17.09.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 17.09.2018
Updated: 08.10.2018

Update

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Source: © Facebook

👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 17 सिंतबर 2018

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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17 September 2018

❄⛲❄⛲❄⛲❄⛲❄

👉 *परम पूज्य आचार्य प्रवर* के
प्रतिदिन के *मुख्य प्रवचन* को
देखने- सुनने के ‌लिए
नीचे दिए गए लिंक पर
क्लिक करें....⏬

https://youtu.be/MvjjYxygvOs

📍
: दिनांक:
*17 सितंबर 2018*

: प्रस्तुति:
❄ *अमृतवाणी* ❄

: संप्रसारक:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Update

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🔰 *भावभरा आमंत्रण* 🔰

💠 *सिर्फ 5 दिन शेष*💠

💢 *216 वां भिक्षु चरमोत्सव*💢

💠 *सान्निध्य* 💠
*शासन श्री मुनि श्री रविंद्रकुमार जी*
*व तपोमूर्ति मुनि श्री पृथ्वीराज जी*

💥 *विराट भिक्षु भक्ति संध्या*💥
🎶
*गूजेंगी स्वर लहरी*
*झूमेंगे भिक्षु भक्त*
🎶

*दिनांक - 22 सितम्बर 2018, सिरियारी*

♨ *आयोजक-निमंत्रक:- आचार्य श्री भिक्षु समाधि स्थल संस्थान, सिरियारी*♨

प्रसारक -🌻 *संघ संवाद* 🌻

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Source: © Facebook

News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 425* 📝

*समाधि-सदन आचार्य शुभचन्द्र*

*समय-संकेत*

आचार्य शुभचंद्र का समय अधिक विवादास्पद है। ज्ञानार्णव ग्रंथ आचार्य शुभचंद्र की एकमात्र कृति है। उसमें उन्होंने अपने समय का कहीं संकेत नहीं किया और उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रंथों में भी उनका समय अज्ञात है। ज्ञानार्णव में प्राप्त कुछ संदर्भ आचार्य शुभचंद्र के समय को ज्ञात करने का काम करते हैं। दिगंबराचार्य जिनसेन का आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में आदर के साथ उल्लेख किया है। वह उल्लेख यह है

*जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रैविद्यवन्दिता।*
*योगिभिर्याः समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये।।16।।*
*(ज्ञानार्णव पीठिका)*

अपने गुरु वीरसेन के अधूरे जयधवला की टीका रचना के कार्य को आचार्य जिनसेन ने ईस्वी सन् 837 (विक्रम संवत् 894) में संपन्न किया, अतः ज्ञानार्णव के रचनाकार आचार्य शुभचंद्र टीकाकार आचार्य जिनसेन से उत्तरवर्ती होने के कारण उनका नवमी शताब्दी से पूर्व होना प्रमाणित नहीं होता।

ज्ञानार्णव कृति में 3 श्लोक 'उक्तं च' कहकर यशस्तिलकचम्पू काव्य के छठे आश्वास से ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। तीनों श्लोकों में प्रथम दो श्लोक यशस्तिलक काव्य के रचनाकार सोमदेव के हैं। तृतीय श्लोक को वहां 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किया है। ज्ञानार्णव के तीनों श्लोक उसी क्रम से उद्धृत हैं। यशस्तिलकचम्पू काव्य की रचना विक्रम संवत् 1016 में संपन्न हुई।

इस आधार पर आचार्य शुभचंद्र आचार्य सोमदेव से भी उत्तरवर्ती हैं। उनका समय विक्रम की 11वीं शताब्दी के बाद का है। आचार्य हेमचंद्र का योगशास्त्र और शुभचंद्र का ज्ञानार्णव दोनों योग विषयक ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों के कई श्लोक बहुत कम अंतर के साथ समान हैं। उनकी शब्दावली और मात्रा आदि में विशेष परिवर्तन नहीं है, अतः इन दोनों आचार्यों में से एक दूसरे ने किसी का अनुकरण अवश्य किया है।

योगशास्त्र के पांचवे प्रकाश का छट्ठा और सातवां पद्य भी ज्ञानार्णव में 'उक्तं च' कह कर लिखा गया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं

*समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः।*
*नाभिमध्ये स्थिरिकृत्यं रोधनं स तु कुम्भकः।।*
*यत्कोष्ठादतियत्नेन नासा ब्रहमपुरातनैः।*
*बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः।।*

इन दोनों श्लोकों में नाभिमध्य के स्थान पर नाभि पद्मे और पूरातनैः शब्द के स्थान पर पुराननैः हैं। विद्वान् नाथूराम 'प्रेमी' ने 'जैन साहित्य और इतिहास' पुस्तक में पृष्ठ 499 पर उक्त आधारों का आलंबन लेकर ज्ञानार्णव को योगशास्त्र के बाद की रचना अनुमानित की है। नाथूराम 'प्रेमी' की यह समीक्षा ठीक प्रतीत होती है। इस आधार पर आचार्य शुभचंद्र आचार्य हेमचंद्र के उत्तरवर्ती हैं। आचार्य हेमचंद्र का स्वर्गवास विक्रम संवत् 1229 में हुआ था, आचार्य शुभचंद्र आचार्य हेमचंद्र से उत्तरवर्ती होने के कारण वीर निर्वाण 17वीं (विक्रम की 13वीं) शताब्दी के बाद के विद्वान् प्रमाणित होते हैं।

