12.10.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.10.2018
Updated: 12.10.2018

News in Hindi

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आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल
माधावरम, चेन्नई

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*गुरवरो*
*घम्म - देसणं*

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आचार्य प्रवर के
मुख्य प्रवचन के
कुछ विशेष दृश्य

🏮
राष्ट्रीय संस्कार
शिविर का
द्वितीय दिवस

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दिनांक:
12 अक्टूबर 2018

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प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Source: © Facebook

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 445* 📝

*महामहिम आचार्य मेरुतुंग*

*साहित्य*

मेरुतुंगसूरि का साहित्य में विशिष्ट योगदान है। उन्होंने विविध विषयात्मक उपयोगी ग्रंथों की रचना की। उनके कतिपय ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है

*षड्दर्शन समुच्चय* यह दर्शन विषयक कृति है। इसका दूसरा नाम षड्दर्शन निर्णय भी है। इस ग्रंथ में बौद्ध, मीमांसक, सांख्य, न्याय, वैशेषिक और जैन इन छः दर्शनों की संक्षिप्त तुलना है।

*रसाध्याय टीका* यह वैदिक ग्रंथ पर टीका ग्रंथ है। इसकी रचना मेरुतुंगसूरि ने विक्रम संवत् 1443 में पाटण में की।

*मेघदूत* यह ग्रंथ तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन पर संस्कृत रचना है। इसके चार सर्ग हैं और यह 'मंदाक्रांता' छंद में रचा गया है।

*सप्ततिका भाष्य-वृत्ति* यह कर्म विषयक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना मुनि शेखरसूरि की प्रेरणा से हुई थी।

*शतपदी सारोद्धार* इस कृति का दूसरा नाम शतपदी समुद्धार भी है। इसकी रचना मेरुतुंगसूरि ने 53 वर्ष की अवस्था में की।

*कामदेव चरित* यह ग्रंथ 7482 श्लोक परिमाण गद्यात्मक है। ग्रंथ की प्रशस्ति के अनुसार इस ग्रंथ की रचना विक्रम संवत् 1469 में हुई।

*विविध सामग्री* विचार श्रेणी, धातुपरायण, बालावबोध आदि ग्रंथों की रचना भी मेरुतुंगसूरि की है। इन ग्रंथों में विविध विषयात्मक सामग्री है।

*समय-संकेत*

आचार्य मेरुतुंग का जन्म वीर निर्वाण 1873 (विक्रम संवत् 1404) तथा स्वर्गवास वीर निर्वाण 1941 (विक्रम संवत् 1471) में हुआ। उनकी कुल आयु 68 वर्ष की थी। यह गणना मुनि लाखागुरु पट्टावली के अनुसार है। कई पट्टावलीकार उनका स्वर्गवास विक्रम संवत् 1473 मानते हैं।

अंचलगच्छ के आचार्य मेरुतुंगसूरि वीर निर्वाण 19वीं (विक्रम की 15वीं) शती के विद्वान् थे।

*इग्यारमा गच्छनायक पदे श्री मेरुतंगसूरि। नाणीग्रामे। श्रेष्ठी वइरसीह पिता नाल्हणदेवी माता संवत् 1403 वर्षे जन्म, संवत् 1410 दीक्षा, संवत् 1426 सूरिपदे, संवत् 1445 गचछनायकं पदं... संवत् 1471 वर्षे स्वर्गगमनं स्तम्भतीर्थे सर्वायु वर्ष 68।।*
*(मुनि लाखागुरु पट्टावली)*

*दयार्द्रहृदय आचार्य देवेन्द्र के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 99* 📜

*कालूरामजी जम्मड़*

*योग्य पुत्र*

खेतसीदासजी के दो पुत्र थे। कालूराम जी और अनोपचंदजी। कालूरामजी का जन्म संवत् 1914 में हुआ। वे हष्टपुष्ट और निरोग थे, परंतु अनोपचंदजी प्रारंभ से ही दुर्बल और रुग्ण थे। कूबड़ होने के कारण उनका शरीर झुका हुआ था, अतः छोटा सा दिखाई देता था। घरवाले उन्हें नानूराम कहने लगे। लोगों में भी तब वही नाम अधिक प्रचलित रहा।

