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❖ यह कुछ बातें..मुनि क्षमा सागर जी महाराज के द्वारा बताई हुईं..जिनके कारण अन्तराय कर्म का बंध होता है वह यह है
हम कभी धर्म करना चाहते हैं,मंदिर जाना चाहते हैं,कुछ करना चाहते हैं,दान देना चाहते हैं लेकिन दे नहीं पाते...ऐसे कौन सी शक्ति है जो हमें ऐसा नहीं करने देती...यह कोई बाहरी शक्ति नहीं यह हमारे अन्दर बैठा अन्तराय कर्म है...यही अंतर है अरिहंत परमेष्ठी और सिद्ध परमेष्ठी भगवंतों में..वह संसार से मुक्त है..क्योंकि उन्हें इन कर्मों का नाश किया और हम इन्ही में रचते हैं..अरिहंत परमेष्ठी अन्तराय कर्म से रहित हैं...और हम अन्तराय कर्म से सहित....तोह क्यों न ऐसा करें की हम इस अन्तराय कर्म को ख़त्म करें...इस कर्म को ख़त्म करने का तरीका यह भी है की हम इसके बंधने के कारणों से बचें तोह इस कर्म को ख़त्म हम कर सकते हैं...कुछ तरीके हैं इस अन्तराय कर्म से बचने के...
१.दान में बाधा नहीं डालना
-कोई दान करना चाहता है..उसको रोकना,मना करना और उसको हतोत्शाहित कर देने से अन्तराय कर्म का बांध होता है.
२.भोग और उपभोग में बाधा नहीं डालना-किसी के भोग और उपभोग में रुकावट पैदा करने से अन्तराय कर्म बंधता है...कोई कुछ कर रहा है इससे हमें क्या मतलब..क्या उसने हमसे सलाह मांगी,जो हम उसे देने बैठ गए.?...यह हमारी कुछ आदतें अन्तराय कर्म के बंध का कारण है...कोई व्यक्ति १० बजे तक सो रहा है...हम उसे जगाने लग गए...क्या उसने हमसे बोला था की तुम हमें जगा देना...अगर बोला था तोह कर्म नहीं बंधेगा...और अगर नहीं बोला था तोह जरूर बंधेगा.
३.सत्कार का निषेद नहीं करना
हमारे सामने किसी दुसरे व्यक्ति की तारीफ़ हो रही है...जिससे हमें ऐसा लगने लग गया की हमारी निंदा हो रही है..हमने उसे-से चिढ़ते हुए उससे सम्बंधित खुफिया बातें बता दी...जिससे उसकी निंदा होने लग गयी..अगर किसी गलती की भी तारीफ़ है तोह हमें क्या करना..हम अपना शांत रहे..कोई सलाह मांगे तोह बताएं.
४.सम्मान की जगह असम्मान,सम्मान की जगह असम्मान नहीं करना
कोई तारीफ़ के लायक है..उसकी निंदा करना...और कोई असम्मान के लायक है तोह उसकी पूजा करना-अन्तराय कर्म के बंध का कारण है.
५.दुसरे की वास्तु संपत्ति को देखकर अस्चर्या चकित नहीं होना
सम्यक दृष्टी जीव कभी भी दूसरी वस्तु को देखकर विस्मित नहीं होता..क्योंकि वह जानता है की यह तोह पुण्य का फल है....उसके पास जो भी भौतिक वस्तुएं है...वह तोह पुण्य की वजह से है...पुण्य के क्षीण होते ही यह भी क्षीण हो जायेंगी.."सम्यक दृष्टी जीव इन सब-चीजों को आत्मा से भिन्न जानता है"...अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तोह अन्तराय कर्म बांधते हैं.
