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मुनि श्री सौरभ सागर जी महाराज ने कहा कि अगर सेवक गुणवान होता है तो मालिक प्रसन्न होकर उसे धनवान बना देता है उसी प्रकार भक्त श्रद्दावान होता है तो वह भगवान के गुणो को शीध्र उपलब्ध हो जाता है ।
अर्हंत वही है जिन्होने चार घातिया कर्मो को नष्ट कर दिया एवं अट्ठारह दोषो से रहित है । समवशरण मे विराजमान है। हमे आज साक्षात उनके दर्शन नहीं मिल रहे है पर प्रतिक्रति की आराधना करके ही हम उन तक पहुँच सकते है, लेकिन भक्ति सच्ची होनी चाहिए क्योकि भक्ति ही सेतु का कार्य करती है । भक्ति एक माध्यम है परमात्मा से मिलने का, ध्यान रखे परमात्मा तो मक्खन से भी ज्यादा मुलायम है, पर वे भी तभी पिघलते है जब भक्त की भक्ति मे ऊष्मा होती है। यहा प्रभु के अर्थ स्वयम के परमात्मा का जागरण है, पुण्य की व्रद्धि है एवं वही भक्ति का जागरण होता है, जहा भक्ति है वही त्याग है, जहा त्याग है वही ध्यान है, जहा ध्यान है वही परमात्मा का दर्शन है । इसलिए तो कहा है कि “ पुण्य फला अर्हंता “ । पुण्य का फल ही अर्हंत पद देता है । आराध्य की आराधना ही तीर्थंकर प्रकृ्ति के बंध की साधना