02.09.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 02.09.2017
Updated: 04.09.2017

Update

👉 बीदासर - तिविहार संथारा प्रत्याख्यान
प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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👉 सोलापुर - जैन संस्कार विधि के बढ़ते चरण
👉 हिरियूर - महिला मंडल द्वारा सेवा कार्य
👉 शहादा (महा) - पर्युषण महापर्व की आराधना
👉 राजाजीनगर बैंगलोर - विकास महोत्सव पर कार्यक्रम
👉 कांकरिया मणिनगर (अहमदाबाद) - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 दक्षिण हावड़ा, कोलकत्ता - सामूहिक क्षमायाचना का आयोजन
👉 कोटा - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 जाखल मंडी - विकास महोत्सव व तप अभिनंदन

प्रस्तुति - *तेरापंथ संघ संवाद*

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👉 राउरकेला - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 रायपुर - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 चूरू - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 कोलकत्ता - अणुव्रत महासमिति पदाधिकारी श्री चरणों में
👉 राजरहाट, कोलकत्ता - साउथ कोलकाता महिला मण्डल द्वारा सम्यक्त्वी कौन कार्यशाला का आयोजन
👉 सूरत - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 सूरत - महिला मंडल द्वारा गर्ल्स कॉलेज में बेटी अब तो आ-जा नामक फिल्म का प्रदर्शन

प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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👉 धुपगुड़ी (सिलीगुड़ी): "तप अनुमोदना"
प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 142* 📝

*विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्रस्वामी*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

नारी समूह के आलाप-संलाप को नवजात शिशु ने सुना। उसका ध्यान इस वार्तालाप पर विशेष रूप से केंद्रित हुआ। भीतर-ही-भीतर ऊहापोह चला। तदावरण क्षीण होता गया। प्रबल क्षयोपशम भाव का जागरण होते ही बालक को जाति-स्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई। चिंतन की धारा आगे बढ़ी। "पुण्य भाग पिता ने संयम ग्रहण कर लिया है। मेरे लिए भी अब यही मार्ग श्रेष्ठ है। इस उत्तम पथ की स्वीकृति में मां की ममता बाधक बन सकती है।" ममत्व के गाढ़ बंधन को शिथिल करने हेतु बालक ने रुदन प्रारंभ किया। वह निरंतर रोता रहता। सुनंदा सुखपूर्वक न सो सकती थी, न बैठ सकती थी, न भोजन कर सकती थी। वह घर का कोई भी कार्य व्यवस्थित रुप से नहीं कर सकती थी। उसने बालक को प्रसन्न करने के नाना प्रयत्न किए। किसी प्रकार की राग-रागिनी उसके क्रंदन को बंद न कर सकी और न ही अन्य प्रकार के साधन ही उसे लुभा सके। सुनंदा उसे बहुत स्नेह देती, प्यार करती, मधुर लोरियां गाकर सुलाने का प्रयत्न करती पर बालक का रुदन कम नहीं हुआ। छह महीने पूर्ण हो गए, किसी भी जंत्र-मंत्र औषधि-चिकित्सा का उस पर प्रभाव नहीं हुआ। सुनंदा बाल रुदन से खिन्न हो गई। उसे छह माह छह सौ साल जैसे लगने लगे।

