02.03.2015►Patiala ►Acharya Tulsi Memorial Lecture

Published: 18.04.2015
Updated: 30.07.2015
02.03.2015
Punjabi University, Patiala

दिनांक 02 मार्च, 2015 को पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में आचार्य तुलसी स्मारक व्याख्यानमाला के अन्तर्गत प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा प्रस्तुत व्याख्यान

‘आचार्य तुलसी स्मारक व्याख्यान माला’ का आज का विवेच्य विषय इस प्रत्यय को व्यक्त करता है कि जैन धर्म का एक पूर्व अथवा अपेक्षाकृत प्राचीन स्वरूप था और उसके बाद उससे भिन्न परवर्ती स्वरूप है। इस विचार से यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि इनके कालगत स्वरूप भिन्न हैं। एक अपेक्षा से यह विचार तार्किक नहीं है, संगत नहीं है

(1) सबसे पहले तो यह सवाल किया जा सकता है कि ‘जिन’ एवं ‘जैन’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग तो भगवान महावीर के बाद में लिखे गए ग्रंथों में ही मिलता है। ‘जिण’ (जिन) शब्द का प्रयोग ‘दशवैकालिक’ में ‘सोच्चाणं जिण सासणं’, ‘सूत्रकृतांग’ में ‘अणुत्तरं धम्म मिणं जिणाणं’ तथा उत्तराध्ययन में ‘जिणवयणे अणुस्ता जिणवयणं जे करोति भावेण निणवमय’ में हुआ है। ‘जैन’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग तो भगवान महावीर के बहुत बाद जिनभद्रगणी क्षमा क्षमण कृत ‘विशेषावश्यक भाष्य’ में ही मिलता है। जैन धर्म की महावीर-पूर्व परम्परा से अनजान होने के कारण कुछ इतिहासकारों ने भगवान महावीर को ही जैन धर्म का संस्थापक मान लिया। हम अपने अनेक लेखों में प्रमाण सहित यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक या संस्थापक नहीं हैं अपितु प्रवर्तमान अवसर्पिणि काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। यह अब सर्वमान्य है कि आदिनाथ या ऋषभदेव प्रवर्तमान अवसर्पिणि काल के प्रथम तीर्थंकर हैं। यहाँ हमारा उद्देश्य जैन धर्म की भगवान महावीर से पहले की परम्परा की विवेचना करना नहीं है। हम केवल यह संकेत करना चाहते हैं कि जैन धर्म के भगवान महावीर के पहले के नामों अथवा अभिधानों का अस्तित्व अब अनुमान पर आश्रित नहीं है। यह इतिहास के द्वारा अनुमोदित तथ्य है। श्रमण परम्परा, आर्हत् धर्म एवं निर्ग्रंथ (निगंठ) धर्म इसके वाचक रहे हैं। हमने इस सम्बंध में जो अनेक लेख लिखे हैं, उनमें प्रतिपादित विचारों से जो विद्वान अवगत होना चाहते हैं, वे निम्न लिंक पर जाकर अध्ययन कर सकते हैं।

http://www.scribd.com/doc/22566494/Antiquity-of-Jainism

(2) दूसरा सवाल धर्म के अर्थ को लेकर उठाया जा सकता है। जैन परम्परा की दृष्टि से धर्म शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है।

(क) वस्तु का स्वभाव धर्म है।

(ख)धर्म उत्कृष्ट मंगल है। धर्म प्रत्येक प्राणी का मंगल करता है। भगवान महावीर ने धर्म की परिभाषा दी - धम्मो मंगलमुक्किटठं। आचरण को ध्यान में रखकर इसका भाष्य है कि धर्म अहिंसा, संयम और तपरूप है। धर्म की इन परिभाषाओं के आलोक में भी जैन धर्म के स्वरूपगत परिवर्तन पर विचार सम्भव नहीं है।

