24.12.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 24.12.2015
Updated: 05.01.2017

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श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीनाजी-बारहा क्षेत्र परिचय

परम पावन अतिशय क्षेत्र बीनाजी-बारहा बुंदेलखण्ड में जैन संस्कृति की गौरवपूर्ण धरोहर है। यह एक प्राचीन अतिशय क्षेत्र है, जो सुख-चैन नदी के समीप अपनी अलौकिक छटा बिखेरता हुआ प्रकृति के सुरम्य वातावरण में स्थित है। प्राचीनता, भव्यता, अतिशय एवं आकर्षण में यह पावन क्षेत्र अपना अद्वितीय स्थान रखता है।

स्थिति
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीनाजी-बारहा मध्यप्रदेश के सागर जिले के तहसील मुख्यालय देवरी (राष्ट्रीय राजमार्ग २६) से पूर्व की ओर ८ कि.मी. पर स्थित है। पश्चिम मध्य रेलवे की बीना-कटनी रेल लाइन पर निकटवर्ती रेलवे स्टेशन सागर से देवरी ६५ कि.मी. एवं जबलपुर-इटारसी रेल लाइन पर निकटवर्ती रेलवे स्टेशन करेली से देवरी ५० कि.मी. दूरी पर अवस्थित है।
क्षेत्र दर्शन

क्षेत्र पर विशाल गगनचुम्बी शिखरों से युक्त ३ जिनालय हैं। शांतिनाथ जिनालय में कार्योत्सर्ग मुद्रा में १००८ शांतिनाथ भगवान की अतिशय युक्त, आकर्षक १६ फुट उत्तुंग प्रतिमा के दर्शन करने से श्रद्धालुजन भक्ति में भाव-विभोर हो जाते हैं। इस मंदिर के बाह्य भाग की तीन दिशाओं में देशी पाषाणयुक्त, कलाकृति से परिपूरित अनेक प्रतिमाएँ ६ वेदियों पर विराजमान हैं, जिनका कलात्मक सौंदर्य अति मनोज्ञ है। मामा-भानेज के नाम से प्रसिद्ध, वंशी पहाड़पुर के लाल पत्थरों से जीर्णोद्धार किए जा रहे जिनालय में महावीर भगवान की १३ फुट ऊँची, १२ फुट-४ इंच चौड़ी, पद्मासनस्थ, चूने और गारे से निर्मित प्रतिमा दर्शनीय है। इस मंदिर के गर्भगृह में दक्षिण की ओर देशी पाषाण से निर्मित चंद्रप्रभु भगवान की ६ फुट-९ इंच ऊंची प्रतिमा तथा उत्तर की ओर बाहुबली भगवान की २ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इसी जिनालय के नीचे तलघर में वेदिका पर अजितनाथ भगवान की प्राचीन प्रतिमा विराजमान है एवं मंदिर के सामने नगाड़खाने में ऊपर वेदिका पर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है। क्षेत्र के मंदिरों का जीर्णोद्धार सेठ बंशीधरजी सरावगी, कलकत्ता वालों ने पूर्व में करवाया था। क्षेत्र परिसर में एक और छोटा-सा जिनालय है। इसके सामने एक मानस्तंभ बना हुआ है, जो अति ही आकर्षक है। क्षेत्र पर कलाकृति की दृष्टि से बेजोड़ उदाहरण स्वरूप विश्व का एकमात्र गंधकुटी जिनालय है। वह ६१ फुट उत्तुंग, लाल पत्थर से जीर्णोद्धारित होकर आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, जो दर्शनार्थियों के मन को मोह लेता है। इस प्रकार क्षेत्र पर आकर दर्शनार्थी शांति एवं आनंद का अनुभव करते हैं।
क्षेत्र का अतिशय

