09.04.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 09.04.2018
Updated: 10.04.2018

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#Share_max...सुविधा भोगी संतों, मठाधीशो,फेशियल कराकर desiner तिलक लगाकर,रेशमी स्टाइलिश कपडे पहनकर आलिशान पंडालो में बैठकर टीवी चैनलो पर ज्ञान पेलने वालों,धर्म की आड़ में अपना व्यापार चलने वालों, दिखावे के लिए भजनों की धुन पर केवल ठुमके लगवाने वालो, काम क्रोध लोभ मोह के सबसे करीब रहने वालों, त्याग तपस्या के बजाये सोने चांदी की मालाओ को धारण करने वालोकुछ सीखो आचार्य श्री से...

तप की पराकाष्ठा..... आचार्यश्री के श्रीचरणों में पड़े फफोले...

आजकल भारत भूमि पर धार्मिकता का वातावरण छाया हुआ है। धार्मिक आवरण धारण किए बड़े-बड़े तिलकधारी गुरुजन और दाढ़ी-टोपी वाले उलेमा अक्सर ख़बरिया चैनल्स पर धर्म की डिबेट करते देखे जा सकते हैं। सब अपने-अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में जी-जान लगा रहे हैं। ख़बरिया चैनल्स भी कम धर्ममय नहीं है। अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय जैसे कई प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं। मठ-मंदिर, मुक्तिधाम से लेकर क़ब्रिस्तान तक की काली रात में शूटिंग करके कुछ भी परोसा जा रहा है। चैनल्स पर उन धर्मगुरुओं को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है जिनके बयानों से देश की कौमों के बीच सनसनी फैल जाए, यानी सनसनी, आक्रोश, उन्माद और तनाव फैलाने की कोशिश की जा रही। या फिर उन साधु-संतों को दिन भर दिखाया जाता है जो अनैतिकता में लिप्त हैं। परंतु उन्हें बिलकुल स्थान नहीं दिया जा रहा है जो आज भी कठिन तप में स्वयं को तपा रहे हैं।

भारत की धरा पर एक महासंत वर्तमान में विद्यमान है। इस युग के तपस्वियों की परंपरा में अग्रण्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज आज भी कठिन तपस्या कर रहे हैं।आचार्यश्री के तप की पराकाष्ठा तो देखिए उनके श्रीचरणों में बड़े-बड़े फफोले पड़ गए हैं फिर भी वे फफोलों के भयंकर दर्द को साक्षी भाव से लेते हुए अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं। छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ से क़रीब पचपन किलोमीटर पहले छुईखदान में आचार्यश्री का अल्प पड़ाव हुआ। जहाँ किसी ने उनके श्रीचरणों में पड़े फफोलों की फ़ोटो उतर ली और वायरल कर दी। आचार्यश्री भोपाल से गमन के बाद जबलपुर पहुँचे थे। गत 14 मार्च को यहाँ से गुरुदेव का विहार हो गया था। अब तक 255 किलोमीटर की पदयात्रा तय कर छुई खदान पहुँचे हैं। यह पूरी यात्रा तपते मार्गों पर हुई है लिहाज़ा उनके श्रीचरणों में फफोले पड़ गए हैं। बावजूद इसके उनके श्रीमुख पर शांति और मुस्कुराहट के भाव देखे जा सकते हैं। आधुनिक युग में तपस्या की इससे बड़ी मिसाल कहाँ मिलेगी फिर मीडिया ऐसे सिद्ध महासंत के तप से बेख़बर हैं। त्याग, अहिंसा, शांति और मानवता का संदेश देने वाले इस महान संत के फफोलों को देखकर न केवल जैन बल्कि हर धर्मपरायण का दिल टीस से भर गया। कई तो फफक कर रो पड़े। देश जिस दौर से गुज़र रहा है उस दौर में ऐसे महान संत के उपदेशों को तरजीह दी जाना चाहिए।

Source: © Facebook

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जन्मदिन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का...

आज पंचमकाल के अंतिम मुकुटबद्ध चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्मदिन है।🙏🏻

👉🏻चन्द्रगुप्त मौर्य मोरिय क्षत्रिय राजवंश से थे इनके पिता मोरिय जाति के कबीले के मुखिया थे।

👉🏻पिता की मृत्यु के बाद उनकी माँ अपने भाई के यहाँ पाटलिपुत्र आ गई जहाँ वैशाख कृष्णा ८ सन् 340 ईसा पूर्व के दिन चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ।

👉🏻चन्द्रगुप्त बचपन से ही मेधावी थे।

👉🏻चन्द्रगुप्त का शिक्षार्जन चाणक्य के सहयोग से तक्षशिला विद्यापीठ में हुआ।

👉🏻नंद सम्राट महापद्मनंद,यूनानी सम्राट सिकंदर जैसे यौद्धाओ को चन्द्रगुप्त ने पराजित कर भारत को पुनः अखंड स्वरुप प्रदान किया इनका राज्य दक्षिण में मैसूर तक था।

👉🏻चन्द्रगुप्त मौर्य का राजधर्म जैन था उनका राज्याभिषेक भी जैन विधि से हुआ था

👉🏻चन्द्रगुप्त ने आचार्य भद्रबाहु से दिगंबर जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की व पैदल विहार करते हुए उज्जैन,गिरनार, काठियावाड़,महाराष्ट्र होते हुए श्रवणबेलगोळा की कटवप्र पहाड़ पहुचे।

वहाँ आचार्य भद्रबाहु की सल्लेखना सम्पन्न हुई। सल्लेखना के समय मुनि चन्द्रगुप्त अपने गुरु के पास ही थे।

👉🏻एक परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मुनि की सल्लेखना भी श्रवणबेलगोळा की चन्द्रगिरि पहाड़ पर ही हुई थी।(सल्लेखना-297 ईसा पूर्व)

👉🏻चन्द्रगिरि पहाड़ के चन्द्रगुप्त बसदि में अभी भी चन्द्रगुप्त मौर्य की कहानी पत्थर पर जालान्ध्र के रुप में वर्णित है।

👉🏻चन्द्रगुप्त मौर्य हमारे लिए आदर्श है उन्होने पंचमकाल के आरम्भ में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर प्रयाण किया।

*महामुनि चन्द्रगुप्त के चरणारविन्द में शतशः नमोस्तु*

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#आप_माता_पिता_की_द्वितीय_संतान_हो_कर_भी_अद्वितीय_संतान_है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।

विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने, उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।

गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।

वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं।

आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलियाँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।

बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।

आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग 1 वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।

ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा - सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।

गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।

किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले - “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

टीम सम्यक्त्व🙏

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