६.किसी को कोई चीज देने के बाद उसको फिर से लेने की भावना न होना,और न दिखाना की उसको दी है
अगर हमने किसी को कोई वस्तु दी...जैसे मंदिर में द्रव्य दान किया और हमने अगर वापिस लेने की भावना मन में बनायीं या ले ली...तोह अन्तराय कर्म बंधेगा...अगर हम किसी को कुछ देते हैं...और फिर अगर हम फिर इस बात को सबके सामने दर्शाते हैं...इससे अन्तराय कर्म का बंध होता है.
७.त्याग अदि करना..भले ही करते नहीं हो..लेकिन त्याग करना
हम किसी चीज को खाते नहीं है..लेकिन उसका त्याग नहीं किया...तोह इसका मतलब हम अन्तराय कर्म का बंध निरंतर कर रहे हैं...इसलिए हमें नियम अवश्य लेना चाहिए...जैसे-अगर हम किसी कमरे को इस्तेमाल नहीं करते हैं...तोह क्या उसका किराया नहीं देना पड़ता..?)
८.दीं दुखियों की सेवा के लिए तत्पर रहना
दीं दुखियों की सेवा किए लिए तत्पर...और उनकी मदद करने के लिए..उचित काम करना...रोकना टोकना नहीं..अनुमोदन करने से अन्तराय कर्म नहीं बंधेगा...लेकिन उल्टा,विघ्न डालने से अन्तराय कर्म बंधेगा.
९.हतोत्साहित नहीं करना
किसी के अंदर कोई गुण है..तोह उसको प्रकाशित करें...उसको हतोत्शाहित करने के अलावा..जैसे किसी ने कोई नियम लिया तोह ऐसा नहीं कहना की"क्या कर लिया,हम तोह तुझसे भी अच्छे हैं,दिखावा HAI"...इसके बजाय उसको और प्रोत्साहित करना और उसके सामने तारीफ़ करना.
१०.देव पूजा अदि में अन्तराय,रोकना नहीं..उल्टा समझाना है.
कोई नियम-व्रत अदि लिया है,किसी ने,कोई पूजा,विधान में बैठा है..उसे परेशान नहीं करना,उसके लिए अच्छी हालतें बनाना,प्रोत्साहित करना,कहना की धर्म के लिए कोई समय नहीं होता...इस का उल्टा.. उसको बार-बार समय की याद दिलाना,जल्दी-जल्दी करवाना,भाव-बिगड़ना,या यह कहना की"क्या दिन भर बैठे रहोगे पूजा में,टाइम हो-गया"..
११.चीजों का सदुपयोग करना..
हम सब जीवों को पुण्य के योग्य से यह मनुष्य तन मिला है,पैसा है..तोह इसका सदुपयोग करना...यानी की दान में लगाना,शरीर को नियम में,व्रत-उपवास में लगाना...न की व्यर्थ भोगों में पड़े रहना.
और भी कई अन्य बातें अन्तराय कर्म के बंध का कारण है...अन्तराय कर्म ऐसा कर्म है जो पता ही नहीं चलता की कब आ गया,जैसे मोहिनीय कर्म को महा-बलवान कहते हैं...ऐसे ही अन्तराय कर्म को रहस्यमयी कर्म कहते हैं...एक रहस्य सा.
अगर मैंने गलत सुनने की वजह से,अल्प बुद्धि की वजह से,कम ज्ञान की वजह से..आलस्य के कारण अगर लिखने में कोई भी भूल चूक की हो...तोह मुझे माफ़-कीजियेगा...बोला क्षमा सागर जी महाराज की जय..