इस संबंध में यह अनुश्रुति है कि एक धर्मात्मा जैन गाँव-गाँव जाकर बंजी (व्यापार) करते हुए अपनी आजीविका चलाता था। इस हेतु ही वह बीनाग्राम में भी आता था। रास्ते में एक स्थान पर उसे प्रायः ठोकर लगती थी। एक रात उसे स्वप्न आया कि जहाँ तुम्हें ठोकर लगती है, वहाँ खोदने से श्री शांतिनाथ भगवान की मूर्ति के दर्शन होंगे। अतः उसने २ दिन खुदाई की। तीसरे दिन पुनः स्वप्न आया कि तुम जहाँ मूर्ति स्थापित करना चाहते हो, वहीं ले जाकर रुकना और इस बीच पीछे मुड़कर नहीं देखना, अन्यथा भगवान वहीं रुक जाएँगे। वह श्रावक तीसरे तीन गया और खोदने पर उसे शांतिनाथ भगवान की मूर्ति के दर्शन हुए। दर्शन पा वह भक्ति में ओतप्रोत हो गया। प्रभु चरणों में लीन हो गया। भगवान को छोटी, ठठेरे (हल्की लकड़ी) की गाड़ी में बैठाकर आगे बढ़ा तो उसे जय-जयकार व संगीत का नाद सुनाई दे रहा था। फलतः उससे न रहा गया और कौतूहलवश उसने पीछे मुड़कर देख ही लिया तो गाड़ी वहीं रुक गई। यह वही स्थान है, जहाँ शांतिनाथ भगवान विराजमान हैं। बीना बारहा अतिशय क्षेत्र है और भी एक ऐसा अतिशय शांतिनाथ भगवान का है कि एक चम्मच घी से पूरी तरह दीपक जलना- जैसे अनेक अतिशय हैं, जो क्षेत्र की चमत्कारिता की यशोगाथा गाते हैं। अतः क्षेत्र प्राचीन, अतिशयकारी, मनोज्ञ व दर्शनीय है। क्षेत्र पर दयोदय गौशाला भी स्थापित है।

इस युग के महान तपस्वी, प्रातःस्मरणीय, विश्ववंदनीय आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का पदार्पण अनेक बार इस क्षेत्र पर हुआ है। यह क्षेत्र का महान सौभाग्य है। सन्‌ १९७८ में आचार्य श्री जी के ससंघ मंगलमय सान्निध्य में ऐतिहासिक पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव हुआ था। आचार्यश्री जी इस क्षेत्र पर अनेक बार शीतयोग,

ग्रीष्म योग में भी विराजित हुए हैं। हम सभी के परम सौभाग्य से वर्ष २००५ में आचार्य श्री एवं संघस्थ ५० मुनिराजों के वर्षायोग का सौभाग्य भी इस क्षेत्र को प्राप्त हुआ है। आचार्य गुरुदेव का क्षेत्र के विकास हेतु मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त है और इससे क्षेत्र ने उल्लेखनीय प्रगति की है। क्षेत्र ने अत्यधिक भव्य एवं आकर्षक स्वरूप प्राप्त कर भारत वर्ष के तीर्थक्षेत्रों में विशिष्ट जगह बनाई है। यह सब आचार्य गुरुवर के मंगल आशीर्वाद की ही कृपा है। आचार्यश्री विद्यासागरजी द्वारा ‘स्तुति-शतक’ की रचना यहाँ पूर्ण कर इस क्षेत्र के विषय में लिखा हैः
बीना बारा क्षेत्र पै सुनो! नदी सुख-चैन।
बहती-बहती कह रही, इत आ सुख दिन-रैन॥

पत्र व्यवहार पता तहसील- देवरीकलाँ, पिन - ४७० २२६, जिला- सागर, मध्यप्रदेश संपर्कः- +९१ - ७५८६ - २८०००७ महेन्द्र जैन - ९४२५४५११५३ प्रकाश जैन - ९४२५८३८१७८ संजय जैन - ९४२५०५३५२१

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👭 बाल शिक्षा 👭 प्रार्थना ➽ Jainism -the Philosophy

हम छोटे-छोटे बच्चे है,
हम भोले-भाले बच्चे है,
हाथ जोड़ हम विनती करते,
तुम चरणों में माथा धरते।

गुरुवर! हमको दो वरदान,
हटें न पीछे जो लें ठान,
खेले-कूदें और पढें हम,
अच्छे-अच्छे काम करें हम।।

संकलित - क्षुल्लक श्री ध्यानसागरजी महाराज
🙏आगम धारा परिवार🙏 जैनं जयतु शासनम्।।

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श्री दिगंबर जैन सर्वोदय तीर्थ क्षेत्र अमरकंटक