*"एवं जग्मुश्च षण्मासाः षड्वर्षशतसन्निभाः"*
*।।55।।*
*(प्रभावक चरित्र, पृष्ठ 3)*

एक दिन आचार्य सिंहगिरि का तुम्बवन नगर में पदार्पण हुआ। आचार्य समित एवं मुनि धनगिरि उनके साथ थे। प्रवचनोपरांत गोचरी के लिए धनगिरि ने गुरु से आदेश मांगा। उसी समय पक्षी का कलरव सुनाई दिया। निमित्त ज्ञान के विशेषज्ञ आचार्य सिंहगिरि ने कहा "मुने! यह पक्षी का शब्द शुभ कार्य का संकेत है। आज तुम्हें भिक्षा में सचित्त-अचित्त जो कुछ प्राप्त हो उसे ले आना।" प्रसन्नता धनगिरि ने गुरु के निर्देश को 'तथेति' कहकर स्वीकृत किया और अपने लक्ष्य की ओर चले। दोनों ने सर्वप्रथम सुनंदा के गृह की पूर्व परिचित राह पकड़ी। मुनि समिति एवं धनगिरि को आते देखकर सखियों ने सुनंदा को उनके आगमन की सूचना दी "सुनंदे! चिंता मुक्त होने के लिए सुंदर अवसर है। बालक के पिता मुनि धनगिरि तुम्हारे प्रांगण को पवित्र करने वाले हैं। उन्हें अपने पुत्र का दान कर सुखी बन जाओ।"

बालक के अनवरत रुदन से खिन्न सुनंदा को सखियों की बात पसंद आई। वह मुनि के आगमन से पूर्व ही पुत्र को गोद में लेकर खड़ी हो गई। मुनि समित एवं मुनि धनगिरि सुनंदा के घर पहुंचे। सुनंदा ने उनको वंदन किया और बोली "मुने! मैं पुत्र के अनवरत रुदन से खिन्न हूं। माता-पिता दोनों पर संतान के संरक्षण का दायित्व होता है। मैंने इतने दिन बालक का पालन किया, अब आप इसका दायित्व संभालें। इसे अपने पास रखें। बालक मेरे पास रहे या आपके पास इसकी कोई चिंता नहीं। यह सुखी रहे, इसी में मैं प्रसन्न हूं।"

दूरदर्शी मुनि धनगिरि ने कहा "मैं इस पुत्र को दान में स्वीकार कर सकता हूं पर भविष्य में इस घटना से कोई समस्या पैदा नहीं हो, अतः विवाद से बचने के लिए यह कार्य साक्षीपूर्वक करो। सोच लेना, भविष्य में तुम पुत्र के लिए किसी प्रकार की मांग नहीं करोगी।"

निर्वेद प्राप्त सुनंदा बोली "इस समय मुनि समित और ये मेरी सखियां साक्षी हैं। मैं अपने पुत्र के लिए भविष्य में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न नहीं करूंगी।"

मुनि धनगिरि ने अपने करणीय कार्य की पूर्व भूमिका को सुदृढ़ बनाकर बालक को पात्र में ग्रहण किया।

*क्या मुनि धनगिरि के पास आकर बालक का रुदन कम हुआ...? आगे क्या घटित हुआ...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 142📝

*व्यवहार-बोध*

*जिनशासन*

(दोहा)

*86.*
आगम का वह कौन-सा सुविशद व्याख्याग्रन्थ।
क्षमाश्रमण 'जिनभद्र' का, जो न बना रोमन्थ।।

*87.*
सैद्धान्तिक गण-अग्रणी, गहन ज्ञान के कोष।
जिनशासन को मिल रहा, अब भी उनका पोष।।

*52. आगम का वह कौन-सा...*

आचर्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण भाष्यकार आचार्यों की श्रेणी में विशिष्ट स्थान रखने वाले आचार्य थे। वे प्रौढ़ विद्वान् थे। आगमों के प्रति उनकी आस्था प्रगाढ़ थी। उन्हें विशिष्ट आगमधर आचार्यों में शीर्ष स्थान पर रखा जा सकता है। स्वोपज्ञ टीका के साथ उनकी प्रसिद्ध कृति 'विशेषावश्यक भाष्य' भाष्य ग्रंथों की श्रृंखला में बहुत महत्त्वपूर्ण है।

आगम साहित्य का ऐसा कोई भी ग्रंथ नहीं है, जो उनका चबैना नहीं बना हो। उनके उत्तरवर्ती आचार्य में जिन्होंने भी आगम का व्याख्या साहित्य लिखा, उनके लेखन को यत्र-तत्र उद्धृत किया है। उन्होंने कुछ भी लिखा है, वह उनका ही रोमन्थ है– चर्वितचर्वण है। इससे प्रतीत होता है कि जिनभद्रगणी सिद्धांतवादी आचार्य थे। वे गंभीर ज्ञान के भंडार थे। उनसे अब भी जिनशासन को पोषण मिल रहा है। ऐसे महान् आचार्यों के प्रति मन में सहज ही आस्था के भाव जागते हैं।

