29.08.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 29.08.2019
Updated: 07.09.2019

News in Hindi

🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣

'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 25* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*14. रागं च दोष च तथैव मोहं,*
*उद्धर्तुकामेन समूलजालम्।*
*ये येऽप्युपाया अभिसेवनीयः,*
*तान् कीर्त्तयिष्यामि यथानुपूर्वम्।।*

भगवान ने कहा— राग, द्वेष और मोह का उन्मूलन चाहने वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलंबन लेना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा।

*15. रसाः प्रकामं न निषेवणीयाः,*
*प्रायो रसा द्दप्तिकरा नराणाम्।*
*द्दप्तञ्च कामा समभिद्रवन्ति,*
*द्रुमं यथा स्वादुफलमं विहङ्गा।।*

रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं। जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी।

*16. यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने,*
*समारुतो नोपशमं ह्युपैति।*
*एवं हृषीकाग्निरनल्प भुक्तेः,*
*न शान्तिमाप्नोति कथञ्चनापि।।*

जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशांत नहीं होता, उसी प्रकार अतिमात्र खाने वाले की इंद्रियाग्नि– कामाग्नि शांत नहीं होती। इसलिए प्रकाम– अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता।

*राग-विजय के तीन उपाय... शारीरिक और मानसिक दुःख का हेतु है— विषयगृद्धि... समाधि— मानसिक स्वास्थ्य किसको...? वीतराग कौन…?* पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 115* 📖

*रक्षाकवच*

रक्षा के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं— शक्ति और भक्ति। एक व्यक्ति इतना शक्तिशाली होता है कि वह अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है। जिसमें शक्ति कम होती है, वह भक्ति का आश्रय लेता है। शक्ति का पूरक तत्त्व है– भक्ति। भक्ति से शक्ति बढ़ती है, विघ्न टलता है, सुरक्षा हो जाती है। जहां दो हैं, वहां संघर्ष अनिवार्य है। एक में कोई संघर्ष नहीं होता। आवाज भी दो के मिलन से होती है। बातचीत भी दो में होती है। इस दुनिया में अनगिन द्वंद्व हैं। जहां द्वंद्व है, वहां संघर्ष है, बाधाएं और विघ्न भी हैं। सब में इतनी शक्ति नहीं होती कि उनका सामना कर सके। शक्ति के विकास के लिए जिन उपायों का आलंबन लिया जाता है, उनमें भक्ति एक बहुत बड़ा तत्त्व है।

युद्ध एक सामाजिक अनिवार्यता-सी बन गई है। शायद बहुत कम समय ऐसा गया होगा, जब लड़ाइयां न लड़ी गई हों, युद्ध न हुए हों। आदिम युग को देखें। ऋषभ के दोनों पुत्र भरत और बाहुबली में युद्ध शुरू हो गया। भरत और बाहुबली दोनों भाइयों ने युद्ध की जो परंपरा डाल दी वह अविच्छिन्न बन गई। विश्व के किसी न किसी भूभाग में युद्ध होता रहा है। युद्ध सामाजिक जीवन का एक अभिशाप है। युद्ध में बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, फिर भी युद्ध की स्थितियां आती रहती हैं। युद्ध में मुख्य प्रश्न रहता है हार और जीत का। जो शक्तिशाली होता है, वह जीत जाता है, उसे विजय की वरमाला पहनाई जाती है। जो हारता है, उसे दास बना लिया जाता है, पीड़ा और त्रास दी जाती है। प्रत्येक राजा यह सोचता है कि मैं विजयी बनूं, विजयश्री मेरा वरण करे। जिस समय जो स्थिति होती है, उस समय की स्थिति के अनुसार वजय में आने वाली बाधाओं और विघ्नों को दूर करने के उपाय खोजे जाते हैं। राजा अच्छे शस्त्र, अच्छे योद्धा, अच्छी सेना, अच्छे संसाधन— इन सबकी उपलब्धि का प्रयत्न करता है, जिससे विजय सहज मिल जाए। इसके साथ-साथ विजय के लिए अनुष्ठान भी किए जाते हैं। कुछ व्यक्ति युद्ध लड़ने जाते हैं तो पहले कुलदेवी की पूजा करते हैं। कुछ शस्त्रों की पूजा करते हैं। जब चक्रवर्ती भरत ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया तब उन्होंने चक्ररत्न की पूजा की। पूजा और सम्मान इसलिए करते हैं कि वह शस्त्र और योद्धा उन्हें विजयी बनाएंगे।

