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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 180* 📝
*रत्नत्रयी-आराधक आचार्य रेवतीनक्षत्र*
*आचार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह*
वाचक परंपरा में आचार्य नागहस्ती के बाद आचार्य रेवतीनक्षत्र और आचार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह हुए हैं। दोनों ही श्रुत-संपन्न मेधावी आचार्य हुए हैं। वाचनाचार्यों में रेवतीनक्षत्र का क्रम 19वां और आचार्य ब्राह्मद्वीपकसिंह का क्रम 20वां है।
युगप्रधान परंपरा में युगप्रधान नागहस्ती के बाद रेवतीमित्र और सिंह युग प्रधान आचार्य हुए हैं।
*गुरु-परंपरा*
नंदी स्थविरावली में आचार्य नागहस्ती, आचार्य रेवतीनक्षत्र, आचार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह का क्रमशः उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है वाचनाचार्य नागहस्ती के उत्तरवर्ती वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र तथा उनके बाद वाचनाचार्य ब्रह्मद्विपकसिंह थे।
युगप्रधान परंपरा के अनुसार युगप्रधान नागहस्ती के शिष्य रेवतीमित्र और उनके शिष्य सिंह युगप्रधान थे।
*जीवन-वृत्त*
*रेवतीनक्षत्र*
आचार्य देवर्द्धिगणी ने वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और ब्रह्मद्विपकसिंह की स्तुति की है। वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र के संबंध में नंदी स्थविरावली के स्तुत्यात्मक पद्य इस प्रकार हैं—
*"जच्चजणं-धाउसमप्पहाण मुद्दीय-कुवलयनिहाणं।*
*वड्ढउ वायगवंसो रेवइनक्खत्तनामाणं।।31।।*
आचार्य रेवतीनक्षत्र जातीय अंजन, पकी हुई द्राक्षा एवं नीलोत्पल के समान श्याम वर्ण थे। आचार्य रेवतीनक्षत्र का वाचक वंश वर्धमान स्थिति को प्राप्त हो ऐसी शुभकामना देवर्द्धिगणी ने उनके प्रति प्रकट की है।
वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र एवं रेवतीमित्र दोनों एक नहीं हैं। आचार्य रेवतीनक्षत्र से पूर्ववर्ती वाचनाचार्य नागहस्ती का स्वर्गवास आचार्य पादलिप्त की युवावस्था में ही हो गया था। उसके बाद रेवतीनक्षत्र वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए हैं। आचार्य पादलिप्त का समय आचार्य आर्यरक्षित से पूर्व का माना गया है।
युगप्रधान रेवतीमित्र आचार्य वज्रसेन के प्रशिष्य हैं। युगप्रधान आर्यरक्षित से वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र पूर्ववर्ती एवं युगप्रधान रेवतीमित्र उत्तरवर्ती आचार्य हैं। आचार्य रेवतीमित्र का युगप्रधान काल 59 वर्ष का माना गया है।
वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और युगप्रधान रेवतीमित्र इन दोनों के बीच लगभग सौ वर्ष का अंतराल संभव है।
*आचार्य ब्रह्मद्विपकसिंह व दोनों आचार्यों के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 4* 📝
*चतरोजी पोरवाल*
*धर्म-क्रांति*
स्वामीजी विहार करते हुए सोजत में आचार्य रघुनाथजी के पास पहुंचे। उनके पहुंचने से पूर्व ही उनकी बातें वहां पहुंच चुकी थीं। गुरु का रुख कठोर हो गया था। भक्ति-संभृत वंदन के अवसर पर भी उन्होंने रुख नहीं जोड़ा। स्वामीजी अवसरज्ञ थे। वे स्थितियों को बिगाड़ना नहीं, सुधारना चाहते थे। समग्र संघ का हित उनका लक्ष्य था। गुरु के माध्यम से ही वह कार्य सहजतापूर्वक हो सकता था, अतः उन्होंने अनुनय पूर्वक गुरु को प्रसन्न कर लिया। उसके पश्चात् उचित अवसर देखकर उन्होंने कई बार उनके सम्मुख आचार-विचार संबंधी चर्चा चलाई, परंतु उसका कोई निष्कर्ष नहीं निकला।
लगभग 17 महीनों के अथक प्रयास के पश्चात् स्वामीजी को जब बहुत स्पष्टता से यह ज्ञात हो गया कि उन्हें धर्म क्रांति के लिए तैयार नहीं किया जा सकता, तब संवत 1817 चैत्र शुक्ला 9 को बगड़ी में उन्होंने आचार्य रघुनाथजी से संबंध-विच्छेद कर लिया। उस समय उनके साथ अन्य चार वे ही साधु थे जो राजनगर चातुर्मास में साथ थे। धीरे-धीरे साधुओं की संख्या 13 हो गई। जोधपुर में श्रावकों की भी संख्या 13 हुई। अतः *'तेरापंथी'* नाम प्रसिद्ध हो गया। स्वामीजी ने उस नाम को स्वीकार कर लिया। उन्होंने भगवान को नमस्कार करते हुए कहा— *"हे प्रभो! यह तेरापंथ है।"*
अपना प्रथम चातुर्मास करने के लिए वे केलवा में आए। ठहरने के लिए स्थान की गवेषणा की तो विरोधी लोगों ने उन्हें एक जैन मंदिर की 'अंधेरी ओरी' बतलाई। वह स्थान जनशुन्य एवं भयंकर था। दिन में भी प्रायः वहां कोई नहीं जाता था। अनुश्रुति थी कि उस मंदिर में रात्रि के समय जो भी ठहरता है, वह प्रायः मृत ही निकलता है। विरोधियों ने 'सांप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे' की चाल चली थी। परंतु वे उसमें सफल नहीं हो पाए। स्थानाधिष्ठित देव ने सर्प के रूप में बाल मुनि भारमलजी के पैरों में आंटे दे कर एक बार उपसर्ग अवश्य किया, किंतु उस प्रथम रात्रि में ही वह स्वामी जी का भक्त हो गया। उसने आगे के लिए किसी प्रकार का उपसर्ग न होने देने का वचन दिया और वहां सानंद चातुर्मास करने की आज्ञा दी। विघ्नतोषी लोग प्रातः देखने के लिए आए। स्वामीजी आदि सभी संतो को सानंद देखा तो बहुत चकित और प्रभावित हुए।
संवत 1817 आषाढ़ पूर्णिमा को स्वामीजी आदि संतो ने भाव दीक्षा ग्रहण की। उसी के साथ तेरापंथ के रूप में धर्म-क्रांति का वास्तविक रूप जगत के सम्मुख आया। धीरे धीरे केलवा के अनेक परिवार श्रद्धालु बन गए। सर्वप्रथम वहां के कोठारी (चौरड़िया) परिवार ने तत्त्व को समझा। उनमें केलवा ठिकाने के प्रधान मूणदासजी मुख्य व्यक्ति थे। सुप्रसिद्ध श्रावक शोभजी के छोटे पितामह भैरोजी, पिता नेतसीजी तथा केसोजी आदि भी उसी समय समझे थे। इस प्रकार धर्म-क्रांति के सुदृढ़ चरण क्रमशः आगे से आगे बढ़ते चले गए।
*नींव के पत्थर चतरोजी के परिवार की सेवा भावना* के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻
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