“विद्या-निलय” शांति निकेतन (बॉम्बे हॉस्पिटल के पास) इन्दौर (म.प्र.)
जिन मन्दिर हमारी आराधना और साधना के प्रेरक निमित हैं। ये साधर्मी वात्सल्य को सघन करने एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरुकता के शक्ति-केन्द्र हैं। ये हमारे चिंतिन-मनन को स्फूर्त करते हैं। विश्ववन्दनीय परमपूज्य संतशिरोमणी आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी गुरुवर ससंघ के मंगल आशीर्वाद से जंगल में भी साक्षात मंगल का वातावरण व्याप्त हो जाता है। मध्यप्रदेश के जिला अनूपपुर के अकृत्रिम उपवन में अमरकंटक को विश्वव्यापी पहचान प्रदान करने के लिये जैन संस्कृति का भव्य तथा परिपूर्ण हजार वर्ष से अधिक आयु वाला पाषाण का जिनालय तेजी से आकार ग्रहण कर रहा है। स्व. श्री धर्मवीर बाबूलाल जी तथा परिवार (दुर्ग) के सहयोग से निर्मित प्रथम तीर्थंकर परम आराध्य 1008 भगवान श्री आदिनाथ की अद्भुत, मनोज्ञ, विशाल, विश्व में सर्वाधिक वजनी 24 टन अष्टधातु की प्रतिमा जो 28 टन अष्टधातु के कमल पर विराजित (कुल वजन 52 टन) के कारण राष्ट्र और विश्व में स्वर्ण मंडित है। प्रतिमा ज्ञानवारिधि आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी महामुनिराज तथा ससंघ 44 निर्ग्रंथ शिष्य मुनिगणों के सानिध्य में गुरुवार 6 नवम्वर 2006 को शुभमुहूर्त में विराजित की गयी थी। गुड, चूना और राजस्थान के पाषाण के उपयोग से इसे भव्य कलात्मक, अद्वितीय निर्माणाधीन जिनालय को देख कर जैन-अजैन सभी श्रद्धालु दाँतों तले उँगली चबाने को बाध्य हैं। इस मन्दिर के निर्माण में लोहा, सीमेंट का उपयोग बिल्कुल भी नहीं किया जा रहा है। इस साधना स्थल के संस्थापक अध्यक्ष श्री उदयचन्द्र जी जैन आदि के अथक प्रयास अभिनन्दनीय है। मूर्ति एवं मंदिर परिचय
गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड के लिए प्रस्तावित परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से कानपुर (उन्नाव) में ढली, अष्ट-धातु से निर्मित २४,००० किलोग्राम वजनी संसार की सबसे वजनदार भगवान श्री आदिनाथजी की पद्मासन प्रतिमा है। जिन्हें सनातन सम्प्रदाय में भी आदि ब्रह्मा के नाम से जाना जाता है।

१७,००० किलोग्राम का अष्ट-धातु का कमल, जिसको अहमदाबाद में ढाला गया है, जिस पर भगवान को विराजमान किया गया है। इस प्रकार से कुल ४१,००० किलोग्राम वजनी प्रतिमा एवं कमल है।

यहाँ अतिशीघ्र एक भव्य जिनालय का निर्माण कार्य पूर्ण होने वाला है, जिसके शिखर अर्थात्‌ मंदिर की ऊँचाई १५१ फुट रहेगी।