आचार्य मानतुंग इस सारे संदर्भ को ध्यान में रखकर युद्ध-विजय का एक उपाय सुझा रहे हैं— जब तुम युद्ध के लिए जाते हो, तब तुम सब कुछ तैयारी करते हो। उस समय भगवान ऋषभ को भी मत भूलो। उनकी स्तुति और स्मृति करो। यह बात बहुत अटपटी-सी लगती है। जा रहा है लड़ाई के लिए, शत्रु को मारने के लिए और कहा जा रहा है वीतराग की स्तुति करने के लिए। वीतराग की स्तवना तो तब करनी चाहिए, जब कोई वीतराग बनने के लिए जा रहा हो अथवा वीतराग बनने की बात कर रहा हो। किंतु विघ्न-निवारण के लिए अवितराग भी वीतराग की पूजा करते रहे हैं, उपासना करते रहे हैं। आचार्य मानतुंग उस युग की युद्ध की स्थितियों का चित्रण कर रहे हैं— युद्ध हो रहा है। उस युग के प्रक्षेपास्त्र थे भाले और तलवारें। एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में भाला। भाले से लड़ा जाने वाला युद्ध बहुत भयंकर होता था। तलवार से भी शायद बाद में विकसित हुए हैं भाले। भाले बहुत तेज होते थे। बड़े-बड़े योद्धा भाले रखते थे। महाराणा प्रताप का भाला बहुत विश्रुत है। आज उस भाले को एक, दो आदमी मिलकर संभवतः न उठा पाएं। आज आदमी के मन में उस भाले को देखकर यह प्रश्न होता है— ऐसे भाले को कैसे उठाते थे? कैसे फेंकते थे और कैसे प्रहार करते थे? मानतुंग कह रहे हैं— भाले का जो अग्र है, वह बहुत तीक्ष्ण है, नुकीला है। युद्ध में उन नुकीले भालों द्वारा हाथियों पर प्रहार किया जाता है। हाथियों को वश में करना बहुत कठिन काम होता है। जब दुर्दांत हाथी युद्ध ने जाते तब उन पर तीक्ष्ण भालों से चोट की जाती। उन नुकीले भालों के प्रहारों से शोणित खून की धारा बह चलती। भयंकर योद्धा खून की बहती हुई उस वेगवती धारा को तरने के लिए आतुर हैं। एक और रक्त के नाले चल रहे हैं, दूसरी और उद्भट शुभट चल रहे हैं। ऐसे भीषण युद्ध में दुर्जय पक्ष को जीतना बहुत कठिन है। किंतु आपके पाद-पंकज का आश्रय लेने वाले उस दुर्जय युद्ध में विजयश्री का वरण कर लेते हैं—

*कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह-*
*वेगावतारतरणातुरयोधभीमे।*
*युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षार-*
*स्त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणो लभन्ते।*

*क्या युद्ध की स्थिति में की गई स्तुति को स्तुति मानें...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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*"मैत्री दिवस"*
के उपलक्ष्य
में
*अणुव्रत समितियों*
को
*विशेष रियायत*
*अणुव्रत पत्रिका*
की
*नवीन सदस्यता*
पर
*05 सितंबर 2019*
तक
*50% की छूट*


: प्रस्तुति:
*अणुव्रत सोशल मीडिया*

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*अणुव्रत महासमिति*
द्वारा
स्थानीय शाखाओं
के सूचनार्थ
करणीय
*सामयिक प्रकल्प*

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*अणुव्रत-चेतना*
दिवस का
आयोजन


: प्रस्तुति:
*अणुव्रत सोशल मीडिया*

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 127* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*8. आचार-निष्ठ व्यक्तित्व*

*त्रुटि पर 'तेला'*

स्वामीजी अपने संघ के प्रत्येक व्यक्ति को आचारनिष्ठ देखना चाहते थे। उनका प्रयास रहता था कि किसी में कोई छोटी सी त्रुटि भी न रहने पाए। एक बार उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य मुनि भारमलजी से कहा— 'तुम्हारा कोई भी कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए, जिससे कोई गृहस्थ त्रुटि निकाल सके। गृहस्थ के त्रुटि निकालने पर तुम्हें उसके प्रायश्चित्त-स्वरूप एक तेला करना होगा।'

मुनि भारमलजी उस समय बाल्यावस्था में ही थे, फिर भी गंभीरतापूर्वक सोच कर बोले— 'गुरुदेव! विद्वेषी लोग बहुत हैं, अतः पता लगने पर कोई द्वेष-वश झूठमुठ ही त्रुटि निकालने लगेगा तो?'

स्वामीजी ने कहा— 'यदि वास्तव में तुम्हारी त्रुटि हो तो तुम प्रायश्चित्त-स्वरूप तेला कर देना और यदि द्वेष-वश झूठी त्रुटि निकाली गई हो तो अपने पूर्व कर्मों का उदय समझकर तेला कर देना। तेला तो हर स्थिति में तुम्हें करना ही है।'

मुनि भारमलजी ने आगे कुछ तर्क-वितर्क किए बिना स्वामीजी की आज्ञा को शिरोधार्य किया। वे इतने सावधान रहे कि उसके लिए उन्हें जीवन भर में एक भी तेला नहीं करना पड़ा।

*दोष होगा, तो नहीं खोलेंगे*

विक्रम संवत् 1855 में स्वामीजी कांकरोली पधारे। वहां सहलोतों की 'पोल' में विराजे। एक बार रात्रि के समय शारीरिक आवश्यकता से उन्हें बाहर जाना पड़ा। मुनि हेमराजजी को उन्होंने जगाया और दरवाजे की बारी खोलकर बाहर गए। वापस आने पर मुनि हेमराजजी ने पूछा— 'किंवाड़ खोलने को आप अकल्प्य कहते हैं, तब इस बारी को खोलने में कोई दोष नहीं है क्या?'

स्वामीजी— 'पाली का चोथमल सकलेचा यहां दर्शनार्थ आया हुआ है। वह अत्यंत शंकाशील व्यक्ति है। पर यह शंका तो उसे भी नहीं हुई, तब तुझे कैसे हो गई?'

