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❖ ★ भगवान् नेमिनाथ कि मोक्ष स्थली गिरनार पर गौमुखी गंगा, पहली टोंक के पास चौबीस तीर्थंकर के प्राचीन चरण के दर्शन करे... जय हो प्रभु गिरनारी!! ★
राज और राजुल को तज जाए है, नेमी प्रभु मोक्ष-वधु वरजाए है!
धर्मं की धुरा ये, धर्मं चक्र चलाये है, गिरनार से केवलज्ञान को पाए है!
इनकी महिमा कोई ना गा पाये है, कुंद-कुंद देव स्वयं बतलाये है!
Line composition by Nipun Jain
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#आचार्यश्री के बैठते ही लाखों का हो गया मामूली पत्थर 29/06/2016 पूरी कहानी अवश्य पढ़ें... ऐसे पारस बना मामूली पत्थर
आचार्यश्री विद्यासागर महाराज दमोह से विहार कर पथरिया की ओर निकले थे। रास्ते में शहर से करीब नौ किलोमीटर दूर सेमरा तिराहे पर बलराम पटैल की चायपान की दुकान है दुकान के सामने ही बरगद का पेड़ लगा है आचार्य श्री कुछ पल के लिए बरगद के नीचे रखे पत्थर पर बैठ गए...
आचार्य श्री को देख चाय दुकान संचालक बलराम गदगद हो गया उसने आचार्य श्री के जाते ही पत्थर को सिद्ध स्थल पर रख दिया...
ऐसे लगने लगी बोली आचार्य श्री के आसन जमाने की बात सुनकर भक्त दुकान संचालक के पास पहुंचे। दुकान संचालक से पत्थर मांगने लगे। पांच हजार रुपए से शुरू हुई बोली पांच लाख तक पहुंच गई। लाख मनुहार करने के बाद भी दुकानदार ने पत्थर बेचने से मना कर दिया। उसने साफ कह दिया कि किसी भी कीमत पर यह पत्थर नहीं बेचेगा...
हुआ हृदय परिवर्तन -चाय दुकान संचालक बलराम पत्थर को अब ईश्वर की तरह पूज रहा है। उसका कहना है कि जिस संत के दर्शन पाने के लिए करोड़पति लाइन में खड़े रहते हैं। वह संत उनकी दुकान तक पहुंच गया। यह कोई मामूली बात नहीं है। वह उस पत्थर को आचार्यश्री की कृपा समझकर पूज रहा है...
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आचार्य श्री के शिष्य मुनि प्रणम्यसागर जी के आज आहार के आरंभ में ही अंतराय आने के बाद मुनि श्री की मुस्कान 😢😢
#अनासक्त_महायोगी -पूज्य #आचार्यविद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री प्रणम्यसागर जी द्वारा लिखा हुआ एक चंपू काव्य है, जो संस्कृत भाषा में लिखा गया है, जिसकी गद्य-पद्य दोनों रूपों में रचना की गई है साथ ही इस की हिंदी टीका भी की गई है। अनासक्त महायोगी मैं पूज्य मुनि प्रणम्यसागर जी महाराज ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की अनुपम जीवन साधना को जन्म से लेकर अब तक के साधना काल को 12 सर्गों में विभक्त किया है।
ग्रंथ प्रारंभ करते हुए मंगलाचरण के रूप में पंच परमेष्ठी भगवंतों, नवदेवता आदि को नमस्कार करते हुए प्रथम सर्ग में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरित्र का वर्णन करते हुए आचार्य श्री जी की महिमा को बताया है जो इस प्रकार है-दक्षिण में आचार्यों में प्रमुख महान मुनिश्रेष्ठ बुद्धिमान शांति सागर जी हुए हैं। उन्हीं के शिष्य इस पृथ्वी पर आचार्य वीरसागर जी, उनके शिष्य आचार्य शिवसागर जी और उनके शिष्य आचार्य ज्ञानसागर जी और उनके पट्ट शिष्य *विशाल संघ को धारण करने वाले आचार्य विद्यासागर जी मुनिश्रेष्ठ हुए हैं,उन अनासक्त महायोगी के चरित्र को कहने में इस धरती पर कौन समर्थ है? अर्थात कोई नहीं है।*फिर भी उनके श्रेष्ठ गुणों में अनुराग के कारण, भक्ति से अपने आचरण की शुद्धि के लिए अनेक प्रकृष्ट गुणों का गान यथाबुद्धि करता हूं।अपने भक्तों के लिए इष्ट सिद्धि कौन महापुरुष नहीं देता?अर्थात सभी देते हैं।
पुण्य योग से जिनका प्रभावशाली जन्म स्वतंत्रता के लाभ के लिए और कुतंत्र की हानि के लिए हुआ है।सच तो है *सूर्य के उदय होने के पश्चात क्या अंधकार का नाश अपने आप नहीं हो जाता है? अर्थात हो जाता है मोहरूपी महाकाले पटलों से आच्छादित आत्मा के लिए भानु के समान तथा घाति कर्मरूपी पर्वतों के समूहों को गिराने के लिए वज्राघात के समान आपको नमस्कार हो।* कलिकाल में उत्पन्न हुए शैथिल्य रूपी रात्रि में चलने वाले कीड़ों को जो इस धरती पर भानु की तरह दूर ही फेंक देते हैं। सम्यक्त्व रुपी दृढ़ तलवार से कुलिंगियो के कुशासन को छेड़कर जिन्होंने मुक्ति के लिए साधन भूत जिन शासन की सुरक्षा की है,आपको नमस्कार हो।.