जिनालय अमरकंटक के सबसे बडे उतुँग शिखर स्थित इस दिगम्बर जिनालय के प्राँगण का क्षेत्रफल 3 लाख वर्गफूट है। 21 अप्रैल 2002 को शुभ-मुहूर्त में समाज श्रेष्ठी समाज भूषण अशोक जी पाटनी (आर.के.मार्बल) के करकमलों द्वारा शिलान्यास हुआ। भगवान श्री आदिजिनेश्वर के इस अनुपम जिनालय की ऊँचाई 51 फूट, लम्बाई 450 फूट और चौराई 125 फूट है। 3 सितम्बर 2006 को पावन मुहूर्त में जिनालय के प्रांगण में प्रज्ञाश्रम आचार्य श्री विद्यासागर जी ससंघ के सानिध्य में “सिंहद्वार” और “मानस्तम्भ” का भूमिपूजन किया गया। सिंहद्वार सुप्रसिद्ध ओडिसी स्थापत्य कला शैली में प्रतिमाजी की गरिमा के अनुरूप वास्तु सम्मत विशाल सिंहद्वार का आकार 51 फुट ऊंचा, 42 फुट लम्बा और 42 फुट चौडा, भव्य, कलात्मक मानस्तम्भ का निर्माण सम्पन्न किया जायेगा। युवा हृदय श्री मनीष जैन बुढार की सतत कार्य-कर्मठता सराहनीय है। यात्री निवास यात्रियों की सुविधा के लिये 23 वी.आय.पी. बेडरूम हैं, जिनके 11 कमरे अटेच हैं। 8ब्लॉक-बँगले सर्वसुविधा सम्पन्न हैं। 100 अस्थाई टिनशेड कमरें और प्रवचन-पाण्डाल भी है। क्षेत्र दर्शन अमरकंटक नैसर्गिक सौंदर्य, प्राकृतिक मनोरम दृश्य, हरीतिमा के साथ ही सुप्रसिद्ध नर्मदा, सोन एवं जुहिला नदियों की उद्‍गम स्थली है तथा हिल स्टेशन भी है। कटनी - बिलासपुर रेलखंड पर अमरकंटक के लिए निकटवर्ती रेलवे स्टेशन पेंड्रा रोड ४५ किलोमीटर दूर है। बिलासपुर से १०१, डिंडोरी से ८०, बुढ़ार से ८५ किलोमीटर दूर अमरकंटक है। दक्षिण भारत से आने वाले यात्री नागपुर - बिलासपुर पेंड्रा रोड, उत्तर भारत / दिल्ली आदि की ओर से आने वाले यानी बीना-कटनी-पेंड्रा रोड होकर अमरकंटक पहुँच सकते हैं। भोपाल से अमरकंटक एक्सप्रेस सायं ४ बजे छूटती है। क्षेत्र का इतिहास 1. आचार्य श्री की सुशिष्या परम्पूज्य 108 आर्यिका प्रशांतमती माताजी ससंघ का आगमन 1993 में।

2. जनवरी 1994 में तीर्थोद्वारक विद्यासागर जी का ससंघ का आगमन।
3. 1995 में मानव कल्याण सर्वोदय विकलांग केन्द्र स्थापित हुआ। अब तक 2000 से अधिक निःशक्तजनों को निःशुल्क ट्रायसिकलों का वितरण किया गया।
4. 14 फरवरी 1999 में कुण्डलपुर(दमोह) से बिहार होकर भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा यहाँ लायी गयी।
5. करुणा- अहिंसा की परिपूर्ण साधना हेतु पशु संरक्षण केन्द्र गौशाला संचालित है।