मुनि हेमराजजी— 'मैं शंका नहीं कर रहा हूं। जानकारी के लिए पूछ रहा हूं।'

स्वामीजी— 'जिज्ञासा करना उचित है। उसका समाधान यह है कि किंवाड़ बड़ा होता है। उसे खोलते समय यत्ना रख पाना संभव नहीं। बारी छोटी होती है, अतः उसे देखा या प्रमार्जित किया जा सकता है। बारी में भी जहां दोष की संभावना हो, वहां नहीं खोलनी चाहिए।'

*स्वामीजी की आचारनिष्ठता का लोहा उनके कट्टर विरोधी भी माना करते थे... कैसे...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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▶ *अभातेयुप के निर्देशानुसार विभिन्न क्षेत्रों में अभिनव सामायिक का आयोजन.........*

✴ विरार (मुम्बई)
✳ सिंधनुर
✡ गदग
✴ देवगढ़
✳ चिकमगलूर
✡ टिटलागढ़
✴ हैदराबाद

👉 अहमदाबाद - पर्युषण महापर्व आराधना
👉 कालावाली - तप अभिनन्दन समारोह
👉 कालावाली - पर्युषण महापर्व आराधना
👉 टिटलागढ़ ~ खाद्य संयम दिवस का कार्यक्रम आयोजित

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

👉 जयपुर - रक्तदान शिविर का भव्य आयोजन
👉 जयपुर - श्रीमद् जयाचार्य का 138वें निर्वाण दिवस पर कार्यक्रम का आयोजन
👉 हिम्मतनगर ~ स्वागत समारोह एवं खाद्य संयम दिवस का कार्यक्रम आयोजित
👉 ओरंगाबाद - हैप्पी एन्ड हॉर्मोनियस फेमिली सेमिनार
👉 गदग ~ "समय जीवन की बहुमूल्य निधि" कार्यशाला का आयोजन

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

🕎 _पर्युषण महापर्व_ ~ *_सामायिक दिवस_*

⌚ _दिनांक_: *_29 अगस्त 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

https://www.facebook.com/SanghSamvad/

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आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ
चेतना सेवा केन्द्र,
कुम्बलगुड़ु,
बेंगलुरु,


परम पूज्य आचार्य प्रवर
के प्रातःकालीन
मनमोहक दृश्य....

📮
दिनांक:
29 अगस्त 2019

🎯
प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣

'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 25* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*14. रागं च दोष च तथैव मोहं,*
*उद्धर्तुकामेन समूलजालम्।*
*ये येऽप्युपाया अभिसेवनीयः,*
*तान् कीर्त्तयिष्यामि यथानुपूर्वम्।।*

भगवान ने कहा— राग, द्वेष और मोह का उन्मूलन चाहने वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलंबन लेना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा।

*15. रसाः प्रकामं न निषेवणीयाः,*
*प्रायो रसा द्दप्तिकरा नराणाम्।*
*द्दप्तञ्च कामा समभिद्रवन्ति,*
*द्रुमं यथा स्वादुफलमं विहङ्गा।।*

रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं। जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी।

*16. यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने,*
*समारुतो नोपशमं ह्युपैति।*
*एवं हृषीकाग्निरनल्प भुक्तेः,*
*न शान्तिमाप्नोति कथञ्चनापि।।*

जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशांत नहीं होता, उसी प्रकार अतिमात्र खाने वाले की इंद्रियाग्नि– कामाग्नि शांत नहीं होती। इसलिए प्रकाम– अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता।

*राग-विजय के तीन उपाय... शारीरिक और मानसिक दुःख का हेतु है— विषयगृद्धि... समाधि— मानसिक स्वास्थ्य किसको...? वीतराग कौन…?* पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 115* 📖

*रक्षाकवच*

रक्षा के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं— शक्ति और भक्ति। एक व्यक्ति इतना शक्तिशाली होता है कि वह अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है। जिसमें शक्ति कम होती है, वह भक्ति का आश्रय लेता है। शक्ति का पूरक तत्त्व है– भक्ति। भक्ति से शक्ति बढ़ती है, विघ्न टलता है, सुरक्षा हो जाती है। जहां दो हैं, वहां संघर्ष अनिवार्य है। एक में कोई संघर्ष नहीं होता। आवाज भी दो के मिलन से होती है। बातचीत भी दो में होती है। इस दुनिया में अनगिन द्वंद्व हैं। जहां द्वंद्व है, वहां संघर्ष है, बाधाएं और विघ्न भी हैं। सब में इतनी शक्ति नहीं होती कि उनका सामना कर सके। शक्ति के विकास के लिए जिन उपायों का आलंबन लिया जाता है, उनमें भक्ति एक बहुत बड़ा तत्त्व है।