क्या प्रस्तुत विषय पर विचार नहीं किया जा सकता? जैन दर्शन की तत्वबोध की दृष्टि मुझे इस विषय पर विचार करने की प्रेरणा प्रदान करती है। जैन तत्वबोध की दृष्टि को जानना जरूरी है। जो तत्व, पदार्थ अथवा द्रव्य है वह सत है - ‘सत दव्वं वा’। कालचक्र चलता रहता है। लोक और अलोक - ये दोनों पहले से हैं और अनन्तकाल तक हैं। दोनों शाश्वत हैं। जगत अनादि से है और अनन्तकाल तक रहेगा। इसकी मूलवस्तु अनादि-निधन है। चेतना या आत्मा भी अनादिनिधन है; भौतिक पदार्थ भी अनादि-निधन है। कोई किसी को न तो उत्पन्न करता है न किसी का विनाश करता है। मूलवस्तु न तो उत्पन्न होती है और न कभी उसका विनाश होता है। गीता में कहा गया है - ‘नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः’। असत की उत्पत्ति नहीं होती और सत का सर्वथा अभाव नहीं होता।

एक दृष्टि ‘सत’ तत्व को कूटस्थ नित्य मानती है। वह अचल है, अपरिवर्तनीय है, शाश्वत है। वह अपरिवर्तनीय है इस कारण उसमें किसी प्रकार का परिणाम या विकार नहीं होता। यह दृष्टि सत तत्व को पारमार्थिक मानती है। यह दृष्टि देशकाल कृत विशेषों अथवा आभासों को व्यावहारिक मानती है। व्यावहारिक होने के कारण विशेषों को अपारमार्थिक मानती है। विशेषों अथवा आभासों में किसी परम तत्व का अंश नहीं मानती। विशेषों अथवा आभासों को अज्ञान या अविद्या के कारण कल्पित मानती है; मिथ्या मानती है। इनमें जो सत्व भासित होता है वह उनका अपना नहीं है। यह आभास अखंड एवं अभिन्न मूल तत्व के अस्तित्व से सद्रूप प्रतीयमान है। केवल मूल अधिष्ठान का अस्तित्व है, उसकी ही सत्ता है। सत्ता है, इस कारण वही सत है। मूल अधिष्ठान ही पारमार्थिक है, शाश्वत है, कूटस्थ नित्य है, ध्रुव है।

इसके विपरीत विश्व को देखने की एक अन्य दृष्टि यह मानती है कि कोई कूटस्थ नित्य नहीं है। कोई ध्रुव नहीं है। कोई शाश्वत नहीं है। संसार चक्र चल रहा है। विश्व परिवर्तनशील है। विश्व की प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक अवयव में परिवर्तन हो रहा है। प्रतिक्षण प्रति पदार्थ में बदलाव हो रहा है। विश्व की सभी वस्तुएँ-स्कंध, आयतन और धातु रूप में-, विभक्त हैं। सभी अनित्य हैं। सभी क्षणिक हैं। विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण चंचला के समान परिवर्तनशील है, नश्वर है, क्षणिक है।

इस प्रकार एक दृष्टि ‘सत’ को अविनाशी, अव्यय, निर्विकार, नित्य, अचल एवं ध्रुव मानती है। दूसरी दृष्टि ‘सत’ को विनाशी, उत्पाद-व्यय युक्त, विकारी, अनित्य, परिणामी मानती है।