*जिनशासन के महान् आचार्य भिक्षु, आचार्य भारिमाल, आचार्य जीतगणी, आचार्य मघवागणी, आचार्य कालूगणी के जीवन की कुछ विशेषताओं* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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*त्याग और साधना से प्राप्त हो सकती है शान्ति: आचार्यश्री महाश्रमण*

*-आचार्यश्री ने आर्त ध्यान में जाने के चैथे कारण को किया व्याख्यायित*

*-काम और भोग का वियोग भी आदमी को ले जा सकता है आर्त ध्यान की ओर*

*-‘तेरापंथ प्रबोध’ से आचार्यश्री श्रद्धालुओं को प्रदान कर रहे पावन प्रेरणा*

*-साध्वीवर्याजी ने भी अपने उद्बोध और गीत से लोगों को दिखाई आध्यात्मिकता की राह*

दिनांक 02-09-17

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🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻

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Update

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 141* 📝

*विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्रस्वामी*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

शुभ मुहूर्त एवं शुभ घड़ी में सुनंदा एवं धनगिरि का विवाह उल्लासमय वातावरण में संपन्न हुआ। सांसारिक भोगों को भोगते हुए उनका जीवन सानंद बीतता गया। एक दिन सुनंदा गर्भवती हुई। स्वप्न के आधार पर पुत्ररत्न का आगमन जानकर पति और पत्नी दोनों प्रसन्न हुए।

धनगिरि ने अपने को धन्य माना। उन्हें लगा अपनी मनोकामना पूर्ण करने का अब उचित अवसर आ गया है। एक दिन अपनी भावना को पत्नी के सामने रखते हुए उन्होंने कहा "सुनंदे! नारी को बाल्यकाल में पिता के द्वारा, यौवन में पति के द्वारा संरक्षण प्राप्त होता है। तुम्हारे स्वप्न के आधार पर तुम निःसंदेह पुत्रवती बनने का सौभाग्य प्राप्त करोगी। तुम्हारे मार्ग में अब किसी प्रकार की चिंता नहीं है। मैं अपने ऋण को उतार चुका हूं। अब तुम मुझे प्रसन्नतापूर्वक संयम मार्ग पर बढ़ने की आज्ञा प्रदान करो।" नारी भावुक होती है। सौम्य हृदया सुनंदा पति के पुनः पुनः प्रस्ताव पर विवश मन से सहमत हुई एवं उसने संयम पथ ग्रहण करने के लिए पति धनगिरि को आज्ञा प्रदान कर दी।

उत्तम पुरुष श्रेय कार्य में क्षणमात्र भी प्रमाद नहीं करते। पत्नी के द्वारा स्वीकृति मिलते ही श्रेष्ठी पुत्र धनगिरि जीर्ण धागे की तरह प्रेम बंधन को तोड़कर त्याग के कठिन पथ पर चल पड़े। उनके दीक्षा प्रदाता आचार्य सिंहगिरि थे।

आर्य समित एवं धनगिरि परस्पर साला-बहनोई थे। दोनों का संबंध सुनंदा के निमित्त से था। जैन शासन में दोनों प्रभावी मुनि थे। पैरों पर लेप लगाकर नदी तैरने वाले 500 तापसों के विस्मयाभिकारक मायावी आवरण को हटाकर भ्रांत जनता के सामने सत्य धर्म का यथार्थ रूप प्रकट करने वाले मुनि समित एवं प्रचार में अनन्य सहयोगी मुनि धनगिरि दोनों आचार्य सिंहगिरि की दो सुदृढ़ भुजा स्वरूप थे। इन मुनियों के सहयोग से आचार्य सिंहगिरि का धर्म प्रचार दिन-प्रतिदिन उत्कर्ष पर था।