युद्ध एक सामाजिक अनिवार्यता-सी बन गई है। शायद बहुत कम समय ऐसा गया होगा, जब लड़ाइयां न लड़ी गई हों, युद्ध न हुए हों। आदिम युग को देखें। ऋषभ के दोनों पुत्र भरत और बाहुबली में युद्ध शुरू हो गया। भरत और बाहुबली दोनों भाइयों ने युद्ध की जो परंपरा डाल दी वह अविच्छिन्न बन गई। विश्व के किसी न किसी भूभाग में युद्ध होता रहा है। युद्ध सामाजिक जीवन का एक अभिशाप है। युद्ध में बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, फिर भी युद्ध की स्थितियां आती रहती हैं। युद्ध में मुख्य प्रश्न रहता है हार और जीत का। जो शक्तिशाली होता है, वह जीत जाता है, उसे विजय की वरमाला पहनाई जाती है। जो हारता है, उसे दास बना लिया जाता है, पीड़ा और त्रास दी जाती है। प्रत्येक राजा यह सोचता है कि मैं विजयी बनूं, विजयश्री मेरा वरण करे। जिस समय जो स्थिति होती है, उस समय की स्थिति के अनुसार वजय में आने वाली बाधाओं और विघ्नों को दूर करने के उपाय खोजे जाते हैं। राजा अच्छे शस्त्र, अच्छे योद्धा, अच्छी सेना, अच्छे संसाधन— इन सबकी उपलब्धि का प्रयत्न करता है, जिससे विजय सहज मिल जाए। इसके साथ-साथ विजय के लिए अनुष्ठान भी किए जाते हैं। कुछ व्यक्ति युद्ध लड़ने जाते हैं तो पहले कुलदेवी की पूजा करते हैं। कुछ शस्त्रों की पूजा करते हैं। जब चक्रवर्ती भरत ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया तब उन्होंने चक्ररत्न की पूजा की। पूजा और सम्मान इसलिए करते हैं कि वह शस्त्र और योद्धा उन्हें विजयी बनाएंगे।

आचार्य मानतुंग इस सारे संदर्भ को ध्यान में रखकर युद्ध-विजय का एक उपाय सुझा रहे हैं— जब तुम युद्ध के लिए जाते हो, तब तुम सब कुछ तैयारी करते हो। उस समय भगवान ऋषभ को भी मत भूलो। उनकी स्तुति और स्मृति करो। यह बात बहुत अटपटी-सी लगती है। जा रहा है लड़ाई के लिए, शत्रु को मारने के लिए और कहा जा रहा है वीतराग की स्तुति करने के लिए। वीतराग की स्तवना तो तब करनी चाहिए, जब कोई वीतराग बनने के लिए जा रहा हो अथवा वीतराग बनने की बात कर रहा हो। किंतु विघ्न-निवारण के लिए अवितराग भी वीतराग की पूजा करते रहे हैं, उपासना करते रहे हैं। आचार्य मानतुंग उस युग की युद्ध की स्थितियों का चित्रण कर रहे हैं— युद्ध हो रहा है। उस युग के प्रक्षेपास्त्र थे भाले और तलवारें। एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में भाला। भाले से लड़ा जाने वाला युद्ध बहुत भयंकर होता था। तलवार से भी शायद बाद में विकसित हुए हैं भाले। भाले बहुत तेज होते थे। बड़े-बड़े योद्धा भाले रखते थे। महाराणा प्रताप का भाला बहुत विश्रुत है। आज उस भाले को एक, दो आदमी मिलकर संभवतः न उठा पाएं। आज आदमी के मन में उस भाले को देखकर यह प्रश्न होता है— ऐसे भाले को कैसे उठाते थे? कैसे फेंकते थे और कैसे प्रहार करते थे? मानतुंग कह रहे हैं— भाले का जो अग्र है, वह बहुत तीक्ष्ण है, नुकीला है। युद्ध में उन नुकीले भालों द्वारा हाथियों पर प्रहार किया जाता है। हाथियों को वश में करना बहुत कठिन काम होता है। जब दुर्दांत हाथी युद्ध ने जाते तब उन पर तीक्ष्ण भालों से चोट की जाती। उन नुकीले भालों के प्रहारों से शोणित खून की धारा बह चलती। भयंकर योद्धा खून की बहती हुई उस वेगवती धारा को तरने के लिए आतुर हैं। एक और रक्त के नाले चल रहे हैं, दूसरी और उद्भट शुभट चल रहे हैं। ऐसे भीषण युद्ध में दुर्जय पक्ष को जीतना बहुत कठिन है। किंतु आपके पाद-पंकज का आश्रय लेने वाले उस दुर्जय युद्ध में विजयश्री का वरण कर लेते हैं—

*कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह-*
*वेगावतारतरणातुरयोधभीमे।*
*युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षार-*
*स्त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणो लभन्ते।*

*क्या युद्ध की स्थिति में की गई स्तुति को स्तुति मानें...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Video

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#चिंतन का #परिणाम *: #श्रंखला १*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
https://www.facebook.com/SanghSamvad/
🌻 #संघ #संवाद 🌻

👉 लाडनूं ~ नशामुक्ति विषयक संगोष्ठी का आयोजन
👉 लाडनूं ~ नशामुक्ति संगोष्ठी का आयोजन
👉 सिंधनूर ~ स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण कार्यशाला का आयोजन
👉 कटिहार ~ चित समाधि शिविर का आयोजन
👉 सी स्कीम जयपुर - "स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण" कार्यशाला का आयोजन
👉 तेजपुर (असम) - समणी वृंद का मंगल भावना समारोह
👉 लिम्बायत, सूरत - जैन विद्या कार्यशाला परीक्षा का आयोजन
👉 इस्लामपुर ~ "स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण" कार्यशाला का आयोजन

