01.01.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 02.01.2019
Updated: 09.01.2019

News in Hindi

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*शुभकामनाएं..*

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*नव-वर्ष*
पर
*हार्दिक*
*अभिनंदन*

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*अणुव्रत*
*महासमिति*

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:संप्रसारक:
*संघ संवाद*

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 507* 📝

*बुद्धिमान आचार्य बुद्धिसागर*

बुद्धिसागरसूरि का नाम योगियों की परंपरा में प्रख्यात है। बुद्धिसागर शरीर संपदा से सम्पन्न थे। उनकी अंगुलियों में अठारह चक्र थे। उनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी।

*गुरु-परम्परा*

बुद्धिसागरजी तपागच्छीया आचार्य सुखसागरजी के शिष्य थे। सुखसागरजी के गुरु का नाम रविसागरजी था। उनका दीक्षा संस्कार सुखसागरजी द्वारा हुआ। रविसागरजी श्रीमयासागरजी के शिष्य और नेमसागरजी के प्रशिष्य थे।

*जन्म एवं परिवार*

बुद्धिसागरजी का जन्म बड़ोदरा राज्यांतर्गत 'बीजापुर' गांव में वीर निर्वाण 2400 (विक्रम संवत् 1930) माघ कृष्णा चतुर्दशी को हुआ। वे पटेल जाति के थे। उनके पिता का नाम शिवजी भाई तथा माता का नाम अम्बाबाई था। बुद्धिसागरजी का गृहस्थ नाम 'वहेचर' था।

*जीवन-वृत्त*

बुद्धिसागरजी के पिता शिवजी भाई पटेल शिव के उपासक थे। माता अम्बाबाई वैष्णव थीं। बुद्धिसागरजी रविसागरजी महाराज से जैन धर्म का बोध प्राप्त कर जैन धर्म के अनुयायी बने। पालनपुर में उन्होंने रविसागरजी महाराज के शिष्य सुखसागरजी महाराज से वीर निर्माण 2427 (विक्रम संवत् 1957) में मुनि दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण के समय उनकी अवस्था 27 वर्ष की थी।

बुद्धिसागर बुद्धि के सागर थे। उनकी रसनेन्द्रिय पर विशेष विजय थी। उनकी प्रवचन शैली प्रभावक थी। 'पेथापुर' में वीर निर्वाण 2440 (विक्रम संवत् 1970) में बुद्धिसागरजी की आचार्य पद पर नियुक्ति हुई।

जैन धर्म को बुद्धिसागर वीरों का धर्म मानते थे। अहिंसा को वीरों की अहिंसा मानते थे। संकट की घड़ियों का उन्होंने धैर्य से सामना किया।

वे उग्र विहारी और प्रबल स्वाध्यायी थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 2500 पुस्तकों का वाचन किया। आगमसार पुस्तक को उन्होंने सौ बार पढ़ा। ध्यान योग साधना में उनकी रुचि थी। वे जीवन का सर्वोपरि पथ ध्यान और योग साधना को मानते थे।

*साहित्य*

बुद्धिसागर हिंदी, संस्कृत एवं गुजराती भाषा के विद्वान् थे। इन तीनों भाषाओं में उन्होंने साहित्य रचना की। उनके ग्रंथों की कुल संख्या 108 बताई गई है। उनमें 22 ग्रंथ संस्कृत के हैं। हजार पृष्ठों का विशालकाय 'महावीर ग्रंथ' लिख कर उन्होंने अध्यात्म साहित्य को गौरवमय उपहार भेंट किया। आनंदघनजी के अध्यात्मपरक पद्यों के विवेचन का श्रेय भी उन्हें है। वे अपनी प्रतिदिन की दिनचर्या (डायरी) लिखते थे।

बुद्धिसागर प्रमुख रूप से साहित्यकार नहीं, योग साधक थे। साहित्य रचना उनकी योग साधना की निष्पत्ति थी। उनके द्वारा रचित ग्रंथों में योग के स्वर मुखरित हुए हैं।

