07.09.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.09.2019
Updated: 24.09.2019

👉 *विकास महोत्सव के अवसर पर आचार्य श्री महाश्रमण द्वारा घोषित चारित्रात्माओं व समण श्रेणी के लिए चातुर्मास पश्चात विहार-प्रवास संबंधित दिशा-निर्देश*

दिनांक 07-09-2019

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻

👉 रायगंज (वे.ब.) - पर्युषण महापर्व में विभिन्न कार्यक्रम का आयोजन
👉 नागपुर - तेरापंथ युवक परिषद का शपथ ग्रहण समारोह

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 विकास महोत्सव के अवसर पर पूज्य प्रवर आचार्य श्री महाश्रमण द्वारा रचित गीत

प्रसारक -🌻 *संघ संवाद* 🌻

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 32* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*47. धर्माधर्मौ पुण्यपापे, अजानन् तत्र मुह्वति।*
*धर्माधर्मौ पुण्यपापे, विजानन् नात्र मुह्वति।।*

भगवान ने कहा— जो व्यक्ति धर्म-अधर्म तथा पुण्य-पाप को नहीं जानता, वही इस विषय में भ्रांत होता है। जो इनको जानता है, वह इस विषय में भ्रांत नहीं होता।

*48. द्विधा निरूपितो धर्मः, संवरो निर्जरा तथा।*
*निरोधः संवरस्यात्मा, निर्जरा तु विशोधनम्।।*

धर्म की प्रज्ञापना के दो प्रकार हैं— संवर और निर्जरा। संवर का स्वरूप है— असत् और सत् प्रवृत्ति का निरोध। निर्जरा का स्वरुप है— विशोधन, कर्म का क्षय।

*49. सन्तोऽसन्तश्च संस्काराः, निरुद्धयन्ते हि सर्वथा।*
*क्षीयन्ते सञ्चिताः पूर्वं, धर्मेंणैतच्च तत्फलम्।।*

संवर धर्म से असत् और सत् संस्कार सर्वथा निरुद्ध होते हैं तथा निर्जरा धर्म से पूर्व संचित संस्कार क्षीण होते हैं। धर्म का यही फल है।

*50. असन्तो नाम संस्काराः, सञ्चीयन्ते नवाः नवाः।*
*अधर्मेणैतदेवास्ति, तत्फलं तत्त्वसम्मतम्।।*

अधर्म से नए-नए असत् संस्कारों का संचय होता है। अधर्म का यही तत्त्वसम्मत फल है।

*51. संस्कारान् विलयं नीत्वा, चित्वा तानन्तरात्मनि।*
*क्रियामेतौ प्रकुवार्ते, धर्माधर्मौ निरन्तरम्।।*

संस्कारों का विलय करके और उनका अंतरात्मा में संचय करके— ये धर्म और अधर्म निरंतर क्रियाशील रहते हैं।

*पुण्य और पाप का मुख्य परिणाम... पुण्य और पाप के उदय में हेतुभूत तथ्य... क्या अर्थ की संपन्नता या विपन्नता का हेतु धर्म या अधर्म है...? धर्म का मुख्य फल... आत्म-तुलावाद सम्मत क्यों...?* इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 121* 📖

*बदलाव के नियम को जानें*

मनुष्य का यह है चिरंतन प्रयत्न रहा— जीवन निर्विघ्न और निर्बाध बने। ऐसे जीवन के निर्माण के लिए उसने अनेक उपाय खोजे हैं। आगम साहित्य में कहा गया— जब कोई जीव जन्म लेता है तब पहले समय में ग्रहण करता है, सर्वबंध होता है। उस समय वह सारी सामग्री को ग्रहण कर लेता है, जो भावी जीवन के लिए आवश्यक होती है। ज्योतिष शास्त्र का मत है— जिस समय प्राणी जन्म लेता है, उस समय वह सौरमंडल के विकिरण और रश्मियां ग्रहण कर लेता है। उसी के आधार पर जन्म-कुंडली बनती है। उसका जीवन क्रम चलता है। जो ग्रहण किया है, उसमें कुछ ऐसा भी होता है, जो बाधाकारक होता है। प्रश्न आया— उसका निवारण कैसे किया जाए? इस संदर्भ में अनेक उपाय खोजे गए। एक उपाय है भक्ति अथवा मंत्र का प्रयोग। इससे चेतना शक्तिशाली बनती है और बाधा का निवारण हो जाता है।