6. 31 मार्च 2000 को आचार्य श्री विद्यासागर ससंघ पिच्छीयों का वर्षायोग सम्पन्न हुआ। वर्षायोग-2009 भारत के हृदय-स्थल अमरकंटक की धर्मधारा पर श्री शांतिवीर, शिव-ज्ञानसागराचार्य शिष्य परम्परा में दीक्षित बालयोगी, संघनायक, परमश्रुत, सर्वोदयी संत, आचार्य प्रवर श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज तथा ससंघ 28 निर्ग्रंथ मुनिगणों का वर्षायोग सानन्द चल रहा है।
सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में दिगम्बर जैन धर्म की पहचान कायम कर चुका है। यहाँ की धर्म सभा में संशय की साधना के जीवंत संत, तपोनिधि श्री विद्यासागर जी ने धर्मक्षेत्र की महत्व का बोध कराते हुए धर्म सभा में कहा कि यहाँ आदिवासियों की बहुलता है। ये सरल और सुग्राही भी होते हैं। यहाँ पर तपश्चर्या से काया और आत्मा के भिन्न-भिन्न होने का भेद मिल जाता है। शीतलहर चलती है। लहर का प्रहार काया पर होता है। साधना कर साधना करने वालों से सर्दी स्वयम ठिठुर जाती है। पावन सरिता कुंवारी नर्मदा के उद्गम अमरकंटक में नर्मदा का अर्थ समझाते हुए ज्ञान, दर्शन, साधना शिरोमणि के अनुसार नर्मदा का एक नाम रेवा है। पुराणों में रेवा नदी के महात्म्य का विस्तार से वर्णन मिलता है। इसके तट पर तपकर असंख्य भव्यात्माओं ने सिद्धपद को प्राप्त किया है। रेवा का नाभिकुण्ड नेमावर में है। नदी के दोनों तटों पर साधकों ने परिग्रह और आरम्भ का परित्याग कर साध्व को पा लिया है। नर्मदा का विश्लेषण करते हुए संत कवि ने बताया कि ‘नर्म’ का अर्थ सुख-चैन है। सुख-चैन दक्षति इति “नर्मदा”। सुख का तात्पर्य है-सिद्धत्व। सुख-शांति, सिद्धत्व की उत्पत्ति का नाम है नर्मदा। अमरकंटक के अकृत्रिम-उपवन में तन की गरमी तो मिटती ही है, मन की गरमी भी मिट जाती है। श्री दिगम्बर जैन अमरकंटक क्षेत्रीय विकास समिति के सृजनशील नेतृत्व में महती धर्म प्रभावना के लिये सर्वोदय-तीर्थ क्षेत्र, अमरकंटक-484886 जिला-अनूपपुर म.प्र. के निर्माण में आर्किटेक्ट श्री श्री सी.डी. सोमपुराजी, कांट्रेक्टर श्रीपरेशजी सोमपुरा और सुपर वाइजर श्री दिनेशजी सोमपुरा, अहमदाबाद वालों की सूझबूझ और तकनीकी ज्ञान से भगवान श्री आदिनाथजी का परिपूर्ण जिनालय तेजी से परिपूर्ण आकार ग्रहण कर रहा है। पाषाण से पूज्यनीय भगवान बनाने का महामहोत्सव पंचकल्याणक की तिथि की घोषणा भी यथाशीघ्र होने की संभावना है।

समुद्री सतह से 1067 मीटर ऊँचाई पर स्थित पावन नर्मदा, सोन तथा जुहिला नदियों का उद्गम स्थल, अमरकंटक, विन्ध्य पर्वत श्रेणी का ताज है। शहरी प्रदूषण से मुक्त, जलप्रपातों, घने जंगलों से आच्छादित, मनोरम हरी-भरी वादियों और शीत-ऋतु की अनुभूति का आनन्द लेते हुए हर समय हजारों-हजार पर्यटक यहाँ मौजूद रहते हैं।रेल्वे स्टेशन पेंड्रा रोड 29 कि.मी. अनूपपुर से 60 कि.मी. बिलासपुर से 120 कि.मी. रायपुर से 220 कि.मी. तथा जबलपुर से 235 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।

पत्र व्यवहार पता श्री दिगंबर जैन अमरकंटक क्षेत्रीय विकास समिति, सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक, म.प्र फोनः +९१-७६२९-२६९४५०,२६९५५० बिलासपुर अमरकंटक से १०० की.मी. दूर है।

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श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र: दमोह बड़े बाबा की खोज-कथा

बड़े बाबा की प्रतिमा की खोज की कथा काफी रोचक है। सत्रहवीं शती के अंतिम वर्षों की बात है। दिगम्बर जैन परम्परा के भट्टारक श्री सुरेंद्र कीर्ति कई दिनों से अपने शिष्यों सहित विहार कर रहे थे। वे निराहारी थे, भोजन के लिए नहीं, देव दर्शन के लिए, कि कहीं कोई मंदिर मिल जाए, जहां तीर्थंकर प्रतिमा प्रतिष्ठित हो, तो मन की क्षुधा मिटे और इस शरीर को चलाने के लिए आवश्यक ईंधन ग्रहण करें। वो तृषित भी थे किंतु उनके नेत्रों में प्यास थी, किसी जैन प्रतिमा की मनोहारी छवि नयनों में समा लेने की। देव दर्शन के बगैर आहार ग्रहण न करने का नियम जो लिया था उन्होंने। घूमते-घूमते एक दिन दमोह के पास स्थित हिंडोरिया ग्राम में आकर अपने साथियों के साथ ठहरे। हिंडोरिया ग्रामवासी अपने को धन्य अनुभव कर रहे थे किंतु सबके हृदय में एक कसक थी। कई दिनों से देवदर्शन न होने के कारण उन्होंने आहार ग्रहण नहीं किया था, यह समाचार गांव के घर-घर फैल चुका था और आसपास दूर तक कहीं कोई जिनालय न था। कैसे संभव होगा भट्टारकजी को आहार देना। भाव-विह्वल श्रावक चिंतित थे। उन्होंने अपना ज्ञानोपदेश दिया। जैन श्रावकों ने उनके आहार के लिए चौके लगा दिए। प्रातःकाल ज्ञानोपदेश के पश्चात वे ग्राम में निकले। अनेक श्रावकों ने भट्टारकजी से आहार ग्रहण करने हेतु निवेदन किया किंतु उन्होंने किसी का भी निमंत्रण स्वीकार नहीं किया।