जैन दर्शन विरोधी विचार दृष्टियों के बीच समन्वय स्थापित करता है। भगवान महावीर के वचनों को पढ़ने से पता चलता है कि उन्होंने उन्मुक्त दृष्टि से विचार किया। उन्होंने उदार एवं सहिष्णु होकर चिंतन किया। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से सम्पूर्ण सत्य को पहले विभक्त किया, विश्लेषित किया। पदार्थ के अनेक गुणों को एक-एक करके आत्मसात किया। इसके बाद पदार्थ को संश्लिष्ट दृष्टि से देखा। समग्र सत्य को पहचाना। उन्होंने देखा कि एक अपेक्षा से पदार्थ अविनाशी है तो दूसरी अपेक्षा से वह विनाशी है। एक दृष्टि से पदार्थ में बदलाव हो रहा है; उत्पाद-व्यय हो रहा है, दूसरी दृष्टि से जिस पदार्थ में उत्पाद-व्यय हो रहा है वह पदार्थ वहीं है; ध्रुव है। एक दृष्टि से पदार्थ नित्य है। पदार्थ के गुण की दृष्टि से नित्य है। दूसरी दृष्टि से पदार्थ अनित्य है। देशकाल आदि के द्वारा जो परिणामी एवं परिवर्तित हो रहा है वे उसके रूप आदि का परिवर्तन है। वे उसकी पर्याय हैं। भगवान महावीर ने इसी कारण अपने प्रथम प्रवचन में कहा कि ‘सत’ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है:

‘‘सद् द्रव्य लक्षणम। उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत’’। (तत्त्वार्थ सूत्र, 5/29-30)

द्रव्य (पदार्थ) का लक्षण सत है। जो सत है उसकी सत्ता है, उसका अस्तित्व है। अस्तित्व गुण के कारण पदार्थ अविनाशी है। उसका कभी विनाश नहीं होता। पदार्थ को द्रव्य भी कहा गया है। इस कारण वह हमेशा बहता रहता है, सदा एक रूप नहीं रहता, एक रूप से दूसरे रूप में बदलता रहता है, अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। अवस्थाओं का परिवर्तन पदार्थ की पर्याय हैं।जिसकी सत्ता है, जिसका अस्तित्व है वह ध्रुव है। उसका कभी विनाश सम्भव नहीं है। मगर जिसकी सत्ता है, उसकी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। कोई जन्म लेता है। जन्म लेता है तो मरता भी है। जन्म से मृत्यु के बीच की अवस्थाओं में परिवर्तन प्रत्यक्ष है। जिसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है, वह तो वही रहता है। इसी प्रकार वर्तमान जन्म, विगत जन्म, आगत जन्म तो अवस्थाओं की स्थितियाँ हैं। उनमें जो जन्म लेता है वह तो स्वरूप से सदा स्थित है, ध्रुव है, नित्य है, निरंतर है।

अवस्थाओं में परिवर्तन उत्पाद-व्यय रूप है, अनित्य है, परिणामी है। नवीन अवस्था का प्रकट होना उत्पाद है। उत्पाद के समय ही पूर्व अवस्था का विनाश होना व्यय है। अनादि एवं अनन्तकाल तक जो सदा स्थिर एवं मूल स्वभाव है, वह पदार्थ है। जिसका उत्पाद एवं व्यय नहीं होता, वह ध्रौव्य है। त्रिकाल की अपेक्षा से ‘सत’ ध्रुव है। पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय होता रहता है। नवीन पर्याय उत्पन्न होती है। पुरानी पर्याय नष्ट होती है। इस दृष्टि से पदार्थ नित्य भी है तथा अनित्य भी है। सामान्य स्वरूप की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है। पदार्थ जो पहले समय में था वही दूसरे समय में भी होता है। इस अपेक्षा से पदार्थ अव्ययी, अविनाशी एवं नित्य है। उत्पन्न एवं विनाश के होते रहने पर भी पदार्थ में जो पदार्थत्व बना रहता है वह उसका गुण है। पदार्थ में जो उत्पाद-व्यय होता रहता है वह परिणमन उसकी पर्याय हैं। इस अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है। इस प्रकार जैन दर्शन पदार्थ / द्रव्य का लक्षण निम्न प्रकार से प्रतिपादित करता है:

