27.09.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 27.09.2018
Updated: 28.09.2018

Update

👉 लाडनूं: जैन विश्व भारती की नवगठित टीम के सम्मान में "स्वागत समारोह" का आयोजन
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 434* 📝

*अप्रमत्तविहारी आर्यरक्षितसूरि*
*(अंचल गच्छ संस्थापक)*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

एक दिन कपर्दी श्रेष्ठी हेमचंद्र आचार्य को उत्तरासंग (वस्त्र के अंचल) से विधिपूर्वक वंदन कर रहा था। उस समय गुजरात नरेश कुमारपाल वहीं थे। हेमचंद्राचार्य से कुमारपाल ने इस विधि के रहस्य का ज्ञान कर आर्यरक्षितसूरि के गच्छ को अंचलगच्छ के नाम से उद्घोषित किया।

एक बार अंचलगच्छ संस्थापक आर्यरक्षितसूरि के पट्टधर श्री जयसिंहसूरि अणहिल्लपुर पाटण में विराजमान थे। जयसिंहसूरि की नियमों के प्रति सजगता एवं वचन दृढ़ता के आधार पर पाटण के नरेश कुमारपाल ने उनके गच्छ को अचलगच्छ के नाम से संबोधित किया था, परंतु उसकी प्रसिद्धि अंचलगच्छ के नाम से हुई। आज भी आर्यरक्षितसूरि द्वारा स्थापित विधिपक्षगच्छ की पहचान अंचलगच्छ के नाम से है। अंचलगच्छ नामकरण का समय पट्टावालीकारों ने वीर निर्वाण 1683 (विक्रम संवत् 1213) माना है।

अंचलगच्छ में साध्वी समयश्री महत्तरा के पद पर प्रतिष्ठित हुई। साध्वी समयश्री ने श्रीसंपन्न परिवार को छोड़कर पूर्ण वैराग्य से संयम दीक्षा ग्रहण की थी।

आर्यरक्षित के प्रमुख भक्त यशोधन भंसाली ने इस गच्छ के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से योगदान दिया। अंचल गच्छ की पट्टावलियों में प्राचीन ग्रंथ और शिलालेखों में यशोधन भंसाली का गौरवपूर्ण उल्लेख है।

आर्यरक्षितसूरि का धर्म प्रचार कार्य में आपेक्षात्मक नीति से बचने का प्रयत्न रहता था। उनकी कोई आलोचना करता उसको भी वे समता से सहन करते थे।

तटस्थ भाव से आर्यरक्षितसूरि ने धर्म का प्रचार किया एवं जैन शासन की प्रभावना की।

वर्धमानसूरि द्वारा सुविहितमार्गी परंपरा का उद्भव चैत्यवासियों के विरोध में एक क्रांतिकारी चरण था। अंचलगच्छ की स्थापना से सुविहितमार्गी की परंपरा में व्याप्त शिथिलाचार के विरोध में पुनः एक नई क्रांति का जन्म हुआ था।

*समय-संकेत*

वीर वंश पट्टावली (भावसागरसूरि रचित) के अनुसार आर्यरक्षितसूरि का जन्म विक्रम संवत् 1136, में दीक्षा विक्रम संवत् 1142 में, आचार्य पद एवं विधिपक्षगच्छ (अंचलगच्छ) की स्थापना विक्रम संवत् 1169 में हुई। उनका स्वर्गवास विक्रम संवत् 1236 में तिमिर नगर में हुआ। उनकी कुल आयु 100 वर्ष की थी।

मेरुतुंग शतपदी के अनुसार अंचलगच्छ संस्थापक आर्यरक्षितसूरि का स्वर्गवास वीर निर्वाण 1696 (विक्रम संवत् 1226) में 91 वर्ष की अवस्था में हुआ।

मुनि लाखा रचित गुरु पट्टावली के अनुसार आर्यरक्षित का स्वर्गवास 100 वर्ष की उम्र में रेणा नदी के तट पर हुआ।