अचानक किसी को दैवीय प्रेरणा हुई। उसने सुझाया दूर पहाड़ी पर एक मूर्ति दिखती है, उसका धड़ और सिर ही दिखता है। उसका शेष भाग पत्थरों में दबा है। वह मूर्ति तीर्थंकर की ही लगती है। उसके दर्शन कर लें। मुनिश्री का मुखकमल आनंद से खिल उठा। प्रभु में निजस्वरूप के दर्शन की उत्कंठा तीव्र हो गई।

हिंडोरिया ग्राम व कुण्डलपुर क्षेत्र में २१ कि.मी. की दूरी है। उस समय झाड़-झंखाड़ से भरा दुर्गम जंगली रास्ता कितना लंबा, कितना दूर था, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है किंतु एक-एक दिन में कोसों दूरियां नापने वाले जैन साधु इससे कब डरे हैं। एक दिन में ही कोसों की दूरी तय करके तेज डग भरते-भरते सूर्यास्त से पूर्व ही वे पहाड़ की तलहटी में जा पहुंचे।

पहाड़ी की चढ़ाई सरल न थी। प्रातःकाल उन्हें देवदर्शन मिल सकेगा, यह विचार उन्हें पुलकित कर रहा था। यद्यपि प्रभु तो उनके अंग-संग सदैव थे किंतु प्रत्यक्ष साकार दर्शन तो आवश्यक था। भोर होते ही वे चल पड़े उस पहाड़ी पर। दुर्गम पथ पर झाड़-झंखाड़ों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए, शिखर पर पहुंचने को। भान भी न रहा मन ही मन प्रभु का स्मरण करते हुए, कब वे शिखर पर जा पहुंचे।
ऊपर
उन्होंने दृष्टि उठाई तो देखते हैं, सामने ही है भव्य, मनोहारी एक दिव्य छवि। आदि तीर्थंकर की शांत, निर्विकारी सौम्य भंगिमा ने उनका मन मोह लिया। वे अपलक निहारते रह गए। पलकें अपने आप मुंद गईं, अंतरमन में उस छवि को संजो लेने के लिए। देव दर्शन की ललक पूर्ण हो गई। मन प्रफुल्लित हो उठा। आचार्य ने प्रभु का स्तवन किया। संघ ने अर्चन किया। संग आए ग्रामीणजन पूजन कर धन्य हुए। अर्चना के पश्चात जब दृष्टि चहुंओर डाली तो देखा, अनेक अलंकृत पाषाण खंड एवं परिकर सहित, अष्ट प्रतिहार्ययुक्त (छत्र, चंवर, प्रतिहारी, प्रभामंडल, चौरीधारिणी, गज, पादपीठ आदि) तीर्थंकर मूर्तियां यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। इस मूर्ति की भव्यता के अनुकूल ही निश्चित ही कोई विशाल मंदिर रहा यहां होगा, उन्होंने विचार किया। काल के क्रूर थपेड़ों से प्रभावित वे भग्नावशेष अपने अतीत की गौरव गाथा कह रहे थे।

उनके नैन दर्शन कर तृप्त थे। अब आहार के लिए जा सकते थे। लौट पड़े फिर आने को। ग्रामीणजन हर्षित थे उनको दो-दो उपलब्धियां हुई थीं। देवदर्शन हुए थे और हमारे पूज्य साधु आहार ग्रहण कर सकेंगे यह भाव भक्तों को आह्‌लादित कर रहा था। भट्टारकजी का संकल्प पूरा हुआ और भक्तों की भावना साकार हुई। उन्होंने आहार ग्रहण किया।

