09.04.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 09.04.2018
Updated: 09.04.2018

Update

👉 किल्पाक, चेन्नई: "सुखी और स्वस्थ जीवन के रहस्य" विषय पर कार्यक्रम का आयोजन
👉 सी- स्कीम जयपुर - नि:शुल्क चिकित्सा शिविर आयोजित
👉 जयपुर - अणुव्रत समिति, दिल्ली की पदाधिकारी टीम दर्शनार्थ पहुंची
👉 गांधीधाम - अभातेयुप के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं महामंत्री की संगठन यात्रा
👉 कानपुर - निर्माण एक नन्हा कदम स्वच्छता की ओर कार्यक्रम आयोजित
👉 मानसा - जैन संस्कार विधि से सामूहिक जन्मदिवस का कार्यक्रम आयोजित

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 299* 📝

*अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र*

*साहित्य*

गतांक से आगे...

धर्म संग्रहणी ग्रंथ में पांच प्रकार के ज्ञान का वर्णन, सर्वज्ञसिद्धि समर्थन तथा चार्वाकदर्शन का युक्ति पुरस्सर निरसन है। सम्यक् दर्शन (सम्यक्त्व) का विवेचन आचार्य हरिभद्र के 'दंसण सुद्धि' (दर्शन शुद्धि) ग्रंथ में है।

सावग धम्म (श्रावक धर्म) और सावगधम्मसमास (श्रावक धर्म समास) इन दोनों कृतियों में श्रावक धर्म की शिक्षाएं तथा बारह व्रतों का विवेचन है।

भगवान् महावीर की अनेकांत दृष्टि को स्पष्ट करने वाली अनेकांतजयपताका व अनेकांत प्रवेश अत्यंत गंभीर रचनाएं हैं। ये दर्शन जगत् में समादृत हैं।

षड्दर्शन समुच्चय में भारत के प्रमुख छह दर्शनों का उल्लेख तथा उनके द्वारा सम्मत सिद्धांतों का प्रामाणिक निरूपण है। नास्तिक धारा को भी आस्तिक धारा के समक्ष प्रस्तुत कर उन्होंने उदारता, सदाशयता और तटस्थता का परिचय दिया है।

उनका श्रेष्ठग्रंथ कथाकोष कथाओं का दुर्लभ भंडार था जो वर्तमान में नहीं है।

'समराइच्चकहा' उनकी प्रसिद्ध प्राकृत रचना है। शब्दों का लालिल्य, शैली का सौष्ठव, सिद्धान्त-सुधापान कराने वाली कान्त पदावली एवं सौंदर्य-प्रसाद तथा माधुर्य गुणों का दर्शन इस कृति में है।

लोकतत्त्वनिर्णय, श्रावकप्रज्ञप्ति, अष्टकप्रकरण, पंचाशक, पंचवस्तु प्रकरण टीका आदि अनेक ग्रंथों के रूप में साहित्य-जगत् को आचार्य हरिभद्र की अमर देन है।

आचार्य हरिभद्र का युग पक्षाग्रह का युग था। उस समय में भी उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट उद्घोष किया–

*पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु।*

आचार्य हरिभद्र स्पष्टवादी थे। उन्होंने संबोध-प्रकरण में उसे युग में व्याप्त शिथिलाचार के प्रति करारा प्रहार किया।

हरिभद्र का साहित्य उत्तरवर्ती साहित्यकारों के लिए आधार बना। उनकी 'समराइच्चकहा' को पढ़कर आचार्य उद्योतन के मन में भी ग्रंथ रचना की प्रेरणा जागी। उसकी परिणति कुवलयमाला के रूप में हुई। उनकी टीकाओं ने संस्कृत में आगम व्याख्या लिखने का मार्ग प्रशस्त किया। शिलांक, अभयदेव, मलयगिरि आदि टीकाकारों, विद्वानों के लिए प्रेरणा-स्रोत उनका टीका साहित्य है। उनकी योग संबंधी नई दृष्टि ने योग के संदर्भ में सोचने का नया क्रम दिया। योग पल्लवन की दिशा में यशोविजयजी को उत्साहित करने वाली हरिभद्रसूरि की यौगिक कृतियां हैं।