(1) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण ‘सत’ अर्थात सत्ता है।

(2) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है।

(3) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण गुण-पर्याय आश्रित है:-

आचार्य कुन्दकुन्द का प्रसिद्ध कथन है:-

दव्वं सल्लवक्खणियं उत्पाद व्यय ध्रुवत्तर्सजुतं।

गुणपज्ज या सयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू।। (आचार्य कुन्दकुन्द - पंचास्तिकाय, गाथा 10)

जैन धर्म की अवस्थाओं में परिवर्तन की दृष्टि से विचार करना ही आज विवेच्य है। जैन धर्म के कालगत स्वरूप में परिवर्तन अथवा भिन्नता का अभिप्राय जैन धर्म के अनुयायियों के आचरण, व्यवहार और मान्यताओं में बदलाव से अधिक है।

भगवान महावीर एवं उनके पूर्व भगवान पार्श्वनाथ

भगवान पार्श्वनाथ का जन्म भगवान महावीर के निर्वाण से 250 वर्ष पूर्व हुआ था और उनकी आयु 100 वर्ष थी। (527+250= 777 ईस्वी पूर्व)। अतः पार्श्वनाथ का समय ई0पू0 877-777 ठहरता है। भगवान महावीर एवं गौतम बुद्ध के समय पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं के व्यापक प्रभाव के उल्लेख मिलते हैं। आवश्यक सूत्र निर्युक्ति में वर्णित है कि जब भगवान महावीर कुमारक सन्निवेश पधारे तो उद्यान में ध्यानावस्थित हो गए। उनके शिष्य गोशालक जब बस्ती में गए तो वहाँ उन्होंने कूपनय नामक एक धनाढ्य कुम्भकार की शाला में पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्य मुनिचन्द्र को अपने शिष्यों सहित देखा।

(आवश्यक सूत्र निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पूर्वभाग गा0 477, पत्र संख्या 279)

जैन आगमों में पार्श्वसंतानीय निर्ग्रंथ श्रमण केशीकुमार का अपने वृहत शिष्य समुदाय के साथ महावीर के संघ में प्रविष्ट होने का उल्लेख है। उनका गणधर गौतम के साथ हुए विस्तृत वार्तालाप का भी उल्लेख है जिसमें वे दोनों इस बात पर भी विचार करते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने तो चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया था मगर स्वामी वर्द्धमान (भगवान महावीर) पाँच शिक्षा रूप धर्म का उपदेश देते हैं।

(उत्तराध्ययन सूत्र अ. 23)

पार्श्वानुगामी अन्य साधुओं के भी उल्लेख आगमों में मिलते हैं। जैन परम्परा महावीर के माता-पिता को भी पार्श्वापत्यीय (पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बंध रखने वाले) श्रावक मानती है। यद्यपि महावीर ने अपना धर्मसंघ बनाया तथापि उन्होंने भी यह सदैव स्वीकार किया कि जो पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है, वही वे कह रहे हैं।

(व्याख्या प्रज्ञप्ति, श. 5, उद्दे. 9, सू0 227)

कुछ इतिहासकार राजा श्रेणिक की वंश परम्परा को पार्श्व से सम्बन्धित मानते हैं। डॉ. जायसवाल ने लिखा है कि राजा श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध आए थे। काशी में उनका वही राजवंश था जिसमें तीर्थंकर पार्श्व पैदा हुए थे।

(देखें - डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल - भारतीय इतिहास: एक दृष्टि, पृ0 62)

डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित त्रिपिटक से एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया है जिससे यह निश्चित होता है कि वे बोधि प्राप्ति के पूर्व पार्श्व परम्परा से सम्बद्ध रहे थे। मज्झिम निकाय के महासिंहनाद सुत्त में वर्णित है कि भगवान बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहा - ‘‘सारिपुत्र! मैं बोधि प्राप्ति के पूर्व, दाढ़ी, मूँछों का लुंचन करता था, खड़ा रहकर तपस्या करता था, उकड़ू बैठकर तपस्या करता था, नंगा रहता था, हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिए हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था"।

(डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी - भगवान बुद्ध, पृ0 67-69)