जा-वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक-सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
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गोपाचल के निकटवर्ती तीर्थ क्षेत्र --- गोपाचल को केंद्र बिन्दु मानकर 150 किलोमीटर की परिधि का एक वृत्त बनाया जाए तो इस घेरे में जैन पुरातत्व के वैभव एवं अनेक तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन मिलेंगे। गोपाचल के निकटवर्ती विभिन्न अंचलों (ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, गुना, मुरैना, भिंड जिले) में युगयुगीन जैन संस्कृति के अनेक प्रतीकात्मक स्मारक उपलब्ध हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैन तीर्थंकरों एवं साधुओं ने संपूर्ण देश में पैदल विहार कर धर्म का प्रचार किया और अहिंसामयी जीवन पद्धति का उपदेश दिया।
ये क्षेत्र एवं स्थल अध्यात्म के केंद्र हैं, वहीं पुरातत्व सामग्री की अतुल संपदा के धनी हैं, जो शोध एवं ऐतिहासिक सामग्री से परिपूर्ण हैं तथा पर्यटकों के लिए भी मनोरंजक सामग्री देने वाले दर्शनीय स्थल हैं। अल्प विवरण के साथ सूची प्रस्तुत है-
1. सिद्धक्षेत्र सोनागिर- नंगालंग कुमार सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनियों की निर्वाण स्थली एवं आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभु की विहार स्थली जिनका समवशरण पंद्रह बार यहाँ आया। आगरा-झाँसी रेल मार्ग दतिया स्टेशन से तीन मील दूरी पर सोनागिर रेलवे स्टेशन है। स्टेशन से 5 कि.मी. पर सोनागिर तीर्थ क्षेत्र है।
2. करगवाँ- नगर झाँसी उत्तरप्रदेश से 3 कि.मी. दूर अतिशय क्षेत्र करगवाँ है।
3. सिंहौनिया- गोपाचल दुर्ग के निर्माता राजा सूर्यसेन के पूर्वजों ने दो हजार वर्ष पूर्व इसकी स्थापना की थी। यह अतिशय क्षेत्र है एवं मध्यप्रदेश में पुरातत्व और कला की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। अवसिन नदी के तट पर स्थित यह स्थान आगरा-ग्वालियर के मध्य मुरैना से 30 कि.मी. दूर है।
4. दूब कुंड- यहाँ रहस्य की परतों में पुरातत्व छिपा है। ग्वालियर से लगभग 100 किलोमीटर दूर श्योपुर-ग्वालियर मार्ग के बाईं ओर गोरस-श्यामपुर मार्ग जाता है। उस पर लगभग दस मील चलने पर दुर्गम वनों में पर्वतों में डेढ़ मील की दूरी पर डोभ नामक छोटा-सा गाँव है। इसके पास ही एक कुंड है और इसीलिए दूब कुंड नाम का यह अतिशय क्षेत्र है। कुंड के पास हजारों जैन मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं, ो किसी कला मर्मज्ञ की खोज में है।
5. पद्मावती (पवाया)- पुराणों में वर्णित पद्मावती नगरी। ऐतिहासिक दृष्टि से इस सारे क्षेत्र में प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहाँ अत्यधिक पुरातत्व संपदा है। प्राचीनकाल में पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र की एक नागकालीन राजधानी थी।
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❖ एक बार आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज का आहार एक घर में चल रहा था, तभी एक व्यक्ति ने देख लिया की उसी गली से निकलने के लिए एक शव यात्रा आ रही है, और सामान्य शव यात्रा में 'राम नाम सत्य है' ऐसी कुछ पंक्तिया बोली जाती है और वो व्यक्ति को समझने में देर नहीं लगी की अगर आचार्य श्री ने ये शब्द सुन लिए तो उनका अन्त्राए हो जायेगा क्योकि शव पास से निकले पर अन्त्राए माना जाता है या कुछ ऐसे करुण विलाप आदि के शब्द भी हो तो अन्त्राए हो जाता है तब उस घर के व्यक्तियों ने बहुत अच्छा अपना दिमाग लगाया और बहुत सारे बच्चो को इकठा किया अपने घर के बाहर और उनको बोला की खूब जोर जोर से शोर मचाओ, हल्ला करो, एक दम से शोर मचाने से आचार्य श्री ने इशारे से पूछा की ये इतनी आवाज कहा से आरही है तब लोगो ने बोल दिया महाराज जी ऐसे ही बच्चे खेल रहे है, और दूसरी तरफ जो शव यात्रा निकल गयी और उन बच्चो की आवाज में वो शव यात्रा से आने वाली आवाज दब कर रह गयी और गुरुदेव का आहार सानंद हो गया:-) इसको ही कहते है श्रावक का समर्पण और विवेक! --- [मुनि श्री प्रमाण सागर जी मुनिराज के प्रवचनों से - आचार्य श्री के शिष्य]
