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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#अपने आप को #जाने*: #श्रंखला ३*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १९९* - *चित्त शुद्धि और शरीर प्रेक्षा ५*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
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कुम्बलगुड़ु,बेंगलुरू
📒
*पूज्यप्रवर के आज प्रातः*
*भ्रमण के अनुपम दृश्य*
📮
दिनांक:
19 जुलाई 2019
🎯
प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
🔰🎌♦♻♻♦🎌🔰
News in Hindi
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 81* 📖
*पवित्र आभामंडल*
गतांक से आगे...
वीतरागता की काव्यात्मक भाषा में स्तुति करने के पश्चात् मानतुंग शरीर की विशेषता बतला रहे हैं। यह बात पहले ही कही जा चुकी है— आप वीतराग हैं, यह बात आपका शरीर ही बतला रहा है। आप की आकृति में वीतरागता झलक रही है। जहां कषाय शांत है, वहां शांति की झलक होती है। जहां आवेश है, वहां उत्तेजना और तनाव की झलक होती है। यदि कोटर में कषाय की अग्नि जल रही है, तो यह शरीर का तरु कब तक हरा-भरा रहेगा? कोटर की आग हरे-भरे वृक्ष को भी जला कर राख कर देती है।
प्रस्तुत संदर्भ में मानतुंग कह रहे हैं— आपके शरीर के ऊपर अशोक का वृक्ष है। रूप का अर्थ है शरीर। तीर्थंकर का एक प्रतिहार्य माना गया है अशोकवृक्ष। केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकर जहां भी बैठते हैं, एक निश्चित ऊंचाई पर अशोकवृक्ष अवतरित हो जाता है। मानतुंग सूरी ने इन आठ प्रतिहार्यों में से केवल एक प्रतिहार्य का इस श्लोक में उल्लेख किया है—
*1.* अशोकवृक्ष
*2.* दिव्य-पुष्पवृष्टि
*3.* दिव्य-ध्वनि
*4.* देवदुंदुभि
*5.* सिंहासन
*6.* भामंडल
*7.* चामर
*8.* आतपत्र
ये तीर्थंकर के आठ अतिशय हैं। मानतुंग सूरि अशोकवृक्ष का उल्लेख करते हुए कह रहे हैं— आपका शरीर अशोकवृक्ष से संश्रित है। आपके शरीर के ऊपरी भाग से किरणें निकल रही हैं। महापुरुषों के चित्रों में सिर के पीछे एक आभा का वलय दिखाया जाता है, जिसे भामंडल (हेलो) कहा जाता है। एक आभा का वालय होता है— शरीर के चारों ओर, जिसे आभामंडल (ओरा) कहा जाता है। आभामंडल का अर्थ है— शरीर का ऊपरी भाग। आपके भामंडल से किरणें निकल रही हैं, यह बात 'उन्मयूख' शब्द के द्वारा कही गई है। आपके मस्तिष्क के पृष्ठ भाग से जो किरणें निकल रही हैं, उनसे आपका शरीर बहुत शोभित हो रहा है। आपके पूरे शरीर से भी किरणें निकल रही हैं, आपके आभामंडल से भी किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं। जैसे सूर्य के मंडल से किरणें फूटती हैं, वैसे आपके शरीर से चारों ओर किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं। आपके शरीर से निकलने वाली किरणों ने भामंडलीय और आभामंडलीय रश्मियों ने अंधकार के बितान को अस्त कर दिया है।
आभामंडल इतना शक्तिशाली होता है कि उससे परिपार्श्व का अंधकार नष्ट हो जाता है। जितना आंतरिक व्यक्तित्व निर्मल होता है, उतना ही आभामंडल प्रतिभाशाली और पवित्र होता है, उतना ही प्रकाश फैलता है। मानतुंग इसी बात को एक उदाहरण के द्वारा समझा रहे हैं— भंते! आप बैठे हुए ऐसे लग रहे हैं, जैसे चारों और काले-कजरारे बादल हैं और बीच में सूर्य अपनी प्रभा से दीप्तिमान हो रहा है। तमाल के पत्रों की तरह श्यामल आभा वाले बादलों के बीच जैसे सूर्य प्रतिभाशित होता है, वैसे ही अशोक वृक्ष के नीचे आप सुशोभित हो रहे हैं। स्तुतिकार ने कितनी सुंदर उपमा दी है— काले-कजरारे बादल के बीच चमकता हुआ सूर्य। अशोक वृक्ष का रंग गहरा नीला होता है। वह बादल जैसा काला-कजरारा है। उसके नीचे एक सूरज चमक रहा है। उस काले वृक्ष के नीचे, अशोक वृक्ष के संश्रय में आपका यह प्रकाशमय शरीर दीप्तिमान हो रहा है। जैसे पयोधरवर्ती– काले बादलों के पास रहने वाला सूर्य अधिक दीप्तिमान होता है, वैसे ही श्यामल अशोक वृक्ष के संश्रय में आसीन आपका यह सूर्य रूपी शरीर चमक रहा है।