इस संदर्भ के आधार पर डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी एवं पं0 सुखलाल ने इस धारणा को व्यक्त किया है कि बुद्ध कुछ समय के लिए पार्श्वनाथ की परम्परा में रहे थे। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस मत से अपनी सहमति प्रकट की है। (विशेष अध्ययन के लिए देखें - (क) डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी - पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ0 28-31 (ख) पं0 सुखलाल - चार तीर्थंकर, पृ0 140-141 (ग) डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी - हिन्दू सभ्यता - अनु0 डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली), पृ0 239)।

डॉ.रामधारी सिंह दिनकर ने जैन धर्म की परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ की देन को इन शब्दों में व्यक्त किया है -

‘‘श्रीकृष्ण के समय से आगे बढ़ें, तब भी, बुद्ध देव से कोई ढाई सौ वर्ष पूर्व हम जैन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ को अहिंसा का विमल संदेश सुनाते पाते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि पार्श्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किन्तु पार्श्व मुनि ने उसे सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ बाँधकर सर्व साधारण की व्यावहारिक कोटि में डाल दिया।

(डॉ. रामधारी सिंह दिनकर-संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 126)

हमारा विषय न तो गौतम बुद्ध एवं भगवान पार्श्वनाथ के सम्बंधों का विवेचन करना है और न ही भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता तथा उनके योगदान की मीमांसा करना है। निर्ग्रंथ धर्म के उपदेशक भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों एवं भगवान महावीर के उपदेशों के अन्तर का प्रतिपादन करना ही इस समय इष्ट है।

भगवान पार्श्वनाथ ने चार मुख्य उपदेश दिए। इस कारण भगवान पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं। पार्श्वनाथ ने सामयिक चारित्र धर्म की शिक्षा चातुर्याम (चार विरतियों) के रूप में दी -

1. सर्व-प्राणातिपात-विरमण

हिंसा से विरति

2. सर्व-मृषावाद-विरमण

असत्य से विरति

3. सर्व-अदत्तादान-विरमण

चौर्य से विरति

4. सर्व-बहिद्धादान-विरमण

परिग्रह से विरति

भगवान पार्श्वनाथ के समय में धर्म साधक अत्यन्त ऋजु, प्रज्ञ एवं विज्ञ थे तथा वे स्त्री को भी परिग्रह के अंतर्गत समझकर बहिद्धादान में उसका अन्तर्भाव करते थे। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपने समय की परिस्थितियों के संदर्भ में ब्रह्मचर्य व्रत का अलग से उल्लेख किया। उन्होंने छेदोपस्थानीय चारित्र अर्थात विभागयुक्त चारित्र की व्यवस्था की। पूज्यपाद (वि0सं0 5-6 शताब्दी) ने महावीर के विभाग-युक्त चारित्र का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है - "भगवान महावीर ने चारित्र धर्म के तेरह विभाग किए। पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ। ये विभाग उनके पूर्व नहीं थे"।

तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषा निमित्तोदयाः

पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानी व्यपि

चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परै-

राचारं परमेष्ठिनो जिनमते वीरान् नमामो वयम्।।

(पूज्यपाद, चारित्र भक्ति, 7)

महावीर का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उन्होंने उग्र तपस्या करके संघर्षों को सहज रूप से झेलने का एक मानदंड स्थापित किया तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया।

कर्मबंधन से मुक्ति का मार्ग (मोक्षमार्ग)