मानतुंग सूरि ने प्रस्तुत काव्य में उस समय की भयंकर व्याधि का उल्लेख किया है। उस व्याधि का नाम है जलोदर। आज इस रोग के अनेक उपाय खोजे गए हैं और यह व्याधि भयंकर भी नहीं मानी जाती। किंतु उस युग में यह रोग बहुत जटिल था। वैद्यों के लिए भी बड़ी समस्या थी। पेट में पानी ही पानी हो जाता है। उस जलोदर से भीतर में इतना भार हुआ कि व्यक्ति वक्र बन गया। हमने जलोदर की व्याधि से पीड़ित अनेक लोगों की दशा को देखा है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति व्याकुल और बेचैन रहता है। आचार्य मानतुंग कहते हैं— भीषण जलोदर के भार से वक्र बना हुआ वह आदमी चिंतनीय दशा में चला गया है। उसका रोग असाध्य बन गया है। रोग की दो प्रकार की अवस्थाएं होती हैं— साध्यावस्था और असाध्यावस्था। सहज साध्य योग वह है, जो सामान्य चिकित्सा से ठीक हो जाता है। असाध्य वह है जिस पर कुछ कठिनाई से नियंत्रण पाया जाता है अथवा नहीं भी पाया जाता। आज कैंसर की व्याधि लाइलाज बनी हुई है। प्राथमिक भूमिका पर उसकी चिकित्सा हो जाती है, किंतु अंतिम स्टेज पर वह असाध्य बन जाती है। उसका कोई इलाज संभव नहीं बनता। उस युग में जलोदर ऐसा ही भीषण रोग था। व्यक्ति इस रोग के कारण सोचनीय दिशा को प्राप्त हो गया है, उसने जीने की आशा छोड़ दी है। मौत सामने दिखाई दे रही है।

क्या ऐसी अवस्था में व्यक्ति बच सकता है? क्या इस असाध्य रोग का कोई उपाय है? उपाय कभी समाप्त नहीं होता। नए-नए उपाय सामने आते रहते हैं। हर अपाय का उपाय है। ऐसा नहीं है कि केवल अपाय हैं और उपाय नहीं हैं। मानतुंग स्वयं इस व्याधि से मुक्ति का उपाय सुझा रहे हैं— प्रभो! आपके चरण की धूलि अमृत है। वह रोगी व्यक्ति उस धूलि का शरीर पर लेप कर जलोदर से मुक्ति पा लेता है। जैसे चंदन का लेप किया जाता है, वैसे ही रजोमृत का लेप किया जा सकता है। जलोदर के भार से टेढ़ा बना हुआ व्यक्ति उस लेप से *मकरध्वजतुल्यरूपाः*– कामदेव के समान सुंदर बन जाता है।

*उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः,*
*शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः।*
*त्यत्पादपंकजरजोमृतदिग्धदेहाः,*
*मर्त्याः भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः।।*

यह न कोई अतिशयोक्तिपूर्ण बात है और न कोई चमत्कार है। हम लोग चमत्कार में विश्वास नहीं करते। जो नियम को नहीं जानता, उसके लिए चमत्कार जैसा कुछ होता है, किंतु जो नियम को जानता है, उसके लिए चमत्कार जैसा कुछ नहीं होता। अज्ञानी जिसे चमत्कार कहता है, ज्ञानी के लिए वह एक नियम है। चमत्कार को नमस्कार करो, इसके स्थान पर यह कहना चाहिए— नियम को नमस्कार करो। हर परिवर्तन और चमत्कार के पीछे एक नियम होता है।

*पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की कलकत्ता चातुर्मास संपन्न कर राजस्थान की ओर यात्रा के एक प्रसंग...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 133* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*10. सत्य-भक्त*