इधर गर्भकाल का समय संपन्न होने पर सुनंदा ने तेजस्वी पुत्र रत्न को वीर निर्वाण 496 (विक्रम 26, ईस्वी पूर्व 31) में जन्म दिया। पुत्र जन्मोत्सव की तैयारियां प्रारंभ हुईं। कई सखियां सुनंदा को घेरकर खड़ी थीं। जन्मोत्सव की आनंदमयी घड़ी में धनगिरि का स्मरण करती हुई बोलीं "बालक के पिता धनगिरि प्रव्रज्या ग्रहण नहीं करते और इस समय उपस्थित होते तो आज जन्मोत्सव के हर्षोल्लास का रूप कुछ दूसरा ही होता। स्वामी के बिना घर की शोभा नहीं होती। चंद्र के बिना नभ की शोभा नहीं होती।"

*नारी समूह के आलाप-संलाप को क्या नवजात शिशु ने सुन रहा था...? और इसका उस पर क्या असर हुआ...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 141📝

*व्यवहार-बोध*

*जिनशासन*

लय– देव! तुम्हारे...

*84.*
'कुन्दकुन्द' की अमर भारती,
आत्मा का अतिशय आलोक।
समयसार की समयसारणी,
निश्चय नय का फलद अशोक।।

*50. 'कुन्दकुन्द' की अमर भारती...*

जिनशासन के देदीप्यमान नक्षत्रों में से एक महानक्षत्र हुए हैं— आचार्य कुन्दकुन्द। दिगम्बर परंपरा में उनका गरिमापूर्ण स्थान है तो श्वेतांबर परंपरा में भी उनको आदर के साथ पढ़ा जाता है। उन्होंने आत्मा की गहराई में उतरकर अध्यात्म की अज्ञात दृष्टियों को उजागर करने का महत्त्वपूर्ण काम किया। उनके साहित्य में अध्यात्म का विशद विवेचन उपलब्ध है। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रंथों में एक समयसार से ही उनको विशिष्ट पहचान उपलब्ध हो गई। उन्होंने निश्चय नय को महत्त्व दिया। फिर भी उनका चिंतन एकांगी नहीं था। उनके साहित्य और जीवन पर अनेकांत दृष्टि से काम करने की अपेक्षा है।

*85.*
प्राकृत से संस्कृत के युग में,
किया सुचिन्तित प्रथम प्रवेश।
सूत्रकार संग्रहकौशल में,
'उमास्वाति' का अभिनव वेश।।

*51. प्राकृत से संस्कृत...*

आचार्य उमास्वाति का युग संस्कृत का युग था। नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध आदि प्रसिद्ध दर्शनों के विशिष्ट विद्वान् संस्कृत में ग्रंथ लिख रहे थे। उमास्वाति ने सोचा— जैनदर्शन संस्कृत में नहीं लिखा गया तो वह युग का दर्शन नहीं बन पाएगा। प्राकृत से संस्कृत के युग में उनका प्रवेश आकस्मिक नहीं था। उन्होंने चिंतनपूर्वक यह काम किया।

उमास्वाति आगम साहित्य के गंभीर विद्वान् थे। उनके द्वारा लिखा गया 'तत्त्वार्थसूत्र' उनकी बहुश्रुतता और गहन अध्यवसायशीलता का सूचक है। तत्त्वार्थसूत्र पर उन्होंने स्वयं विशद व्याख्या लिखी, जो 'तत्त्वार्थाधिगम' भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि तत्त्वार्थसूत्र की टीकाएं भी काफी प्रसिद्ध हैं।

वाचक आचार्यों की परंपरा में उमास्वाति का नाम बहुत गौरव के साथ लिया जाता है। उनके जीवन का सर्वाधिक गौरवपूर्ण पृष्ठ यह है कि वे दिगंबर परंपरा और श्वेतांबर परंपरा दोनों के बीच एक कड़ी के रुप में मान्य रहे हैं। उनके तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन-अध्यापन भी दोनों परंपराओं में चलता है। वे विशिष्ट संग्रहकार थे। उन्होंने आगमों का मंथन कर एक तत्त्वार्थसूत्र में बहुत विषयों का संग्रह कर दिया। उपोमास्वातिं संग्रहीतारः— आचार्य हेमचंद्र का यह कथन उन्हें संग्राहक आचार्यों की अग्रिम पंक्ति में स्थापित करने वाला है।

*जिनशासन* के बारे में आगे और जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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👉 पूज्य प्रवर का प्रवास स्थल -"राजरहाट", कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में

👉 गुरुदेव मंगल उद्बोधन प्रदान करते हुए..