किंतु अब उनकी समस्त चेतना में वह वीतरागी छवि समा चुकी थी। उन्होंने मन ही मन कुछ संकल्प कर लिया। ग्रामीणजनों के सहयोग से धीरे-धीरे मलबा हटवाया तो आचार्य मन ही मन उस अनाम शिल्पी के प्रति कृतज्ञ हो गए, जो इतना कुशल होकर भी नाम और ख्याति के प्रति उदासीन था। दो पत्थरों को जोड़कर बने तथा दो हाथ ऊंचे सिंहासन पर विराजमान, लाल बलुआ पत्थर की मूर्ति, जो भारत में अपने प्रकार की एक है, के अनोखे तक्षक ने कहीं पर अपना नाम भी नहीं छोड़ा था। उस शुभ बेला में भट्टारकजी को सहज प्रेरणा जागी कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार होना चाहिए। इस अनुपम मूर्ति की पुनः आगमोक्त विधि से वेदिका पर विराजित किया जाए तो आसपास का सारा क्षेत्र पावन हो उठेगा। अपना संकल्प उन्होंने कह सुनाया।

उनके शिष्य सुचि (कीर्ति) अथवा सुचंद्र (अभिलेख में नाम अस्पष्ट है) ने इस हेतु सहयोग जुटाने की अनुमति मांगी और जीर्णोद्धार का कार्य शुरू हुआ। भट्टारकजी ने चातुर्मास वहीं करने का संकल्प लिया। कार्य प्रारंभ हुआ ही था कि सुचंदकीर्तिजी की नश्वर देह पंच तत्वों में विलीन हो गई। तब उनके साधु सहयोगी ब्रह्मचारी नेमीसागरजी ने इस अपूर्ण कार्य को पूर्ण करने का भार अपने ऊपर ले लिया। दैवयोग, शूरवीर तथा राजा चम्पतराय व रानी सारंधा के पुत्र महाराज छत्रसाल अपनी राजधानी पन्ना छोड़कर इधर-उधर घूमते-घूमते कुण्डलपुर पधारे। उन्होंने भी इस अद्भुत मूर्ति के दर्शन किए।
ब्रह्मचारी नेमीसागर से भेंट होने पर उन्होंने महाराज छत्रसाल के सम्मुख जीर्णोद्धार हेतु भट्टारकजी का संकल्प निवेदन किया। महाराज स्वयं उस समय याचक बनकर घूम रहे थे। विशाल व उदार हृदय छत्रसाल ने फिर भी ब्रह्मचारीजी की बात को नकारा नहीं। यद्यपि परिस्थिति के हाथों विवश केवल इतना ही वचन दे पाए कि यदि मैं पुनः अपना राज्य वापस पा जाऊंगा तो राजकोष से मंदिर का जीर्णोद्धार कराऊंगा।

अतिशय था या छत्रसाल का पुण्योदय अथवा उनका सैन्य बल काम आया या प्रभु की कृपा हुई। किंतु बहुत शीघ्र ही पन्ना के सिंहासन पर वे पुनः प्रतिष्ठित हो गए। उन्हें अपना वचन याद था। निश्चित ही बड़े बाबा के दरबार में उनकी प्रार्थना स्वीकृत हुई थी क्योंकि वे उनकी शरण में गए थे। छत्रसाल को राज्य मिला और श्रद्धालुओं को ‘बड़े बाबा’। छत्रसाल ने ईश्वर को धन्यवाद दे, जीर्णोद्धार कराया और ‘बड़े बाबा’ अपने वर्तमान स्थान पर विराजमान हुए।
इस कथा का परिचय सूत्र है विक्रम संवत्‌ १७५७ (१७००.) का, गर्भगृह की बाहरी दीवार में लगा, मंदिर के जीर्णोद्धार संबंधी देवनागरी लिपि तथा संस्कृत भाषा का (लगभग ५२×६२ से.मी.) शिलालेख।
पत्र व्यवहार पता प्रबंध कार्यणी समिति, कुण्डलगिरि, कुण्डलपुर तहसील पटेरा, जिला दमोह म.प्र.फोन नं: +९१-७६१५-२७२२३०, २७२२२७, २२७२२९

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