04.05.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 04.05.2018
Updated: 06.05.2018

Update

👉 साकरी - साध्वी श्री जी के सान्निध्य में कार्यशाला आयोजित
👉 जयपुर - मंगल भावना समारोह का आयोजन
👉 राजगढ़ - नशामुक्ति अभियान पर कार्यशाला का आयोजन
👉 राजगढ़ - सघन नशामुक्ति अभियान के तहत वाहन चालकों के मध्य विशेष कार्यशाला का आयोजन

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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👉 अणुव्रत महासमिति द्वारा
अणुव्रत समितियो के लिए
*मई माह का प्रकल्प*

🌀 प्रकल्प आयोजित करने का
सघन प्रयास काम्य है।

🍥 प्रस्तुति 🍥
*अणुव्रत सोशल मीडिया*

संप्रेषक - *संघ संवाद*

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Update

👉 लाडनूं - राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती सिंधिया मुनि श्री जयकुमार के दर्शनार्थ

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻

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👉 बल्लारी - अणुव्रत महासमिति राष्ट्रीय अध्यक्ष संचेती जी की संगठन यात्रा
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 316* 📝

*जिनवाणी संगायक आचार्य जिनसेन*

*साहित्य*

गतांक से आगे...

*आदिपुराण* महापुराण ग्रंथ के दो भाग हैं— *(1)* आदिपुराण, *(2)* उत्तरपुराण। आदिपुराण में आदिनाथ ऋषभदेव का जीवन चरित्र है। उत्तरपुराण में 23 तीर्थंकरों के जीवन चरित्र का वर्णन है। आदिपुराण के 47 पर्व हैं और 12000 (बारह हजार) पद्य हैं। जिनसेन ने आदिपुराण के 42 पर्व और 43वें पर्व के 3 (तीन) श्लोक रचे। इसके बाद उनका स्वर्गवास हो गया। आदिपुराण के अवशिष्ट भाग की रचना जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने की। आदिपुराण के 12000 लोगों में से 10380 श्लोकों की रचना जिनसेन ने की है। 1620 श्लोक गुणभद्र द्वारा रचित हैं। इस काव्य की रचना बंकापुर में हुई थी।

यह आदिपुराण महाकाव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण हैं। सुभाषितों का यह भंडार है। वीररस, श्रृंगाररस, शांतरस आदि रसों का आनंद इस काव्य में है। पदलालित्य, शब्द-सौष्ठव, सालंकारिक भाषा और विभिन्न छंदों के प्रयोग ने इस काव्य को अतिशय रमणीयता प्रदान की है।

*समय संकेत*

आचार्य जिनसेन का समय अधिक विवादास्पद नहीं है।

जयधवला टीका की परिसमाप्ति आचार्य जिनसेन ने शक सम्वत् 759 तदनुसार वीर निर्वाण 1364 एवं विक्रम सम्वत् 894 में की थी। इस आधार से स्पष्ट है पंचस्तूपान्वयी आचार्य जिनसेन वीर निर्वाण 14वीं (विक्रम संवत् 9वीं) शताब्दी के विद्वान् थे।

*गणनायक आचार्य गुणभद्र के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 140* 📝

*संतोषचंदजी सेठिया*

*नरेश से संबंध*

गतांक से आगे...

खान-पान से निवृत होने के पश्चात् डूंगरसिंहजी ने उनको अपनी तात्कालिक आवश्यकता बतलाई। सेठियाजी ने अपना ऊंट सजाकर तत्काल उपस्थित कर दिया। उस पर सरकारी 'छेवटी' (मखमली झूल) लगाकर पिलाण रखा गया। ऊंट पर आगे डूंगरसिंहजी को बिठाया और संतोषचंदजी स्वयं पीछे बैठे। उन्होंने ऊंट को ऐसा तेज चलाया कि 3-4 घंटों में ही लगभग 25 कोस (50 मील) की दूरी पार कर डाली। बीकानेर से सामने आया हुआ लवाजमा उन्हें मार्ग में मिल गया। महाराज डूंगरसिंहजी उनके साथ सानंद बीकानेर पहुंच गए। संतोषचंदजी भी बीकानेर गए। वे महारावज जी वाले बैद गुमानसिंहजी के वहां ठहरे। वे उस समय बीकानेर राज्य के प्रधान थे। सरकारी 'पिलाण' और 'छेवटी' को उन्हीं के यहां संभला कर संतोषचंदजी वापस रीड़ी चले गए।