👉 आज के मुख्य प्रवचन के कुछ विशेष दृश्य..

दिनांक - 02/09/2017

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प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 140* 📝

*विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्रस्वामी*

*जीवन-वृत्त*

आचार्य वज्र का जन्मस्थल तुम्बवन ग्राम तात्कालीन व्यापार का प्रमुख केंद्र था। इसकी गणना समृद्धि नगरों में थी। इसकी शोभा स्वर्ग के समान थी। वज्रस्वामी के पितामह श्रेष्ठी धन तुम्बवन के ख्याति प्राप्त दानवीर थे। उनके द्वार पर आया हुआ याचक खाली नहीं लौटता था।

पूर्व पुण्योदय से श्रेष्ठी धन के पुत्र धनगिरि को धन संपदा के साथ अनुपम रूप संपदा भी प्राप्त थी, पर विवेकी बालक धनगिरि को न धनसंपदा का गर्व था और न रूप संपदा का, न भोगों में रस था, न घर में आकर्षण।

रूपश्री और धनश्री दोनों में से एक भी धनगिरि को दृष्टि से भ्रांत नहीं कर सकी। विवाह संबंध हो जाने पर भी श्रेष्ठी पुत्र का चिंतन संयमी जीवन की ओर आकृष्ट था। एक दिन युवा धनगिरि ने वैराग्य वृत्ति से भोगों को ठुकराकर मुनि जीवन में प्रवेश किया। उस समय पुत्र वज्र गर्भावस्था में था। एक दिन पुत्र वज्र भी पिता के मार्ग का अनुसरण करने में सफल हुआ। न पत्नी के यौवन की मादकता पति धनगिरि को रोक सकी न मां की ममता पुत्र वज्र को बांध सकी। धनगिरि और वज्र दोनों संयम पथ के पथिक बने। दोनों का दीक्षा प्रसंग अत्यंत रोचक और मार्मिक है। वह इस प्रकार है—

श्रेष्ठी पुत्र धनगिरि का बाल्यकाल आनंद से बीता। माता की अपार ममता और पिता का वात्सल्य उन्हें प्राप्त था। घर में सब प्रकार से संपन्नता थी पर धनगिरि का मन कर्दम में कमल की भांति सांसारिक विषयों में निर्लिप्त था। उसी नगर में विपुल लक्ष्मी का स्वामी धनपाल रहता था। वह प्रसिद्ध व्यापारी था। धनपाल के पुत्र का नाम समित था एवं पुत्री का नाम सुनंदा था। धनगिरि की भांति कुमार सुमित भी भोगों के प्रति अनासक्त था। श्रुत मलयाचल आचार्य सिंहगिरि के आगमन पर परम वैराग्य को प्राप्त समित ने उनसे मुनि दीक्षा ग्रहण की। गुणवती सुनंदा धनपाल की रूपवती कन्या थी। धनपाल को पुत्री के विवाह की चिंता का भार अधिक समय तक नहीं वहन करना पड़ा। सुनंदा धनगिरि के रूप और गुणों पर मुग्ध थी। उसने एक दिन अपने विचार पिता के सम्मुख प्रस्तुत किए "आप मुझे श्रेष्ठी पुत्र धनगिरि को प्रदान करें।" इस प्रकरण से अनुभव होता है उस युग में लड़कियां वर चुनाव में स्वतंत्र थीं। धनपाल ने पुत्री के विचारों को ठीक समझा। धनगिरि से इस संबंध में बातचीत की। उसने अपनी रूपवती कन्या सुनंदा से पाणिग्रहण करने के लिए उनसे आग्रह किया। प्रभावक चरित्र के अनुसार सुनंदा ने अपनी ओर से किसी भी प्रकार का विचार पिता के समक्ष प्रकट नहीं किया। धनपाल ने ही यह संबंध ठीक समझकर धनगिरि से अपनी कन्या के साथ पाणिग्रहण का आग्रह किया था।