*सत्य समर्पित*

स्वामीजी का सारा जीवन सत्य की आराधना के लिए ही समर्पित था। *सव्वाइं विज्जाइं सच्चे पइट्ठियाइं* अर्थात् सारा ज्ञान सत्य में ही प्रतिष्ठित है, इस आगम-वाणी को उन्होंने पूर्णतः हृदयंगम कर लिया था। उन्हें अपनी बात का कोई आग्रह नहीं था, केवल सत्य की खोज थी। उस खोज में उन्हें जो तत्व भासित हुआ, उसी का उन्होंने प्रचार और प्रसार किया। फिर भी अपने मस्तिष्क का द्वार उन्होंने कभी बंद नहीं होने दिया। आचार की सत्यता के प्रति उनका उतना ही दृढ़ आग्रह था, जितना कि विचारों की सत्यता के प्रति।

*पछेवड़ी बड़ी नहीं निकली*

पादू में एक भाई ने मुनि हेमराजजी से कहा— 'आपकी पछेवड़ी कल्प से बड़ी लगती है।'

मुनि हेमराजजी ने उससे कहा— 'स्वामीजी ने स्वयं अपने हाथ से नाप कर दी है, अतः बड़ी कैसे हो सकती है?'

इस पर भी उस भाई को संदेह बना रहा। वह बड़ी होने की आशंका कर रहा था और मुनि हेमराजजी उसका निराकरण। स्वामीजी कुछ देर तो उनकी बातें सुनते रहे, पर जब उस भाई का संदेह निवृत्त होता नहीं देखा, तो मुनि हेमराजजी को अपने पास बुलाकर पछेवड़ी उतरवा ली और उसके सामने नाप कर दिखलाई। वह बराबर निकली, तब भाई ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा— 'मुझे झूठा ही भ्रम हो गया था।'

स्वामीजी ने कहा— '

यह तो पछेवड़ी थी, अतः नाप कर बतला दी, किंतु तुझे तो यह भ्रम भी हो सकता है कि प्यास लगने पर हम मार्ग में नदी आदि का सचित्त पानी भी पी लेते होंगे। साधुता हम अपनी ही आत्मा की सच्चाई से पाल सकते हैं। चार अंगुल कपड़े के लिए यदि हम अपनी सच्चाई को खो देंगे, तो वह अन्यत्र भी हमारे जीवन में कहीं दृष्टिगत नहीं हो सकेगी।'

*बात सत्य है या असत्य*

स्वामीजी ने अनुकंपा विषयक अपने विचार व्यक्त करते हुए एक पद्य बनाया—

*छै लेश्या हुंती जद वीर में जी,*
*हुंता आठूं ई कर्म।*
*छद्मस्थ चूका तिण समै जी,*
*मूरख थापै धर्म।।*

मुनि भारमलजी ने उसे देखकर कहा— 'इसका तीसरा पद लोगों में ऊहापोह खड़ा करने वाला लगता है, अतः इसे परिवर्तित कर दें, तो अच्छा रहे।'

स्वामीजी— 'लोगों में ऊहापोह को उत्पन्न करने वाला चाहे हो, पर सत्य है या असत्य?'

मुनि भारमलजी— 'है तो बिल्कुल सत्य।'

स्वामीजी— 'तो फिर लोगों का क्या भय? न्याय-मार्ग पर चलने वालों को भय की कोई परवाह नहीं करनी चाहिए।'

*उस दिन दिगम्बर बन जाएंगे*

एक बार सरावगियों ने स्वामीजी से कहा— 'आपकी क्रिया तो बहुत ही उच्च कोटि की है, पर यह एक कमी है कि आप वस्त्र रखते हैं।'

स्वामीजी ने कहा— 'हमने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर संयम ग्रहण किया है। उनमें साधु के लिए निर्दिष्ट प्रमाण-युक्त वस्त्र रखने का विधान है। उन आगमों पर हमारा विश्वास है, इसीलिए हम वस्त्र रखते हैं। दिगम्बर-आगमों पर जिस दिन उतना विश्वास हो जाएगा, उस दिन वस्त्र छोड़ देने में हमें कोई हिचकिचाहट नहीं होगी।'

*स्वामी भीखणजी असत्य के विरोधी थे...* जानेंगे... कुछ प्रसंगों के माध्यम से और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ
चेतना सेवा केन्द्र,
कुम्बलगुड़ु,
बेंगलुरु,


महाश्रमण चरणों में

📮
: दिनांक:
07 सितम्बर 2019

🎯
: प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Sources

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