संयासी का लक्ष्य है - मोक्ष। संयासी के लिए आचरण का प्रतिमान कर्मबंधन से मुक्त होना है। मोक्ष का अर्थ है - अकर्मा होना। प्राचीन जैन शास्त्रों में, मोक्षमार्ग के लिए सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन तथा सम्यग् चारित्र्य का क्रम है। सम्यग् ज्ञान = आत्मा को जानना। दूसरे शब्दों में आत्मा एवं अनात्मा के अन्तर का ज्ञान होना। सम्यग् दर्शन = आत्मा का दर्शन करना। साधना की इस परिणत अवस्था में साधक को आत्म-स्वरूप की झलक मिलने लगती है। सम्यग् चारित्र्य = आत्मा में रमण करना। साधक का आत्मस्थ हो जाना। श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन में यह क्रम मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा यह मानती है कि उत्तराध्ययन में प्राचीन रचनाओं का समावेश है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य धरसेन को ‘द्वादशांग’ के दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत विभाग के अग्रायणीय पूर्व के अंश का ज्ञान था। इन्होंने अग्रायणीय के 14 भेदों में से पाँचवे भेद ‘चयनलब्धि’ के चौथे ‘कर्मप्रकृतिपाहुड’ के प्रथम 5 अधिकारों का ज्ञान अपने दो शिष्यों - आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि को प्रदान किया। दोनों आचार्यों ने प्राप्त ज्ञान को प्राकृत भाषा में सूत्र शैली में निबद्ध किया। आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि द्वारा लिपिबद्ध यह ग्रंथ छह खंडों में विभक्त है। इस कारण यह ‘षट्खण्डागम’ के नाम से जाना जाता है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि उपयोग की बाह्य प्रवृत्ति का नाम ज्ञान है तथा उपयोग की आभ्यंतर प्रवृत्ति का नाम दर्शन है। दूसरे शब्दों में ज्ञान के बाद दर्शन का क्रम है। (जैन दर्शन में उपयोग आत्मा का बोधरूप व्यापार है। यह ज्ञान-दर्शन है। पाँच प्रकार के ज्ञान, तत्त्वार्थ दर्शन, सुख दुख की अनुभूति से बोधरूप व्यापार सम्पन्न होता है। यह जीव का स्वसंवित धर्म है। यह सभी जीवों में होता है। जीव के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ में नहीं होता) आचार्य धरसेन का समय भगवान महावीर के निर्वाण से 614 वर्ष बाद माना जाता है। इस दृष्टि से आचार्य धरसेन का समय (614 - 527) सन् 87 ईस्वी के लगभग ठहरता है। आचार्य उमास्वामी अथवा उमास्वाति का समय ईसा की दूसरी सदी मानी जाती है। आचार्य उमास्वामी ने मोक्ष मार्ग का निरूपण सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान एवं सम्यग् चारित्र्य के क्रम से किया है:

सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः।।

(तत्त्वार्थसूत्र, 1/1)

आचार्य उमास्वामी ने यह माना कि इन तीनों का एकत्व ही मोक्ष मार्ग है। स्व एवं पर के भेद की प्रतीति होना सम्यग् दर्शन है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान एवं केवलज्ञान सम्यग् ज्ञान है। कर्म रहित होने के लिए सम्यग् आचरण करना सम्यग् चारित्र्य है।

उपर्युक्त ग्रंथ के बाद में जो टीकाएँ लिखी गयीं, उनमें जीव आदि पदार्थों के प्रति श्रद्धा होने को सम्यग् दर्शन कहा गया। इसकी ऐसी भी टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें सम्यग् दर्शन का अर्थ जैन शास्त्रों के प्रति श्रद्धावान होना है।

