पुरुषों के आप्तत्व को भी तर्क-कषोपल पर परखा गया है।

*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द अन्य रचनाओं* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 145* 📝

*दुलीचंदजी दुगड़*

*पुत्र की प्रतिक्रिया*

शिवजीरामजी को तो दीक्षा का पता था। अतः उन्होंने उन समाचारों को सहज रूप से सुन लिया। परंतु दुलीचंदजी को पहले ही कुछ नहीं बतलाया गया था। अतः उन पर भयंकर प्रतिक्रिया हुई। बीस वर्ष की चढ़ती अवस्था और अक्खड़ स्वभाव के कारण वे एकदम उत्तेजित हो गए। जयाचार्य का उक्त कार्य उन्हें अपने लिए अत्यंत अपमानजनक प्रतीत हुआ कि उनकी आज्ञा के बिना उनकी मां को दीक्षित कर लिया गया। वे आपे से बाहर हो गए। कथनीय-अकथनीय का भेद भुलाकर जयाचार्य के विरुद्ध अंट-शंट बहुत कुछ बक गए। परिवारवालों तथा अनेक-अनेक व्यक्तियों ने उन्हें शांत करने एवं समझाने का प्रयास किया। परंतु उन्होंने किसी की कोई बात नहीं सुनी। उन पर तो बस एक ही सनक सवार हो गई कि वे अपनी मां को वापस लाएंगे। उन्होंने छह-सात मोहिल राजपूतों को अपने साथ चलने के लिए तैयार किया और शस्त्र सज्ज होकर 5 ऊंटों पर मेवाड़ की ओर चल दिए।

जयाचार्य उस समय राजनगर में थे। वे वहां पहुंचे तब उन्हें डाकू समझकर लोगों में भगदड़ मच गई। उन्होंने साधुओं के स्थान का पता लगाया और सीधे जाकर रुके। ऊंट से उतरकर दुलीचंदजी अंदर गए। न वंदन, न नमस्कार अकड़कर जयाचार्य नमस्कार जयाचार्य से पूछने लगे— "आपने मेरी आज्ञा के बिना मेरी मां को कैसे मूंड लिया?" जयाचार्य ने उनके उक्त प्रश्न से ही समस्त स्थिति के मर्म को समझ लिया। उन्होंने कहा— "दुलीचंद! हमें पूछने से पहले तुम अपनी मां से ही क्यों नहीं पूछ लेते कि उन्होंने दीक्षा क्यों ली?"

जयाचार्य की बात दुलीचंदजी को जंच गई। वे तत्काल साध्वियों के स्थान पर गए। महासती सरदारांजी के पास उनकी मां साध्वी गुलाबांजी भी बैठी थीं। उन्होंने इस प्रकार से दीक्षित होने के लिए उनको उपालंभ दिया और तत्काल वापस घर चलने को कहा। साध्वीश्री ने उनको बहुत समझाया परंतु उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महासती सरदारांजी ने बीच ही में पूछ लिया— "दुलीचंदजी! ये तो साध्वी बन चुकी है। अब इन्हें घर ले जाकर क्या करोगे? तुम मुझे यह बतलाओ कि इसके साध्वी बनने में तुम्हें आपत्ति क्या है?"

दुलीचंदजी ने कहा— "सबसे बड़ी आपत्ति यही है कि मेरी मां घर-घर टुकड़े मांगती फिरे, यह मुझसे सहन नहीं होता।"

महासती सरदारांजी ने कहा— "इतनी सी आपत्ति है तो इसका उपाय खोजा जा सकता है। इसके सिवाय अन्य कोई आपत्ति हो तो बतलाओ।"

दुलीचंदजी ने एक क्षण कुछ सोचा और फिर सिर हिलाते हुए कहा— "अन्य तो कोई आपत्ति नहीं है।"

महासती सरदारांजी ने कहा— "अभी गुरुदेव के पास जाती हूं और इनको गोचरी न भेजने के विषय में निवेदन करती हूं। तुम भी वहां दर्शन कर लो।"

साध्वी गुलाबांजी को साथ लेकर वे उसी समय जयाचार्य की सेवा में उपस्थित हुईं। दुलीचंदजी भी वहां पहुंच गए। महासती सरदारांजी ने जयाचार्य को निवेदन किया— "गुरुदेव! कृपा करके साध्वी गुलाबांजी को किसी के घर से कुछ भी मांग कर न लाने का आदेश दीजिए। इनकी हर आवश्यकता की पूर्ति हम दूसरी साध्वियां कर लेंगी। इससे दुलीचंदजी की आपत्ति भी समाप्त हो जाएगी।"

जयाचार्य ने दुलीचंदजी की ओर उन्मुख होकर पूछा— "क्यों दुलीचंद! ठीक है?"

दुलीचंद जी ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाते हुए कहा— "ठीक है।"

*क्या दुलीचंदजी की आपत्ति समाप्त हुई...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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