✍ मुनि श्री 108 प्रणम्यसागर जी महामुनिराज
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#गुरुणाम्गुरु_ज्ञानसागर_मुनिराज एक अनमोल हीरे विद्यासागर को तराशने वाले महान शिल्पी आत्मशिल्पी आचार्य ज्ञानसागर महाराज का जीवन परिचय
दूसरी कड़ी
आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज का जीवन पूर्णतः स्वाश्रित था, अध्ययन काल से ही उन्होने किसी का कृपा प्रसाद बनना स्वीकार नहीं किया बल्कि स्वावलंबन को अपनाया, ऐसे विरले व्यक्तित्व ही होते है जो स्वयं के बल पर मंजिल को प्राप्त करते है।
स्वाश्रित जीवन - भूरामल जी का जब काशी में अध्ययन चल रहा था उसके दरम्यान बनारस में उन्होंने भोजनशाला में निःशुल्क भोजन करना नहीं स्वीकारा। वे सायंकाल गंगा के घाटों पर गमछा बेचकर अपने परिश्रम से उपार्जित धन से ही अपना काम चलाते थे। पंडित श्री कैलाशचंद्रजी के अनुसार इस विद्यालय के सत्तर वर्ष के इतिहास में ऐसी मिसाल देखने को अन्य न मिली, न सुनी।
ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प - श्री भूरामलजी जब बनारस में अध्ययन कर रहे थे, तब अठारह वर्ष की उम्र में जैन साहित्य के निर्माण और उसके प्रचार में विवाह को एक बहुत बड़ी बाधा मानकर उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी।
साहित्य निर्माण का संकल्प - बनारस में ही अध्ययन काल के समय घटित एक घटना ने उन्हें साहित्य निर्माण के लिये प्रेरित किया। बनारस में एक दिन भूरामलजी ने एक जैनेतर विद्वान् से जैन ग्रंथों के अध्ययन कराने का निवेदन किया। तो वह विद्वान् व्यंग्य करते हुए बोले- “जैनियों के यहाँ ऐसा साहित्य कहाँ, जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ।'' यह सुनकर उनके हृदय में गहरा धक्का लगा। क्षणभर को वे अचेत-से हो गए। उसी समय उन्होंने संकल्प किया कि “अध्ययनकाल के बाद ऐसे साहित्य का निर्माण करूंगा, जिसे देखकर जैनेतर विद्वान् भी दाँतों तले अँगुली दबा लें।''
साहित्यिक जीवन-शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर आप आपने गाँव राणोली वापस आ गये। पारिवारिक आर्थिक व्यवस्था के लिये आपने नौकरी की और जैन बालकों के लिये निःशुल्क पढ़ाना शुरू कर दिया। जब बड़े भाई गया से वापस आये तो आपने दुकान के काम से भी उदासीन होकर शुद्ध सात्त्विक भोजन, अध्ययन एवं लेखन को ही अपनी दिनचर्या बना लिया। यहाँ से उनके जीवन में साहित्यिक सर्जना के पल प्रारंभ हो गये।
विद्वत् दृष्टि: आचार्य श्री ज्ञानसागरजी
आपकी संस्कृत भाषा की साहित्यिक रचनाओं की प्रौढ़ता देखकर काशी के आज के मूर्धन्य विद्वानों की यह प्रतिक्रिया है- “इस काल में भी कालिदास, माघ और भारवि की टक्कर लेने वाले विद्वान् हैं। यह जानकर हमें प्रसन्नता होती है। ''इस कथन से उनकी अगाध विद्वत्ता व रचना कौशल का अनुमान लगाया जा सकता है।
डॉ. पं. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य - पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का साहित्य पढ़कर प्रसन्नता पूर्वक बोले “यदि मैं राजा भोज होता तो एक-एक श्लोक पर एक-एक स्वर्ण मुद्रा लुटाता।”