*आचार्य मानतुंग ने भगवान् ऋषभ के शरीरातिशय का काव्य रूप में किस प्रकार वर्णन किया है...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 93* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*संघर्षों के निकष पर*
*बाह्य संघर्ष*
*शत्रु सेना से लड़ो*
स्वामीजी आचारहीनता का बड़ी तीव्रता से खंडन किया करते थे, परंतु वे व्यक्ति-विशेष का नाम न लेकर समुच्चय के आधार पर ही अपनी बात कहा करते थे। इतने पर भी कुछ लोग यह सोच कर बहुत चिढ़ा करते थे कि यह सारा उल्लेख हमारे ही व्यक्तियों को आधार बनाकर किया जा रहा है। इस विचार वाले व्यक्ति पूर्वाग्रह के कारण प्रत्येक उल्लेख को अपने पर ले लेते और निष्कारण ही झगड़ने पर उतारू हो जाते।
विक्रम संवत् 1857 में स्वामीजी भीलवाड़ा पधारे। रात्रिकालीन व्याख्यान में जनता बहुत एकत्रित हुई। साध्वाचार का विवेचन करते हुए स्वामीजी ने 'तुम जोइज्यो अंधारो इण भेख में'— इस गीतिका के कुछ पद्य सुनाए और शिथिलचारी साधुओं के आचार-व्यवहार की कुछ त्रुटियों की समीक्षा की। वहां के नागोरी बंधुओं में उसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। व्याख्यान की समाप्ति पर उन्होंने स्वामीजी को घेर लिया। वे दबाव देने लगे कि आप उस व्यक्ति का नाम बतलाएं, जिसको लक्ष्य करके यह सब कहा गया है।
स्वामीजी ने कहा- 'मैं व्यक्ति विशेष के लिए कुछ भी कहना नहीं चाहता। मैंने तो साध्वाचार और उसके दोषों की समुच्चय रूप से बात कही है। यदि आपको ऐसा कदाचार बुरा लगता है, तो अपने साधु-संघ को टटोल कर देख लीजिए कि वहां ऐसा होता है या नहीं? यदि होता है, तो उसे सुधारने का प्रयास करिए। यदि नहीं होता है तो इस प्रसंग में चिढ़ने जैसी कोई बात नहीं है।'
स्वामीजी द्वारा इतना स्पष्टीकरण करने पर भी वे लोग शांत नहीं हुए। उन्होंने धमकी भरे स्वर में कहा— 'नाम बताए बिना आपको यहां से विहार नहीं करने दिया जाएगा। यदि जाएंगे तो आपको तीर्थंकरों की सौगंध है।'
स्वामीजी ने जब देखा कि उन लोगों का ध्यान दोष-सुधार की ओर न होकर केवल झगड़ने की हो रही है, तो उन्होंने कुछ समय के लिए पूर्ण मौन धारण कर लिया।
उन लोगों ने फिर भी काफी समय तक वहां बक-झक की। धनराजजी नागोरी ने कहा— 'अब प्रतिमा की तरह मौन होकर बैठ गए हैं, उत्तर क्यों नहीं देते?'
स्वामीजी फिर भी नहीं बोले। तब धमकियां देते हुए वे लोग चले गए।
उन्हीं दिनों उदयपुर राज्य के प्रधानमंत्री शिवदासजी गांधी किसी सैनिक कार्य के लिए वहां आए हुए थे। उन्होंने स्वामीजी के साथ लोगों द्वारा की गई बक-झक की बात सुनी तो धनराजजी नागोरी को उपालंभ देते हुए कहा— 'संत पुरुषों के सम्मुख अयुक्त बोलने तथा झगड़ने में कौनसी वीरता है? लड़ना ही चाहते हो तो देश पर आक्रमण करने वाली शत्रु-सेना के साथ क्यों नहीं लड़ते?'
प्रधानमंत्री के इस उपालंभ के पश्चात् नागोरियों का लड़ने-झगड़ने का साहस समाप्त हो गया।
*जैन ही नहीं अजैन व्यक्तियों को भी विरोधियों द्वारा स्वामीजी के विरोध में खड़ा करने का प्रयास किया जाता था... इसी प्रसंग की एक घटना...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १९८* - *चित्त शुद्धि और शरीर प्रेक्षा ४*
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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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