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अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
गलती या भूल का उपचार है प्रायश्चित्त: आचार्यश्री महाश्रमण
-आचार्यश्री ने ‘ठांण’ आगमाधारित प्रवचन में प्रायश्चित्त को बताया उपचार
-आचार्यश्री ने साधु को अपनी अमल-धवल चद्दर को निर्मल बनाए रखने की दी प्रेरणा
-तेरापंथ प्रबोध का भी आचार्यश्री ने सरस शैली में किया वाचन
12.09.2017 राजरहाट, कोलकाता (पश्चिम बंगाल)ः जन-जन का कल्याण करने वाले, लोगों को सद्भावना, नैतिकता, नशामुक्ति की राह दिखाने वाले, जीवन को शांत, सुखद बनाने की प्रेरणा प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को अध्यात्म समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रायश्चित्त के माध्यम से आदमी को अपनी गलती को सुधार कर अपनी भावात्मक शुद्धि करने का ज्ञान प्रदान किया। साथ ही आचार्यश्री ‘तेरापंथ प्रबोध’ का सरस शैली में प्रस्तुति दी और लोगों को पावन उत्प्रेरणा प्रदान की।
मंगलवार को राजरहाट स्थित महाश्रमण विहार में स्थित अध्यात्म समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने अपनी मंगलवाणी से ‘ठाणं’ आगम के आधार पर लोगों को प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में भूल या गलती हो सकती है। दुनिया में शायद ऐसे लोग मिलने मुश्किल जिनसे कोई भूल ही न हो। वीतरागी आत्मा ही ऐसी हो सकती है, जिससे कोई भूल न हो। आमतौर पर आदमी गलतियों का पुतला होता है। आदमी से भूल या गलती होना स्वभाविक है। जिस प्रकार आदमी के बीमार होने पर दवा उसका उपचार बनती है और वह बीमारी से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार लिए गए नियमों के अनुपालन में कोई गलती या भूल हो जाए तो प्रायश्चित्त एक उपचार का काम करती है और आदमी को पुनः एकबार शुद्धता प्रदान करने वाली हो सकती है।
साधु से त्याग-नियमों आदि की अनुपालना में कोई गलती या कोई भूल हो जाए उसे प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए। साधु के अमल-धवल चद्दर पर कोई दाग नहीं लगने देने का प्रयास करना चाहिए। यदि कोई दाग-धब्बा लग गया तो प्रायश्चित्त लेकर अपनी धवलता को पुनः स्थापित किया जा सकता है। आचार्यश्री ने साधुचर्या के दौरान प्रतिदिन दो प्रतिक्रमण में प्रायश्चित्त आने की बात बताते हुए कहा कि साधु के लिए प्रतिक्रमण एक स्नान की तरह है, जो उसके भावों को शुद्ध बना सकती है। प्रतिक्रमण दोष शुद्धि का एक सुन्दर उपाय है। आचार्यश्री ने प्रायश्चित्त के चार प्रकारों में प्रथम प्रायश्चित्त-ज्ञान प्रायश्चित्त का वर्णन करते हुए कहा कि ज्ञान के द्वारा आदमी के पापों का नाश होता है और शुद्धि प्राप्त हो सकती है। प्रायश्चित्त में ज्ञान की साधना हो जाती है तो प्रायश्चित्त का एक आधार ज्ञान भी हो जाता है। दूसरा प्रायश्चित्त दर्शन प्रायश्चित्त होता है। आदमी को भक्ति से भी प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। अर्हतों की उपासना, दर्शन आदि के द्वारा भी प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। आचार्यश्री ने अपने मंगल प्रवचन के दौरान ‘प्रभु म्हारै मन मंदिर में पधारो’ गीत का संगान किया।
आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त ‘तेरापंथ प्रबोध’ का भी सरस शैली में व्याख्यान किया और लोगों को धार्मिक-आध्यात्मिक प्रेरणाएं प्रदान कर उन्हें अपने जीवन को शुद्ध, निर्मल का पावन पाथेय प्रदान किया।