कालूरामजी पिता के साथ कलकत्ता में व्यापार की देखभाल करते, जबकि नानूराम जी देश में ही रहे और घर की सार-संभाल करते रहे। बड़े भाई निर्भीक, स्पष्टवादी और कार्य कुशल थे। संवत् 1936 में खेतसीदासजी दिवंगत हुए उस समय वे केवल 22 वर्ष के थे। बड़े पुत्र होने के कारण घर का पूरा कार्यभार उन्हीं पर आया। उन्होंने अत्यंत साहस और योग्यता के साथ उस भार को वहन किया। वस्तुतः वे एक योग्य पिता के योग्य पुत्र सिद्ध हुए।

कालूरामजी सामाजिक कार्यों में भी आगे होकर भाग लेते। सरदारशहर में उस समय विभिन्न गांवों से आकर बसे लोगों की पृथक-पृथक पंचायतें थीं। तोलियासर से आए जम्मड़, दुगड़ और नाहटों की एक पंचायत थी। उस समय ऐसी 9 पंचायतें वहां थीं। तोलियासर की पंचायत का पूर्ण कार्य कालूरामजी देखते। वे जब कलकत्ता चले जाते, तब प्रायः पांच-छह वर्षों से ही वापस आते। उस अवधि में उनके छोटे भाई नानूरामजी उस कार्य को संभालते।

*सर्वमान्य*

कालूरामजी सरदारशहर की पंचायत में अनेक वर्षों तक सरपंच भी रहे। जो झगड़ा पंचों से नहीं सुलझता वह उनके पास आता। वे झगड़े को प्रायः तभी हाथ में लेते जब उभय पक्ष उनके निर्णय को पूर्णतः मान्य करने को उद्यत हो जाते। एक बार स्थानीय ओसवालों का वहां के सुनारों से विवाद हो गया। वे लोग स्वर्णाभूषण बनाते समय उसमें खाद मिलाने संबंधी प्राचीन परंपरा का उल्लंघन कर अधिक खाद मिलाने लगे। ओसवालों ने उसका विरोध किया, परंतु सुनारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ओसवालों को उनका व्यवहार बहुत अखरा। उन्होंने पंचायत बुलाई और निर्णय किया कि ओसवाल यहां के सुनारों को काम न दें। वे लोग तब बाहर के सुनारों से काम करवाने लगे। स्थानीय सुनारों की आजीविका मारी गई। उससे दोनों पक्षों की कठिनाई थी, अतः शीघ्र ही समझौते की बात चलने लगी। परंतु झुकने को कोई तैयार नहीं था, अतः बात का कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया।

उक्त अवसर पर कालूरामजी चंडालिया ने सुझाव दिया कि दोनों पक्ष यदि कालूरामजी जम्मड़ को निर्णायक मान लें तो झगड़ा समाप्त हो सकता है। दोनों ही पक्षों ने उस सुझाव को मान लिया। जम्मड़जी उस समय कलकत्ता में थे। उन्हें पत्र भेजकर बुलाया गया। वे आए तब दोनों ही पक्षों ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे उनके निर्णय को मान्य कर लेंगे। जम्मड़जी ने तब निर्णय दिया कि एक तोले में आधा आना भर खाद मिलाई जाए तब तक उसे न्यायसंगत समझा जाएगा। उक्त मात्रा से अधिक मिलाने वाले को तस्कर माना जाएगा। उक्त निर्णय में दोनों समाजों की समस्या को हल कर दिया।

*कालूरामजी जम्मड़ की अनेक योग्यताओं में से एक उनके शारीरिक सौष्ठव व मनोबल* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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