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Gadal, Dharapur, Guwahati, Assam, India
अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
श्रावक के तीन मनोरथ कर सकते हैं आत्मा का कल्याण: आचार्यश्री
-साधु समाज भी अपनी आत्मा के कल्याण का करे प्रयास
-साध्वीवर्याजी ने गीत के माध्यम से श्रद्धालुओं को दी प्रेरणा
11.09.2016 गड़ल (असम)ः जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल मंे उपस्थित श्रद्धालुओं को आत्मकल्याण के मार्ग का बोध कराया। आचार्यश्री ने श्रावक के तीन मनोरथों का वर्णन किया और बताया कि तीन मनोरथों के माध्यम से आदमी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है और इस लोक में शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
जन-जन का कल्याण करने के लिए अहिंसा यात्रा लेकर निकले महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी अब तक हजारों किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए देश नौ राज्यों को अपने चरणरज से पावन कर चुके हैं। इसके साथ ही उन्होंने नेपाल और भूटान की धरती को पावन कर वहां के लोगों को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति का संदेश देकर कृतार्थ किया है। ऐसे मानवता के मसीहा वर्तमान समय में असम राज्य के कामरूप जिले के गड़ल, धारापुर में अपना चतुर्मास काल व्यतीत कर रहे हैं। उनका यहां चतुर्मास करने से ऐसा महसूस हो रहा है जैसे गड़ल में एक नया तीर्थस्थल बन गया हो। पूरे दिन श्रद्धालुओं की भीड़ महासंत के दर्शन, सेवा और श्रवण का लाभ लेने के लिए पहुंचती है और उनका दर्शन, सेवा का लाभ उठाती है। आचार्यश्री के वचनामृत को सुनकर अपने जीवन को सफल बनाने का भी लोग प्रयास करते हैं।
रविवार को आचार्यश्री ने श्रावकों के तीन मनोरथ का वर्णन करते हुए कहा कि श्रावक का पहला मनोरथ परिग्रहों का अल्पीकरण या अपरिग्रही बनने का होना चाहिए। आदमी यह सोचे की वह कब धन, दौलत संपत्ति आदि का त्याग कर अपरिग्रह का जीवन व्यतीत करे। परिग्रह के मोह से आदमी को बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए। कब मुण्डित हों अर्थात जीवन में कब साधुत्व के व्रत को स्वीकार करूं-यह श्रावक का दूसरा मनोरथ होना चाहिए। एक समय के बाद गृहस्थावस्था का त्याग कर साधु बनकर अपनी आत्मा के कल्याण का भावक श्रावक के मन में होना चाहिए। अपने न बन सके तो अपने परिवार के किसी सदस्य को साधु बनने की प्रेरणा दे या अपने बच्चों को साधुत्व व्रत स्वीकार करने को प्रेरित करे। श्रावक का तीसरा मनोरथ होना चाहिए कि वह अपनी प्राणों का त्याग संथारा, संलेखना के माध्यम से हो। उसके प्राण बिना संथारे के न निकलें। यह तीनों भावनाएं किसी आदमी के भीतर पुष्ट हों तो उसके आत्मा का भी कल्याण हो सकता है।
आचार्यश्री ने कहा कि साधु के मन में भी संथारे की भावना होनी चाहिए। साधु आगम का स्वाध्याय, करे, ज्ञानार्जन कर और अंत में अनशन के माध्यम से प्राणांत की भावना रखे तो उसका भी कल्याण हो सकता है। आचार्यश्री के प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने ‘जिसका जीवन सद्गुण का भंडार है’ गीत का संगान किया। वहीं 2018 में कटक में आयोजित मर्यादा महोत्सव का लोगो और बैनर-पोस्टर के साथ कटक के श्रद्धालु आचार्यश्री की सन्निधि में पहुंचे और आचार्यश्री का पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।
चन्दन पाण्डेय
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