हरिभद्रसूरि ने जंतु विशेष द्वारा रचित जीर्ण-शीर्ण पुस्तक से निशीथ सूत्र का उद्धार किया।

*श्रावक आचार्य हरिभद्र का साहित्य रचना में किस प्रकार सहयोग करते थे...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 123* 📝

*लच्छीरामजी बैद*

*कलकत्ता में*

लच्छीरामजी बैद राजलदेसर निवासी सुप्रसिद्ध श्रावक उम्मेदमलजी के ज्येष्ठ पुत्र थे और वहीं पर अपने मौसा खड़गसिंह बैद के यहां गोद चले गए थे। उनका जन्म विक्रम संवत् 1880 के लगभग हुआ। जेसराजजी और मेघराजजी उनके छोटे भाई थे। लच्छीरामजी के चाचा दानसिंहजी बाल्यावस्था में ही मुर्शिदाबाद गोद चले गए थे। वे 15-16 वर्षों पश्चात् ज्येष्ठ भ्राता उम्मेदमलजी से मिलने के लिए राजलदेसर आए। उस समय तक उनके कोई संतान नहीं हुई थी अतः वापस जाते समय भतीजे जेसराजजी को गोद ले कर अपने साथ ले गए। मुर्शिदाबाद में उन्होंने दानसिंह जेसराज नाम से व्यापार प्रतिष्ठान प्रारंभ किया। चार वर्ष पश्चात् उनके पुत्र हो गया। उस स्थिति में जेसराजजी को डेढ़ लाख रुपए देकर उन्होंने पृथक् कर दिया। जेसराज जी तब कलकत्ता चले गए और 'उम्मेदमल जेसराज' नाम से व्यापार करने लगे। दो वर्ष पश्चात् उन्होंने लच्छीरामजी को भी वहां बुला लिया और तीनो भाई के साझे में वह कार्य रख लिया। जेसराजजी व्यापार कुशल व्यक्ति थे। परंतु उन्होंने आयुष्य बहुत स्वल्प पाया। विक्रम संवत् 1919 में 32 वर्ष की युवावस्था में ही उनका देहांत हो गया। उनके एकमात्र पुत्र जयचंदलालजी उस समय केवल पांच वर्ष के थे।

लच्छीरामजी राजलदेसर के श्रावकों के मुखिया थे और राजकीय स्तर पर वहां के मुंहता थे। वे स्थानीय कार्यों में ही अधिक रुचि रखा करते थे, परंतु जेसराजजी की मृत्यु के पश्चात् उन्हें कलकत्ता के व्यापार कार्य पर अधिक ध्यान देना पड़ा। यद्यपि व्यापार कार्य में वे विलंब से संलग्न हुए थे, फिर भी अपने अनुभव और वाक्-कौशल के आधार पर बहुत शीघ्र सफल व्यापारी बन गए। उन्होंने व्यापार प्रतिष्ठान का नाम बदलकर 'खड़गसिंह लच्छीराम' कर दिया। कार्य को ऐसे त्वरित गति से बढ़ाया कि कुछ ही वर्षों में लगभग 35 लाख की संपत्ति अर्जित कर ली। उन्होंने गया, नाटोर, अडंगाबाद, चंपाइ, नवाबगढ़ आदि अनेक स्थानों पर व्यापार शाखाएं प्रारंभ कीं। सभी स्थानों पर विक्रम संवत् 1939 तक तीनों भाइयों का साझे में कार्य चलता रहा।

*लच्छीरामजी बैद ने राज्य-परित्याग किस कारण से किया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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दिनांक: 09/04/2018

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