रघुवरप्रसाद त्रिवेदी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने एक प्रसंग में सुनाया था - ब्राह्मण समाज के एक विद्वान् रघुवरप्रसादजी त्रिवेदी ने पूज्यवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया। अवलोकन के उपरांत उन्हें कृतिकार के दर्शन करने की भावना हुई। वे विद्वान् मेरे (आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के) पास आये और दर्शन के उपरांत कहने लगे- “यदि यह कृति और कृतिकार हमारे समाज में होते तो समाजजन उनको सिर के ऊपर उठाकर रख देते।”
डॉ० सत्यव्रत शास्त्री - जब आचार्यश्री ने यह प्रसंग सुनाया तो मुनि श्री अभयसागरजी महाराज ने भी यह संस्मरण सुनाते हुए कहा कि आचार्यश्रीजी! संस्कृत के ख्यात विद्वान्, ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहीता डॉ. सत्यव्रत शास्त्री, जो तब छह माह दिल्ली में एवं छह माह थाईलैण्ड में रहते थे एवं थाईलैण्ड की राजकुमारी को संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने थाईलैण्ड की भाषा ‘थाई' में रामायण भी लिखी है। वे दिनांक २२ नवम्बर, १९९१ को डॉ. आराधना जैन, गंजबासौदा, विदिशा, म.प्र. द्वारा प्रो. डॉ. रतनचन्द्र जैन, भोपाल के निर्देशन में प्रस्तुत शोध प्रबंध ‘जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन' की मौखिक परीक्षा लेने हेतु बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल आए थे। इसके पूर्व उन्होंने इस शोध प्रबंध के मूल ग्रंथ का आद्योपान्त अध्ययन करने की इच्छा व्यक्त की। तब वे इस महाकाव्य को पढ़ करके बोले- “यदि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी इस समय होते, तो मैं उनके चरण चूम लेता।"
इसी प्रकार पूज्यवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज जब एक बार मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज को संस्कृत पढ़ा रहे थे, तो उस समय किसी प्रोफेसर की जरूरत पड़ी। तब भाई कैलाशचन्द पाटनी ‘ललजी भाई बाघसुरी वालों ने मेयो कॉलेज (अजमेर) से एक प्रोफेसर को आमंत्रित किया। प्रोफेसर साहब ने इनकी पढ़ाई देखकर कहा कि “इनको संस्कृत पढ़ाने वाले गुरु कौन हैं? हम उनके दर्शन करना चाहते हैं, जिन्होंने इनको इतनी उत्कृष्ट संस्कृत पढ़ाई है। हमको आज तीस वर्ष कॉलेज में पढ़ाते हो गये, लेकिन हम इनके जैसी उच्चस्तरीय संस्कृत में प्रवेश नहीं कर सके। धन्य हैं ऐसे गुरु और धन्य हैं ऐसे शिष्य, जिनको कि ऐसे गुरु मिले।"
एक बार संघस्थ पिच्छीधारी एक शिष्य ने आचार्यश्री जी से पूछा- “भगवन्! आपको अपने गुरु की याद आती होगी।'' आचार्यश्री जी बोले- “आनी ही चाहिए, सपनों में खूब दिखते हैं। सल्लेखना वाला दृश्य भी दिखता है। मुझे तो लगता ही नहीं कि वे हैं ही नहीं।'' शिष्य ने कहा “यह आपकी आस्था की सघनता है।'' आचार्यश्री बोले- “हमारी आस्था भी वो हैं, रास्ता भी वो हैं और शास्ता (गुरु) भी वो ही हैं। ये याददाश्त भी उन्हीं की है।"
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी द्वारा लिखी हुई संस्कृत-हिन्दी की रचनाओं पर ५० शोधकर्ताओं ने कार्य करके २ डी.लिट्., ३७ पी-एच.डी., ८ एम. ए. एवं ३ एम.फिल. संबंधी शोध प्रबंध आलेखित किए तथा ३०० से भी अधिक विद्वानों ने समालोचनात्मक शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं।
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