अंचलगच्छ संस्थापक आर्यरक्षितसूरि वीर निर्वाण 17वीं-18वीं (विक्रम की 12वीं-13वीं) शताब्दी के विद्वान् आचार्य थे।

*जिनधर्मानुरागी आचार्य जयसिंहसूरि के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 88* 📜

*चिमनीरामजी कोठारी*

*साधुभूत श्रावक*

चिमनीरामजी कोठारी विष्णुगढ़ (टमकोर) के निवासी थे। वे अत्यंत धर्मनिष्ठ और श्रद्धाशील श्रावक थे। उनकी धार्मिक साधना बड़ी कठोर थी। एक गृहस्थ के लिए उन जितना आत्म-संकोच कर पाना प्रायः दुष्कर ही होता है। उन्हें यदि साधुभूत कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सरल प्रकृति, भद्र व्यवहार, लोभ वृत्ति से दूर, मोह-ममता का अल्पीभाव, रस-गृद्धि से मुक्त और कषाय की प्रतनुता— इनमें से एक-एक गुण भी जहां व्यक्ति को अध्यात्म क्षेत्र में उन्नत और महत्त्वपूर्ण बना देता है, वहां चिमनीरामजी में ये सभी गुण एक साथ विद्यमान थे। "अभाव में स्वभाव बिगड़ जाता है" यह कहावत उनके लिए उपयुक्त नहीं ठहरती थी। विवशता से प्राप्त अभाव के लिए शायद वह उपयुक्त हो सकती है, परंतु उन्होंने तो जानबूझकर स्ववशता से अभाव को ग्रहण किया था। विवशता से प्राप्त अभाव जहां मनुष्य को अत्यंत दुःखी और दरिद्र बना देता है, वहां स्ववशता से समझ-बूझकर ग्रहण किया हुआ अभाव उसे संतुष्ट, सुखी और महान् बना देता है। उन्होंने श्रावक के बारह व्रत अत्यंत कसी हुई सीमा के साथ ग्रहण कर रखे थे।

*अल्प परिग्रही*

आजीविका के निमित्त वे बंगाल के मेमनसिंह जिले (अब बांग्लादेश में) के एक छोटे गांव में व्यवसाय करते थे। छोटी दुकान, थोड़ा सामान और अल्प आय ही उन्हें अभीष्ट थी। वे अपने माल का एक ही मूल्य रखा करते थे, अतः उनकी व्यावसायिक सत्यता आसपास में सर्वत्र प्रसिद्ध थी। लोग उन्हें प्रायः 'एक दरिया' (एक भाव) वाले नाम से जानते थे। बालक, स्त्री, वृद्ध अथवा युवा चाहे कोई भी क्रयार्थ उनकी दुकान पर जाता, वे उसे समान भाव पर ही माल दिया करते थे। दर-मोलाई करने को उन्होंने कभी उचित नहीं समझा।

शरीर की अन्न-वस्त्र आदि साधारण आवश्यकताएं पूर्ण हो सकें, केवल उतना ही अर्थ उपार्जन करने का उनका लक्ष्य रहा करता था। संग्रह के नाम पर 20 रुपये से अधिक एकत्रित करने का उन्हें त्याग था। अपनी आवश्यकता का अन्य सामान भी वे उतना ही रखते थे, जितना कि स्वयं अपने कंधों पर एक साथ उठाकर ले जा सकते। सामान के नाम पर उनके पास प्रायः निम्नोक्त वस्तुएं रहती थीं—
काशी का एक गिलास, चीनी मिट्टी का एक प्याला, पीतल का एक तसला, एक ऊनी बनात, एक धोती, एक चादर, एक मुखवस्त्रिका, पूंजणी और आसन। बस इतनी सी वस्तुएं उनके दैनिक जीवन में प्रयोग के लिए पर्याप्त हुआ करती थीं।

*साधुभूत श्रावक चिमनीरामजी कोठारी के रसना-विजय व एक अभिग्रह* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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