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*गुरु कैसे चाहियें हैं?*
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◆ जो मित्र हमें किसी बात से रोकते-टोकते नहीं हैं, हमारी हां में हां कर देते हैं, वक्त पर साथ आ जाते हैं. वे सहूलियत वाले मित्र बहुत अच्छे लगते हैं.
◆ अब ज़माना बदल गया है. ज़्यादातर लोगों को अब ऐसे ही सहूलियत वाले गुरु चाहिये हैं. ऐसे गुरु जो आपको कुछ न कहें, जब चाहो तब आपसे मिल लें, रक्षा पोटली और वासक्षेप दे दें, पगलिये करने चले आयें, आपकी बातें अच्छी तरह सुन लें, समय समय पर आपको निमंत्रण भेजें, वासक्षेप भेजें, फोन करवायें, आपके हालचाल पूछें, तो आपका मन राजी-राजी होता है. थोड़ा आपके अभिमान का पोषण भी हो जाता है. थोड़ा आपका स्टेटस भी बनता है!
◆ आधुनिक जैन समाज एक खुले बाज़ार जैसा है. बिखरा हुआ है. इसका कोई नायक नहीं है और यूं देखो तो सब नायक हैं. इसलिए यहां सहूलियत वाले गुरु बहुत हैं और सहूलियत खोजने वाले भक्तों की भी अब कमी नहीं हैं! इस मानसिक और वैचारिक भ्रष्टता ने जिनशासन की गुरु-भक्त परंपरा को मैला कर दिया है.
◆ कई साधु-साध्वी अपना आत्म-गौरव और संयम-गौरव एक तरफ़ छोड़कर बाक़ायदा भाट चारण की तरह भक्तों के लिये जीते हैं! यह अफ़सोस जनक हैं. इससे समाज बिगड़ रहा है और गरिमा टूट रही है.
◆ प्राचीन काल की वैदिक, जैन, बौद्ध, सिख, इस्लाम या अन्य कोई भी गुरु-शिष्य परंपरा अथवा गुरु-भक्त परंपरा ऐसी नहीं रही.
◆ एक राजनेता और एक धर्मनायक के बीच का महत्वपूर्ण अंतर समझा जाना चाहिये. राजनेता लोगों के लिए जीते हैं. इसलिए वे वोट लेने हेतु लोगों के पीछे-पीछे घूमते हैं. जबकि धर्मनायक तो साधना और सिद्धान्तों के लिए जीने चाहियें, वे किसी के पीछे नहीं दौड़ने चाहियें, बल्कि लोग उनके पीछे दौड़ाने चाहियें!
◆ ऐसे गुरु ही हर काल मे सामाजिक-धार्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं.
*–आचार्य श्री विमलसागरसूरिजी महाराज
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