जैन शब्द का अर्थ

जैन धर्म के प्राचीन शास्त्रों में वर्णित है कि ‘जैन’ वह है जो जिन बनने के लिए अर्थात अपनी इंद्रियों को जीतने के लिए तदनुरूप आचरण करता है। जो इन्द्रियों को जीतने में विश्वास कर तदनुरूप आचरण करता है, वही जैन है। जैन दर्शन ऐन्द्रिक अनुभूतियों में रागद्वेष हीनता की स्थिति के निर्माण की साधना है, विश्व में विद्यमान पदार्थों में व्याप्त होकर भी अपनी पृथक आत्मा की सत्ता के एकत्व की अनुभूति करना है। विकारों से भिन्न स्वरूप, स्वभाव, एकरूप का साक्षात्कार कर शुद्धात्मा का परमात्मा बनना है। जैन धर्म प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा बनने के अधिकार प्रदान करता है। यहाँ आत्म-साक्षात्कार की साधना ही साध्य है, आत्म शक्ति ही उपास्य है। जब राग-द्वेष आदि विकारमूलक भावों का अन्त हो जाता है तो पर-द्रव्य का नवीन बंध नहीं होता। कर्म-परिस्पन्दों का आत्मा की ओर आगमन तो होता है किन्तु ये आत्मा से बंध नहीं पाते। नए बंधों के आगमन की धारा का निरोध हो जाता है। तत्पश्चात अवशिष्ट कर्मबंधो को निःशेष करना होता है।

जैन धर्म की मान्यता है कि अंधी आस्तिकता एवं भाग्यवाद के सहारे नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से ही आत्म-साक्षात्कार सम्भव है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र्य की निर्मल, निर्दोष आराधना द्वारा क्रमिक विकास करता हुआ जीव जब तेरहवें गुण स्थान में प्रवेश करता है तो सर्वप्रथम मोहनीय कर्मक्षीण होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीनों घाती कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। इसका सहज परिणाम यह होता है कि आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र्य और अनन्त वीर्य की महाज्योति जगमगा उठती है। इस स्थिति में मन, वचन, काया रूप योगों की प्रवृत्ति चलती रहती है। सोचना, बोलना तथा शरीर-व्यापार होता रहता है। जब जीव तेरहवें गुण स्थान को छोड़कर चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होता है तब सब व्यापार समाप्त हो जाते हैं। उस स्थिति में अवशिष्ट अघाती कर्म - 5. वेदनीय 6. नाम 7.गोत्र 8. आयु भी समाप्त हो जाते हैं। यहाँ आकर आत्मा सर्वथा निष्कर्म हो जाती है। जीव का कर्मों के आवरण से सर्वथा मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। सम्पूर्ण कर्मों का नाश ही मोक्ष है। सांसारिक दुखों और आवागमन से पूर्णतः छूटकर ‘‘स्वरूप’’ में रमण करना ही मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा का परमात्मा बनना। जैन दर्शन जीवात्मा-इकाई को ही ‘‘परमात्मा’’ के समस्त गुण प्रदान करता है। साधना की सिद्धि परमात्मा में लय या विलीन होने में नहीं; परमात्मा हो जाने में है। यह जैन धर्म की सम्प्रदाय-मुक्तता की स्थिति है। जैन शब्द की इस अर्थवत्ता के अनुसार किसी भी सम्प्रदाय में प्रव्रजित व्यक्ति मुक्त हो सकता है। इस स्थापना में सम्प्रदाय के बीच व्यवधान डालने वाली खाइयों को पाटने का प्रयत्न है। कोई भी सम्प्रदाय किसी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन दे सकता है, यदि वह व्यक्ति धर्म से अनुप्राणित हो। कोई भी सम्प्रदाय किसी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन नहीं दे सकता, यदि वह व्यक्ति धर्म से अनुप्राणित न हो।

मगर जब धर्म सम्प्रदाय बन जाता है तो शब्द के अर्थ बदल जाते हैं। परवर्ती मान्यता हो गई कि जो जैन तीर्थंकरों की उपासना करता है, जो जितेन्द्रियों का भक्त हो, वह जैन है।