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद*🌻

👉 कृष्णा नगर, दिल्ली - लोगस्स कल्प का अनुष्ठान
👉 औरंगाबाद - महाप्रज्ञ प्रबोध प्रश्नोत्तरी का आयोजन
👉 पुणे - पर्युषण महापर्व प्रारम्भ
👉 फरीदाबाद - श्री उत्सव व तीज कार्यक्रम का आयोजन
👉 हिसार ~ नशामुक्ति जागरूकता अभियान कार्यक्रम का आयोजन
👉 विजयवाड़ा ~ स्वागत समारोह एवं खाद्य संयम दिवस का कार्यक्रम आयोजित
👉 कोलकता - अणुव्रत समिति का शपथग्रहण समारोह
👉 भीलवाड़ा ~ हैप्पी एन्ड हॉर्मोनियस फेमिली सेमिनार का आयोजन

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 24* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*10. यथा च अण्डप्रभवा बलाका,*
*अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च।*
*एवञ्च मोहायतनं हि तृष्णा,*
*मोहश्च तृष्णायतनं वदन्ति।।*

जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है।

*11. राग्श्च दोषोऽपि च कर्मबीजं,*
*कर्माऽथ मोहप्रभवं वदन्ति।*
*कर्माऽपि जातेर्मरणस्य मूलं,*
*दुःखं च जातिं मरणं वदन्ति।।*

राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख कहा गया है।

*12. दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो,*
*मोहो हतो यस्य न चास्ति तृष्णा।*
*तृष्णा हता यस्य न चास्ति लोभो,*
*लोभो हतो यस्य न किञ्चनास्ति।।*

जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया।

💠 *मेघः प्राह*

*13. ज्ञातो मोहप्रपञ्चोऽयं, ज्ञातं दुःखस्य कारणम्।*
*कथमुन्मूलितं तत् स्याद्, ज्ञातुमिच्छामि संप्रति।।*

मेघ बोला— मैं मोह के प्रपंच को जान चुका हूं और दुःख का मूल कारण है मोह है, यह भी जान चुका हूं। प्रभो! उसका उन्मूलन कैसे हो? अब मैं यह जानना चाहता हूं।

*भगवान का प्रतिवचन…* पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 114* 📖

*नाम में छिपी है नागदमनी*

गतांक से आगे...

बुद्धि के द्वारा जब सेना को भगाया जा सकता है तब श्रद्धा के द्वारा ऐसा क्यों नहीं हो सकता? प्रखर बुद्धि जितना काम करती है, उतना सामान्य बुद्धि से संभव नहीं होता। श्रद्धा का भी प्रकर्ष होना चाहिए। सामान्य बुद्धि और सामान्य श्रद्धा से असाधारण परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। श्रद्धा पूरी नहीं होती है, कुछ मिलता नहीं है, तो लोग कहते हैं— देखो, कितनी श्रद्धा की, कुछ हुआ ही नहीं। उनके प्रति श्रद्धा रखने से क्या लाभ? वस्तुतः श्रद्धा प्रगाढ़ नहीं है। इधर-उधर डोलने वाली श्रद्धा का कोई अस्तित्व नहीं होता। जहां श्रद्धा का उत्कर्ष होता है, चरम बिंदु आता है, वहां अघटित घटनाएं घटित हो जाती हैं, असंभव लगने वाली बात भी संभव बन जाती है, किंतु वह उत्कर्ष का बिन्दु आना चाहिए, रसायन पैदा होना चाहिए। जब तक गहरा रसायन पैदा नहीं होता, तब तक वांछित परिणाम नहीं मिलता। चंडप्रद्योत के मन में आशंका बन गई— मेरे सारे सैनिक श्रेणिक के बन गए हैं। मैं अकेला रह गया हूं। मुझे बंदी बना लिया जाएगा। इसलिए वह भाग गया। अभयकुमार ने बुद्धि के प्रयोग से यह भय पैदा किया। इसी प्रकार श्रद्धा का उत्कर्ष भी शत्रु के मन में आशंका और भय को जन्म दे सकता है। वह आशंका उसके पलायन का कारण बन जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

आचार्य मानतुंग ने जो लिखा है, वह सापेक्ष कथन है। यदि श्रद्धा का प्रकर्ष है तो ऐसा हो सकता है। यदि श्रद्धा साधारण है तो इस भरोसे न रहें। साधारण श्रद्धा सफलता नहीं देती। इस सच्चाई को न भूलें— प्रकर्ष श्रद्धा के बिना ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता। स्तुतिकार ने इस काव्य में श्रद्धा के बल को भी उजागर किया है। यह स्वर श्रद्धा के प्रकर्ष से निकला स्वर था— *कार्यं वा साधयामि देहं वा पातयामि*— कार्य को सिद्ध करूंगा अथवा देह को त्याग दूंगा। आचार्य भिक्षु ने इसी भाषा में कहा था— *मर पूरा देस्यां पण आतम रा कारज सारस्यां*— चाहे प्राण चले जाएं, आत्म-साधना के पथ पर चलते रहेंगे। वे भयंकर स्थिति में भी सफल हो गए। यह श्रद्धा का प्रकर्ष, दृढ़ संकल्प और निश्चय जिसमें होता है, वह सफल हो जाता है। बुद्ध ने कहा— चाहे शरीर सूख जाए, बोधि प्राप्त किए बिना इस आसन से उठूंगा नहीं। उन्हें बोधि प्राप्त हो गई। जहां यह आत्म-बल और श्रद्धा का बल होता है, वहां सफलता सुनिश्चित हो जाती है।

