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आओ हम जीना सीखें
व्यवहार का संचालक है भाव जगत - आचार्य महाश्रमण
बालोतरा. जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो
आदमी के जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं। उन समस्याओं के मूल तक पहुंचने वाला व्यक्ति ठीक समाधान कर सकता है। जब तक व्यक्ति केवल ऊपरी भाग को देखता है, भीतर तक पहुंचने का प्रयास नहीं करता, तब तक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। एक श्वानी वृत्ति होती है, दूसरी सैंही वृति होती है। यदि एक कुत्ते की ओर पत्थर फेंका जाता है तो वह उस पत्थर को चाटने लग जाता है। पत्थर किसने फेंका, उस ओर ध्यान नहीं देता। यदि एक शेर की तरफ बाण छोड़ा जाता है तो वह उस बाण को नहीं देखता। बाण किसने फेंका, उस ओर ध्यान ज्यादा देता है। अर्थात् श्वानी वृत्ति वाला व्यक्ति ऊपरी सतह तक ही रह जाता है और सिंह वृत्ति वाला व्यक्ति मूल तक पहुंच जाता है। सामान्यतया इस दृश्य दुनिया में आदमी के व्यवहार को देखा जाता है किंतु व्यवहार का मूल कारण बनता है भाव। व्यक्ति के भीतर भी एक जगत है, जिसे भाव जगत कहा जाता है। उसमें विभिन्न तरह के भाव होते हैं, क्षमा का भाव होता है तो आक्रोश का भाव भी होता है, अहंकार है तो नम्रता भी है। इन भावों से ही आदमी का व्यवहार प्रभावित होता है। जब क्षमा का भाव उजागर होता है तो आदमी बिल्कुल शांत दिखाई देता है और जब आक्रोश का भाव प्रबल बन जाता है तो वह शांत दिखने वाला व्यक्ति भी अशांत बन जाता है। आदमी के व्यवहार का संचालक ह भाव जगत। इसलिए उस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। यदि एक बस में पचास आदमी बैठे हैं और वे सभी अंधे है किंतु ड्राइवर चक्षुष्मान है, दक्ष है तो उन पचासों व्यक्तियों को ठीक समय पर गंतव्य स्थान तक ले जा सकता है। इसी प्रकार आदमी के भाव ठीक हों तो व्यवहार अच्छा बन सकता है। भावों को पकड़े बिना समस्या का समाधान नहीं हो सकता।