*समय-संकेत*

कर्मयोगी, ज्ञानयोगी एवं ध्यानयोगी बुद्धीसागर ने 11 वर्ष तक अपने संघ का सफलतापूर्वक संचालन किया। उनका वीर निर्वाण 2451 (विक्रम संवत् 1981) ज्येष्ठ कृष्णा तीज को स्वर्गवास हुआ।

*कमनीय कलाकार आचार्य कालूगणी के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 161* 📜

*गुलाबचंदजी चण्डालिया*

*नगरसेठ*

गुलाबचंदजी चंडालिया का जन्म संवत् 1923 को आमेट में हुआ। वे वहां के धनीमानी और प्रमुख व्यक्ति थे। पूर्वजों के समय से ही उनके परिवार को राज्य की ओर से नगरसेठ की उपाधि प्राप्त थी। बुद्धिमत्ता और विचारकता ने उनके जीवन को निखारा तो कार्यप्रणाली और मिलनसारिता ने प्रभाव को व्यापक बनाया। आमेट में तो उनकी बात का निर्विकल्प आदर होता ही था, आसपास के प्रायः सभी क्षेत्रों में भी वही स्थिति थी। उनके परामर्श का बहुत बड़ा मूल्य था। उनकी उस लोक मान्यता में नगरसेठ होने से कहीं अधिक उनका सौजन्य कारणभूत था।

*हितकारक सुझाव*

सामाजिक कार्यों के साथ-साथ वे वहां के धार्मिक कार्यों में भी अग्रणी श्रावक थे। शासन के हर क्षेत्रीय कार्यों में प्रमुखता से हाथ बंटाना और पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना उन्हें खूब आता था। वे अपनी तर्कसंगत बातों से दूसरों को वश में कर लिया करते थे। विरोधी से विरोधी व्यक्ति भी उनके परामर्श पर आदर किया करते थे। आग्रही व्यक्तियों के आग्रह को ढीला कर देने में वे विशेष निपुण थे। निम्नोक्त उदाहरण उक्त बात को अच्छी तरह से सिद्ध कर देता है—

खरनोटा की एक बाल-विधवा बहन दाखांजी को संसार से पूर्ण रूप से विरक्ति हो गई। उन्होंने दीक्षित होने का निश्चय किया। ससुराल, पीहर तथा ननिहाल के सभी लोग तेरापंथी थे, अतः आज्ञा प्राप्ति में विशेष बाधा नहीं होनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। ससुराल वालों की ओर से उन्हें घोर बाधा का सामना करना पड़ा। वे किसी भी स्थिति में आज्ञा देने को उद्यत नहीं थे। उनके उस सुदृढ़ आग्रह के पीछे शायद यह भय ही मुख्य कारण रहा होगा कि लोग कहीं ऐसा न कह दें कि भाई की मृत्यु के पश्चात् उनके विभाग का धन हड़प जाने के लिए उनकी विधवा को दीक्षा के बहाने घर से बाहर कर दिया गया।

दाखांजी ने आज्ञा प्राप्ति के लिए विचार-विमर्श, समझाना, बुझाना तथा दबाव देना आदि सभी प्रकार के उपाय करके देख लिए, पर किसी से भी कोई सफलता नहीं मिली। उनका पीहर मोखणुंदा में था। वहां से उन्होंने काफी दबाव डलवाया, परंतु उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। टाडगढ़ निवासी शिवरामजी पितलिया एक धनी मानी और प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे दाखांजी के मामा थे। उन्होंने भी अपने प्रकार से अनेक प्रयास किए, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। चारों ओर से आने वाले उन दबाव से रुष्ट होकर ससुराल वाले पहले से भी कहीं अधिक कठोर हो गए।

*क्या दाखांजी के लिए ससुराल वालों से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर दीक्षित होना संभव हो पाया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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*मुनि दीक्षा घोषणा*:
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आज दिनांक *01/01/2019* को परम पूज्य गुरुदेव *आचार्य श्री महाश्रमण जी ने* महती कृपा करके *मुमुक्षु आकाश को 'ईरोड'* में *अक्षयतृतीया* के दिन *मुनि दीक्षा प्रदान करने की घोषणा* की है।

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👉 *वृहद मंगलपाठ.........*
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*तीन आचार्यो के मुखारविंद से*
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🔹 *आचार्य श्री तुलसी*
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण*


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