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❖ ✿ जैन धर्म की उदारता ✿
1. किसी भी आत्मा में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न होने पर यदि वह रत्न-त्रय को जीवन में अपना लेता है तो वह एक दिन अवश्यमेव मोक्ष में पहुँचेगी।
2. इस प्रकार की भावना पैदा होने के लिए वह जैन ही हो ऐसी कोई बात नहीं।
3. जिस भव में (जिस शरीर में) वह मोक्ष में जानेवाला हो उस भव में उसको जैन कुल में ही जन्म लेना चाहिए यह आग्रह भी नहीं है।
4. जिस शरीर से निकलकर वह मोक्ष में जानेवाला है उस शरीर में उन्होने जैनधर्म का कोई बड़ा गुनाह किया हो उसका विरोधी बना हो ऐसा भी संभवित है।
5. जैनधर्म को माननेवाला ही स्वर्ग में जायेगा और अन्य सब नरक में जायेंगे ऐसी जैनधर्म की मान्यता नहीं है।
6. जैन माता-पिता का पुत्र हो फिर भी उसका अयोग्य आचरण हो तो वह नरक में जायेगा और जैनकुल में नहीं जन्मा हुआ कोई जैन धर्म का पालन तो क्या पर जैन धर्म के नाम से परिचित न होने पर भी स्वर्ग में जा सकता है।
7. पर इतना तो सुनिश्चित है कि रागद्वेष से मुक्त बना हुआ कोई भी ‘जिन’ कहलाता है और उनका बतलाया हुआ धर्म ही ‘जैनधर्म’ है।
8. ये सब संभावनाय इसलिए है क्योकि यहाँ व्यक्ति विशेष को पूज्य नहीं मानकर, गुणों को सर्वशेष्ठ माना है जो भी राग द्वेष से रहित हो... वही पूज्य की श्रेणी में आजाता है!
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❖ तीन भुवन में सार वीतराग विज्ञानता,शिव स्वरुप शिवकार नमहूँ त्रियोग सम्हारिके - क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज वीतराग विज्ञानता का अर्थ बहुत अच्छे से करते है "वीतराग" शब्द केवल रत्नत्रय के दो अवयवो के साथ आया है वीतराग सम्यकदर्शन और वीतराग सम्यकचारित्र तो यहाँ वीतराग शब्द से सम्यक दर्शन व् सम्यक चरित्र को नमस्कार तथा विज्ञानता से मतलब "सुज्ञान - सम्यक ज्ञान" तो इस तरह "वीतराग विज्ञानता" शब्द से रत्नत्रय को नमस्कार किया गया है...इस तरह तीनो लोको में ये रत्नत्रय ही सार व् सर्वश्रेष्ट है और वही शिव स्वरुप यही मोक्ष रूप और शिवकार यानि मोक्ष को देने वाला है...ये रत्नत्रय और मैं इस रत्नत्रय को मन, वचन व् काय से नमस्कार करता हूँ!
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❖ 40 साल पहले आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने आचार्य विद्यासागर जी को आचार्य पद दिया। तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने संबोधित कर कहा को साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु-दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के फलस्वरूप यह पद धारण करना होगा।
गुरु-दक्षिणा की बात से मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद(अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीय, संवत 2023, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने ही कर कमलों से आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले –
” हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।” आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।
गुरुदेव ने मुझे मोक्षमार्ग पर चलना सिखाया,गुरुदेव ने मुझे जीवन में जीना सिखाया।
गुरुदेव की कृपा मैं कहाँ तक कहूँ मेरे भाई,गुरुदेव ने ही मुझको, मेरा स्वरूप दिखाया।
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