स्तुति का यह प्रकरण एक बौद्ध पाठ देता है— जिसमें श्रद्धा का प्रकर्ष है, उसके लिए न सांप का खतरा है, न युद्ध का खतरा है। वह दोनों स्थितियों से बच सकता है। यह अपेक्षित है— श्रद्धा का बल और संकल्प की शक्ति जागे और हम उस शक्ति के द्वारा अभय बनें। व्यक्ति अभय बनना चाहता है, किंतु अभय के आलंबन-सूत्रों का अनुशीलन और प्रयोग के बिना वह अभय नहीं बन सकता। अभय वही बन सकता है, जिसमें श्रद्धा और संकल्प का बल जाग जाता है। आचार्य मानतुंग ने श्रद्धा के प्रकर्ष में ही इस भाषा का प्रयोग किया है— आपके कीर्तन मात्र से सर्प का भय दूर हो जाता है, युद्ध छिन्न-भिन्न हो जाता है। युद्ध आए या न आए, सर्प आए या न आए, किंतु एक भक्त हृदय में श्रद्धा का प्रकर्ष पैदा करने के लिए मानतुंग द्वारा रचे गए ये पद्य सचमुच बहुत कल्याणकारी और उपयोगी हैं।

*भगवान् आदिनाथ की स्तुति रक्षाकवच है... कैसे...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २३९* - *चित्त शुद्धि और लेश्या ध्यान ८*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
*Preksha Foundation*
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🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 126* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*8. आचार-निष्ठ व्यक्तित्व*

*बतलाना नहीं कल्पता*

रीयां और पीपाड़ के मार्ग में एक स्थानकवासी साधु स्वामीजी से मिलने आए। उन्होंने स्वामीजी को एकांत में ले जाकर कुछ समय तक वार्तालाप किया और वापस चले गए। स्वामीजी ने उस घटना की कोई बात नहीं चलाई, तो उत्सुकता-वश मुनि हेमराजजी ने पूछ लिया— 'वे क्या कह रहे थे?'

स्वामीजी ने कहा— 'किसी दोष की आलोयणा करने आए थे।'

मुनि हेमराजजी ने जिज्ञासा से फिर पूछा— 'किस दोष की आलोयणा?'

कल्प-अकल्प में पूर्ण सावधान स्वामीजी ने तत्काल कहा— 'यह बतलाना नहीं कल्पता।'

मुनि हेमराजजी का ध्यान तब अपने प्रश्न की ओर गया। उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका दूसरा प्रश्न आवश्यक नहीं था।

*हाथ कहां धोएगी*

एक बहिन जब-जब आती, तब-तब स्वामीजी से गोचरी के लिए प्रार्थना किया करती थी। एक दिन स्वामीजी उसके घर पधार गए, तो वह अत्यंत प्रसन्न हुई। आहार देने लगी तो स्वामीजी ने उससे पूछा— 'बहिन! आहार देने के पश्चात् संभवतः तुझे हाथ धोने पड़ें, तो सचित्त पानी से धोएगी या उष्ण पानी से?'

वह बोली— 'उष्ण पानी से।'

स्वामीजी— 'कहां धोएगी?'

नाली की ओर संकेत करते हुए उसने कहा— 'यहां धोऊंगी।'

स्वामीजी— 'इस नाली से पानी नीचे गिरता है, अतः वायुकाय की आयत्ना होती है। ऐसी स्थिति में मुझे यह आहार लेना नहीं कल्पता।'

बहिन— 'आप तो अपना आहार शुद्ध देखकर ले लें। पीछे से हम गृहस्थ क्या करते हैं, इसका आपको क्या करना है? हम संसार में रहते हैं, तो अपनी पद्धति से ही काम करते हैं। उसे छोड़ना भी तो ठीक नहीं है।'

स्वामीजी— 'परंतु रोटी के लिए मैं अपनी निरवद्य क्रिया को कैसे छोड़ दूं, जबकि तू सावद्य क्रिया छोड़ने को भी तैयार नहीं है। ऐसा आहार लेने से मुझे 'पश्चात् कर्म' का दोष लगता है।' और वे वहां से आहार बिना लिए ही वापस आ गए।

*वे निंदा नहीं करते*

स्वामीजी के आचारनिष्ठ व्यक्तित्व से रीयां के सेठ हजारीमलजी बहुत प्रभावित हुए। धीरे-धीरे उनका झुकाव तेरापंथ की ओर अधिकाधिक होता गया। विरोधी लोगों को उनका वह झुकाव अखरा। एक दिन विरोधी संप्रदाय के उरजोजी नामक एक साधु उनके पास आए और एक पत्र निकालकर पढ़ने लगे। उसमें उन्होंने लिख रखा था कि अमुक गांव में भीखणजी ने सचित्त पानी लिया, अमुक गांव में नित्यपिण्ड लिया, अमुक गांव में द्वार बंद किए इत्यादि।

हजारीमलजी ने कहा— 'मुझे इन बातों को सुनाने का क्या तात्पर्य है? मैं कोई न्यायाधीश नहीं हूं। आप उनमें इतने दोष बतलाते हैं, पर वे कहेंगे कि हमने इनमें से एक भी कार्य नहीं किया।'

मुनि उरजोजी बोले— 'मैं भीखणजी में जो दोष बतला रहा हूं, यदि तुम उन पर विश्वास नहीं करते, तो फिर भीखणजी हमारे में जो दोष बतलाते हैं, उन पर विश्वास क्यों करते हो?'