उत्तारवाद बनाम अवतारवाद

जैन धर्म अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। जैन धर्म उत्तारवाद का समर्थन करता है। प्राणी मात्र उत्तरोत्तर विकास कर, आत्म साक्षात्कार कर, परम पद की प्राप्ति कर सकता है। पूर्व जन्मों में महावीर एक संसारी जीव मात्र थे। वे न तो ‘अमरत्व के अधीश्वर’ थे और न सच्चिदानन्द स्वरूप, अरूप, अव्यक्त, अनाम, अनंत, निर्विकल्प, निरवयव तथा देशकाल परिच्छेद रहित ब्रह्म। उनका जन्म निर्गुण से सगुण तथा निराकार से साकार होने की घटना नहीं है। उनका जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनके जीवन-चरित का इतिवृत्त एक सामान्य जीव का अपने विकारों पर चरम पुरुषार्थ एवं तप, त्याग, साधना द्वारा विजय प्राप्त करने के बाद निज स्वरूप को प्राप्त करने की गाथा है। इस कारण उनका जीवन आकाश से पृथ्वी पर उतरना नहीं है। पृथ्वी से उत्तरोत्तर विकास करते हुए इतना उठना है कि इसके बाद उठने की कोई सीमा ही शेष न रहे। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है।

आज जैन भजनों में भगवान महावीर को ‘अवतारी’ मानकर उनका जयगान हो रहा है। जैन धर्म में तीर्थंकरों की पूजा का विधान मिलता है। मगर पूजा का उद्देश्य है - आराध्य की उपासना के द्वारा उनके गुणों को आचरण में उतारना। व्यवहार में जैन समाज को मानने वाले भी सुख की प्राप्ति अथवा किसी सांसारिक सफलता प्राप्त करने के लिए भगवान की भक्ति करने लगे हैं।

कर्मवाद बनाम भक्तिवाद

जैन धर्म कर्मवाद का धर्म था। इसमें भक्तिवाद कहाँ से आ गया। इसके आचरणगत स्वरूप में इस बदलाव का मूल कारण क्या है। इसको जो विद्वान भारत की साधना परम्परा के बृहत संदर्भ में समझना चाहते हैं, उनके लिए विचार-सूत्र है कि वे विचार करें कि मध्यकाल के पूर्व भारतीय साधना का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति था। मुक्त होना था। निर्वाण पाना था। मगर मध्यकाल में भारत की प्रत्येक धर्म की साधना के लक्ष्य में परिवर्तन दिखाई देता है। मध्यकाल की धर्म परम्पराओं ने मोक्ष का अतिक्रमण करके भक्ति को साधना का साध्य मान लिया। सम्भवतः इसी कारण जैन धर्म में भी स्वरूपगत परिवर्तन दिखाई देते हैं।

धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं। इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्त्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं। धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढकने का बार-बार प्रयास करते हैं। इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्य आचार ले लेते हैं। पाखंड बढ़ने लगता है। कदाचार का पोषण होने लगता है।

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए विश्वबन्धुत्व की भावना का पल्लवन आवश्यक है। विश्व के सभी लोग इस पृथ्वी रूपी जहाज पर सवार सहयात्री हैं। सहयोग एवं मैत्री की इस भावना से शान्ति आन्दोलन के प्रति प्रतिबद्ध शक्तियों को संगठित एवं पुनर्बलित करने की आवश्यकता है। इस भावना के विकास की आवश्यकता है कि यह पूरी दुनिया अन्ततः एक है। यदि विश्व-शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना खण्डित होती है तो अशांति की ज्वाला पूरे विश्व को भस्मीभूत कर देगी। शान्ति एवं सद्भावना के विकसित एवं परिपुष्ट होने पर हमारी यह धरती ही स्वर्ग बन जायेगी।

देवता बाहर नहीं है, हमारी अन्तश्चेतना में है। अपनी अन्तश्चेतना की दिव्य ज्योति को प्रखर करने की आवश्यकता है। आज के युग ने मशीनी सभ्यता के चरम विकास से सम्भावित विनाश के जिस राक्षस को उत्पन्न कर लिया है वह किसी यंत्र से नहीं अपितु ‘अहिंसा-मन्त्र’ से ही नष्ट हो सकता है।

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प्रोफेसर महावीर सरन जैन

सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान

भारत सरकार

123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर - 203001

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