नरेश सरदारसिंहजी कुछ दिनों पश्चात् दिवंगत हो गए। तब डूंगरसिंहजी ने राज्य भार संभाल लिया। एक दिन प्रधान गुमानसिंहजी ने नरेश से कहा— "सेठियाजी ने राज्य में जमा करा देने के लिए 'छेवटी' और 'पिलाण' मेरे घर पर छोड़ा है, जहां की आज्ञा हो वहीं जमा करा दूं।" नरेश किंचित मुस्कुराए और कहने लगे— "बनिया भोला ही लगता है। इन वस्तुओं को अब कहीं जमा कराने की आवश्यकता नहीं है, इन्हें उसी के घर भेज दिया जाए। उस समय हमारा सहयोग करने की स्मृति में वह इन्हीं अपने पास सुरक्षित रखेगा।" राजाज्ञा के अनुसार प्रधानजी ने तब उन दोनों वस्तुओं को संतोषचंदजी के पास भेज दिया। वे अब भी उनके पारिवारिकों के पास स्मृति स्वरूप सुरक्षित हैं।

*डूंगरगढ़ की नींव*

राज्य प्राप्ति के पश्चात् शीघ्र ही नरेश डूंगरसिंहजी ने संतोषचंदजी को बीकानेर बुलाया और कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए सम्मानित किया। उसी अवसर पर नरेश के नाम पर डूंगरगढ़ बसाने का निर्णय किया गया। महाजनों को उधर आकृष्ट करने, नगर की प्रारंभिक व्यवस्था और देखरेख करने का भार संतोषचंदजी को दिया गया। उन्होंने सर्वप्रथम तनसुखदासजी भादाणी और हरखचंदजी चोपड़ा आदि अपने परिचित 4 परिवारों को वहां बसने के लिए तैयार किया। उनके वहां आवागमन पर संवत् 1936 में श्रीडूंगरगढ़ की नींव रखी गई।

संवत् 1936 में महाराज डूंगरसिंहजी ने संतोषचंदजी को रामसही का रुका प्रदान किया। उसके अनुसार उन्हें 1001 बीघा भूमि खेती के लिए और 25 बीघा भूमि नगर में बसने के लिए दी गई। उनके किसी वाहन या व्यक्ति को वेगार में पकड़े जाने से मुक्त कर दिया। इतना राजकीय सम्मान और सुविधाएं प्राप्त होने के बावजूद सेठियाजी रीड़ी को नहीं छोड़ पाए। वे आजीवन वहीं रहे। नरेश से निवेदित कर उन्होंने डूंगरगढ़ में बसने के लिए दी गई 25 बीघा भूमि भी पृथक न लेकर खेती की 1026 बीघा भूमि ली। कालांतर में उनके पुत्रों ने रीड़ी को छोड़ दिया और श्रीडूंगरगढ़ को ही अपना स्थाई निवास स्थान बना लिया।

*संतोषचंदजी सेठिया की व्यवहार पटुता के बारे में बीदासर में घटित एक रोचक प्रसंग* के माध्यम से जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 मानसा - आचार्य श्री महाश्रमणजी का 45वां दीक्षा दिवस का आयोजन
👉 हुबली - *महासमिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री संचेती द्वारा हुबली समिति का पुनर्गठन*
👉 गांधीधाम - आचार्य श्री महाश्रमण जी का जन्मोत्सव, पटोतसव व दीक्षा दिवस का आयोजन
👉 कोलकाता, पूर्वांचल - युवा दिवस पर अहिंसा रैली का आयोजन
👉 विजयवाड़ा - तेयुप द्वारा युवा दिवस पर कार्यक्रम
👉 हैदराबाद - जैन संस्कार विधि के बढ़ते चरण
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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👉 *"अहिंसा यात्रा"* के बढ़ते कदम

👉 पूज्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ विहार करके *"V. Payakaraopeta "* पधारेंगे

दिनांक 04/05/2018

प्रस्तुति - *संघ संवाद*

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Sources

Sangh Samvad
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