हजारीमलजी ने कहा— 'वे किसी व्यक्ति का नाम लेकर निंदा नहीं करते। वे तो सूत्र-न्याय से समुच्चय रूप से बतलाते हैं कि अमुक-अमुक कार्य साधु को नहीं कल्पता या इन कार्यों को करने वाला साधुत्व से च्युत हो जाता है।'

*आचारनिष्ठा के प्रति मुनि भारमलजी की सतर्कता... मुनि हेमराजजी की जिज्ञासा... स्वामी भीखणजी का समाधान... इत्यादि...* पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 23* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *मेघः प्राह*

*6. को मोहः किञ्च तन्मूलं, को विपाको हि देहिषु।*
*इति विज्ञातुमिच्छामि, चक्षुरुन्मीलय प्रभो!।।*

मेघ बोला— मोह क्या है? उस का मूल स्रोत क्या है? वह प्राणियों को क्या फल देता है? मैं यह जानना चाहता हूं। प्रभो! आप मेरे ज्ञानचक्षु को उद्घाटित करें।

💠 *भगवान् प्राह*

*7. चिद्विकारकरो मोहः, अज्ञानं मूलमिष्यते।*
*सम्यक्त्वञ्चापि चारित्रं, विमोहयति सन्ततम्।।*

भगवान ने कहा— मोह वह है, जो चेतना को विकृत बनाता है। उसका मूल है— अज्ञान। उसका विपाक है— सम्यक्त्व और चारित्र को सतत विमूढ़ बनाए रखना।

*8. दृष्टिमोहेन मूढोऽयं, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते।*
*मिथ्यात्वी घोरकर्माणि, सृजन् भ्राम्यति संसृतौ।।*

दर्शनमोह से मूढ़ बना हुआ मनुष्य मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। मिथ्यात्वी घोर कर्मों का उपार्जन करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है।

*9. मूढश्चारित्रमोहेन, रज्यति द्वेष्टि च क्वचित्।*
*रागद्वेषौ च कर्माणि, स्रवतस्तेन संसृतिः।।*

चारित्र-मोह से मूढ़ बना हुआ मनुष्य किसी पर राग करता है और किसी पर द्वेष करता है। राग-द्वेष से कर्म का आत्मा में आस्रवण होता है और उससे संसार—जन्म-मरण की परंपरा चलती है।

*भगवान द्वारा तृष्णा और मोह का पौर्वापर्य... जन्म-मरण का उपादान... दुःख, तृष्णा मोह और लोभ का नाश कैसे...? यह बतलाना... मेघ द्वारा मोह और दुःख के उन्मूलन की जिज्ञासा रखना…* पढ़ेंगे आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 113* 📖

*नाम में छिपी है नागदमनी*

गतांक से आगे...

जैन इतिहास की घटना है। राजा चंडप्रद्योत बिना पूर्व सूचना के सैन्यबल के साथ आ पहुंचा। संध्या के समय राजगृह के चारों ओर घेरा डाल दिया। उद्देश्य था राजा श्रेणिक को जीतना। अकस्मात् शत्रु सेना के घेरे ने राजा श्रेणिक को चिंता में डाल दिया।

उसने सोचा— अब क्या होगा? कोई उपाय नहीं, कोई तैयारी नहीं, नगर के द्वार कब तक बंद रहेंगे? चिंताकुल राजा श्रेणिक ने तत्काल महामंत्री अभयकुमार को बुलाया। अभयकुमार ने राजा श्रेणिक का अभिवादन किया। राजा श्रेणिक बोले— 'अभयकुमार! क्या सो रहे हो?'

'नहीं महाराज!'

'तुम्हें पता है कि क्या होने वाला है?'

'हां महाराज!'

'चंडप्रद्योत ने सदल-बल घेरा डाल दिया है। अब क्या होगा?'

'आप चिंता न करें, कुछ भी नहीं होगा।'

'अभयकुमार! बहुत खतरा है सामने।'

'आप निश्चिंत रहें, प्रातःकाल तक सब ठीक हो जाएगा।'

अभयकुमार ने बुद्धि का प्रयोग किया। बुद्धि कामधेनु होती है— *शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनुः*। उससे जो चाहें, वह मिल जाता है। अभयकुमार ने बुद्धि का ऐसा प्रयोग किया कि चंडप्रद्योत ने सूर्योदय से पूर्व ही अपने राज्य की ओर कूच कर दिया। प्रातः सूर्य उदय हुआ। सेना के जवान जागे। लड़ाई के लिए तैयारी करने लगे। अचानक सूचना मिली— चंडप्रद्योत राज्य की ओर पलायन कर गए हैं। सैन्य अधिकारियों ने सोचा— जब स्वामी स्वयं पलायन कर गए हैं, तब हम किस से लड़ें? किसके नेतृत्व और आदेश से लड़ें? सूर्योदय के साथ-साथ सेना ने भी अपने राज्य की दिशा में प्रस्थान कर दिया।

प्रातःकाल राजा श्रेणिक यह सुन सुखद आश्चर्य में डूब गया। चंडप्रद्योत सैन्यबल के साथ राजगृह पर आक्रमण किए बिना ही लौट गया है।