धनगिरि का मन विरक्त था। दामाद बनाने को उत्सुक श्रेष्ठी धनपाल से धनगिरि ने कहा "अपने मित्रजनों को भव बंधन में डालना स्वजनों के लिए कहां तक समीचीन है?"

धनगिरि की बात सुनकर श्रेष्ठी धनपाल गंभीर हुआ और आध्यात्मिक भावभूमि पर भावों को अभिव्यक्त करते हुए बोला "कर्मों के विपाक भोगने के लिए भवार्णवपारगामी तीर्थंकर ऋषभ प्रभु ने भी सांसारिक बंधन स्वीकार किया था, अतः मेरी बात किसी प्रकार से अनुचित नहीं है।"

नारी को बंधन मानते हुए भी धनगिरि श्रेष्ठी धनपाल के आग्रह को नहीं टाल सके। उन्होंने अन्यमनस्क भाव से मौन स्वीकृति प्रदान की।

*धनगिरि ने विवाह के बाद कैसे संयम ग्रहण किया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

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📝श्रृंखला -- 140📝

*व्यवहार-बोध*

*जिनशासन*

लय– देव! तुम्हारे...

*83.*
अनेकान्त के उद्गाता की,
प्रथम पंक्ति में पहला नाम।
सम्मति-कर्ता सन्मतिदाता,
'सिद्धसेन' अभिधान ललाम।।

*48. अनेकान्त के उद्गाता...*

अवंती के प्रकांड विद्वान् सिद्धसेन ने वादकुशल आचार्य वृद्धवादी के साथ शास्त्रार्थ करने के बाद उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। वे अपने युग के प्रखर दार्शनिक विद्वान् थे। भगवान महावीर के बाद बौद्ध, सांख्य, वैदिक आदि सभी दर्शनों में उच्च कोटि के विद्वान् हुए। जैन दर्शन में भी अनेक आचार्यों की विद्वत्ता शिखर पर थी। उनमें एक थे आचार्य सिद्धसेन।

कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र ने हेमशब्दानुशासन में 'अनुसिद्धसेनं कवयः' लिखकर उसे युग के सब कवियों को आचार्य सिद्धसेन का अनुगामी बताया है। आचार्य सिद्धसेन की विद्वत्ता का उल्लेख करते हुए उन्होंने 'आयोगव्यवच्छेदिका' में लिखा है—

क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था,
अशिक्षितालापकला क्व चैषा।

सिद्धसेन की गंभीर अर्थ वाली स्तुतियों के सामने मेरे जैसे व्यक्ति का प्रयास अशिक्षित का आलाप मात्र है। इस कथन से कल्पना की जा सकती है कि वे कितने बड़े विद्वान् थे।

अनेकांत जैनदर्शन का महान् सिद्धांत है। अनेक आचार्यों ने अनेकांत पर गंभीर विवेचन किया है। आचार्य सिद्धसेन को प्रथम श्रेणी के आचार्यों में सर्वोपरि माना जा सकता है। संस्कृत और प्राकृत में उनके अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। उन्होंने 32 द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। प्रस्तुत संदर्भ में उनके एक ग्रंथ 'सन्मति तर्क' का उल्लेख किया गया है। प्राकृत भाषा में संदृब्ध इस ग्रंथ में पांच ज्ञान, नय, अनेकांत आदि का सांगोपांग विवेचन है।

*जिनशासन* के बारे में आगे और जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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  1. आचार्य
  2. आचार्य भिक्षु
  3. कोटा
  4. ज्ञान
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  6. दर्शन
  7. भाव
  8. महावीर
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  10. शिखर
  11. सांख्य
  12. सोलापुर
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