अभयकुमार के बुद्धि-चातुर्य से युद्ध का खतरा टल गया। अभयकुमार ने राजा चंडप्रद्योत के पास विशेष दूत के साथ संदेश भेजा— राजन्! आपके सैन्य अधिकारी धन के लोभ में कल आप को बंदी बनाकर राजा श्रेणिक के सामने प्रस्तुत कर देंगे। सोने की चमचमाती मोहरों ने उनके विवेक को लील लिया है। इसका साक्ष्य है सेना अधिकारियों के तंबुओं के नीचे गड्ढों में छिपी लाखों स्वर्ण मुद्राएं। यदि आप अपनी कुशलता चाहते हैं, संभावित अपमान और हार से बचना चाहते हैं, तो राज्य की ओर लौट जाएं, इसी में आपका हित है। संदेश की इस भाषा ने चंडप्रद्योत को विचलित कर दिया। उसमें एक संदेह की चिंगारी पैदा कर दी और वह पलायन का कारण बन गई।

*आचार्य मानतुंग स्तुति के इस प्रकरण में क्या बोधपाठ दे रहे हैं...?* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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👉 सरदारशहर ~ जैन विद्या कार्यशाला परीक्षा का आयोजन
👉 दलखोला ~ "स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण" कार्यशाला का आयोजन
👉 सिलीगुड़ी ~ स्वाध्याय दिवस का कार्यक्रम आयोजित
👉 हुबली ~ "कर लो दर्शन भिक्षु के, कर लो भजन भिक्षु के" कार्यक्रम का आयोजन
👉 गुवाहाटी ~ जन-जागरूकता एवं नशामुक्ति हस्ताक्षर अभियान

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 125* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*8. आचार-निष्ठ व्यक्तित्व*

*पात्र दिखलाओ*

एक बार स्वामीजी किशनगढ़ में पांडियों के वास में गोचरी पधारे। वहां एक घर में मृत्यु-भोज था। अन्य संप्रदाय के साधु ऐसे अवसरों पर उस घर की गोचरी किया करते थे, परंतु स्वामीजी उसका निषेध करते थे।

अन्य संप्रदाय के एक मुनि ने अनुमान लगाया कि भीखणजी उस वास में गए हैं, तो अवश्य ही मृत्यु-भोज वाले घर में गए होंगे। उन्हें रंगे हाथों पकड़ने का अच्छा अवसर समझकर कुछ भाइयों के साथ वे उस वास की नुक्कड़ पर खड़े रहकर स्वामीजी की प्रतीक्षा करने लगे।

स्वामीजी गोचरी करने के पश्चात् वापस आए तब मुनिजी ने अपने अनुमान को सत्य मानकर व्यंग करते हुए कहा— 'भीखणजी! तुम तो विरागी कहलाते हो, फिर इस मिठाई पर मन कैसे ललचा गया?'

स्वामीजी उनकी मानसिक भावना को झट ताड़ गए, अतः उस घटना से भी लाभ उठाने का सोचकर बोले— 'क्यों, गोचरी में मिठाई ले आना भी कोई दोष है क्या?'

यह सुनकर मुनिजी को अपने अनुमान की सच्चाई पर और भी अधिक विश्वास हो गया। लोगों को एकत्रित करने की भावना से जोर-जोर से बोलते हुए उन्होंने कहा— 'तुम चाहे जो कुछ कर लो, उसमें कभी कोई दोष थोड़े ही होता है। दोष तो हम करते हैं, तब होता है, किंतु जब तुम भोज में गोचरी जाने का निषेध करते हो, तो कम से कम स्वयं तो उसे पालते। संभवतः मिठाई के लालच ने ही तुमसे यह गलती करा दी है।'

इतनी देर में तो वहां काफी लोग एकत्रित हो गए। स्वामीजी ने अवसर देखकर स्पष्टीकरण करते हुए कहा— 'मैं तो भोज वाले घर में गोचरी नहीं गया।'

ये लज्जित होकर मुकर रहे हैं, अतः पोल पूरी ही खोल देनी चाहिए, ऐसा सोचकर मुनिजी ने कहा— 'यदि तुम सत्य कहते हो तो अपने पात्र खोलकर दिखलाओ।'

स्वामीजी ने झोली को दृढ़ता से पकड़ते हुए कहा— 'मैं जब कह ही रहा हूं, तो फिर पात्र दिखलाने की क्या आवश्यकता है?'

इस कथन में स्वामीजी की निर्बलता का अनुमान लगाते हुए वे तथा उनके सहवर्ती भाई और भी अधिक जोर डालते हुए बोले— 'सच्चाई को भय नहीं होता है, भय तो झूठ को होता है, अतः तुम सच्चे हो तो पात्र क्यों नहीं दिखलाते? पात्र न दिखलाने का कारण यही हो सकता है कि तुम्हें पात्र खुलते ही पोल खुल जाने का भय है।'

स्वामीजी ने पात्र खोलने में जितना विलंब किया, उतना ही अधिक उनका आग्रह बढ़ता गया। लोग भी उस विवाद का निष्कर्ष देखने को अधिकाधिक एकत्रित हो गए। जब स्वामीजी ने देखा कि उनका आग्रह चरम सीमा को छूने वाला है, तो उन्होंने अपने पात्र खोलकर दिखला दिए। उनमें मिठाई नाममात्र भी नहीं थी। आग्रह करने वाले स्वयं तो लज्जित हुए ही, वहां पर एकत्रित जनता ने भी उनका स्वरूप पहचान लिया।

*स्वामी भीखणजी की कल्प-अकल्प इत्यादि के संबंध में पूर्ण सावधानी व जागरूकता...* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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