पाण्डव पुराण के रचनाकार शुभचंद्र कुन्दकुन्दान्वयी नंदीसंघ एवं बलात्कारगण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और विजयकीर्ति के शिष्य थे। पाण्डव पुराण का रचना समय विक्रम संवत् 1608 बताया गया है। इस आधार पर पाण्डव पुराण के रचयिता शुभचंद्र ज्ञानार्णव ग्रंथ के रचयिता शुभचंद्र से उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं।

*जगत्-पूज्य आचार्य जिनचन्द्र (मणिधारी) के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
🔆⚜🔆⚜🔆⚜🔆⚜🔆⚜ 🔆

🌞🔱🌞🔱🌞🔱🌞🔱🌞🔱🌞

अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 79* 📜

*हीरालालजी आंचलिया*

*ज्ञान के प्रसार*

श्रावक-वर्ग में तत्त्व-ज्ञान का प्रसार करने के निमित्त उन्होंने अनेक पुस्तकें छपवाईं और लोगों में निःशुल्क वितरित कीं। जब कोई उनके पास पुस्तक लेने जाता तो वे बहुधा उसे कुछ न कुछ सीखने का नियम करवाते अथवा वचन लेते। उनकी छपाई हुई पुस्तकों में कुछ निम्नोक्त हैं—

*1.* शिशु हित शिक्षा (प्रथम एवं द्वितीय भाग), *2.* हित शिक्षावली, *3.* ज्ञान थोकड़ा, *4.* नव सद्भाव पदार्थ निर्णय, *5.* प्रश्नोत्तर तत्तवबोध, *6.* वैराग्य भूषण, *7.* बाल-बोध, *8.* साधु वंदना आदि। उक्त पुस्तकों की लगभग 53 हजार प्रतियां उनके द्वारा निःशुल्क वितरित की गईं।

संवत् 1939 में उन्होंने अपने दोनों पुत्रों प्रतापमलजी और देवकरणजी में संपत्ति का विभाग कर दिया। अपने लिए उन्होंने केवल 3500 रुपए ही रखे। पुस्तक प्रकाशन के लिए उसी समय से उन्होंने एक पृथक् फण्ड कर दिया। उनकी पुस्तकें लंबे समय तक ज्ञान प्रसार में अच्छा सहयोग देती रहीं।

*विरक्ति की ओर*

धनी व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में संयम को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। 32 वर्ष की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने सपत्नीक ब्रम्हचर्य स्वीकार कर लिया। लगभग चार वर्ष पश्चात् उनकी पत्नी का देहांत हो गया। तब से वे और भी अधिक विरक्ति की ओर झुक गए। उन्हें सर्व सचित्त तथा हरित्काय का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान था। रात्रिकालीन चौविहार करते और दिन में केवल एक समय भोजन करते। उसमें भी सात द्रव्य से अधिक नहीं खाते थे।

*एक बहम*

अपनी वृद्धावस्था में वे कुछ बहमी प्रकृति के बन गए थे। किसी का भी उन्हें विश्वास नहीं हो पाता था। इसीलिए वे किसी दूसरे के घर पर भोजन नहीं करते थे। अपने पुत्रों के यहां भी विशेष आग्रह होने पर कभी कभार ही भोजन करते। जिस दिन वहां भोजन करते उस दिन भोजन पकाते समय रसोईघर में स्वयं उपस्थित रहकर देखरेख करते रहते। कहा जाता है कि उनके मन में यह भ्रम सुदृढ़ हो गया था कि भोजन में कहीं कोई उन्हें विष दे डालेगा। इसी अविश्वास के कारण अत्यंत वृद्धावस्था में भी वे अपना भोजन स्वयं अपने सामने पकवाया करते थे। संवत् 2001 में उनका देहावसान हुआ उस समय वे 94 वर्ष के थे।

*जोधपुर के विशिष्ट श्रावकों में से एक हस्तीमलजी दुगड़ के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🌐 *महावीर रै शाषण री महिमा महकावां,*
*स्वामी भीखण जी रै संघ री गुण गाथा गावां, 💬*

⛩ *चेन्नई (माधावरम), महाश्रमण समवसरण में..*
*गुरुवरो धम्म-देसणं!*

👉 *आज के "मुख्य प्रवचन" कार्यक्रम के कुछ विशेष दृश्य..*

दिनांक: 17/09/2018

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🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 425* 📝

*समाधि-सदन आचार्य शुभचन्द्र*

*समय-संकेत*

आचार्य शुभचंद्र का समय अधिक विवादास्पद है। ज्ञानार्णव ग्रंथ आचार्य शुभचंद्र की एकमात्र कृति है। उसमें उन्होंने अपने समय का कहीं संकेत नहीं किया और उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रंथों में भी उनका समय अज्ञात है। ज्ञानार्णव में प्राप्त कुछ संदर्भ आचार्य शुभचंद्र के समय को ज्ञात करने का काम करते हैं। दिगंबराचार्य जिनसेन का आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में आदर के साथ उल्लेख किया है। वह उल्लेख यह है

*जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रैविद्यवन्दिता।*
*योगिभिर्याः समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये।।16।।*
*(ज्ञानार्णव पीठिका)*

अपने गुरु वीरसेन के अधूरे जयधवला की टीका रचना के कार्य को आचार्य जिनसेन ने ईस्वी सन् 837 (विक्रम संवत् 894) में संपन्न किया, अतः ज्ञानार्णव के रचनाकार आचार्य शुभचंद्र टीकाकार आचार्य जिनसेन से उत्तरवर्ती होने के कारण उनका नवमी शताब्दी से पूर्व होना प्रमाणित नहीं होता।

ज्ञानार्णव कृति में 3 श्लोक 'उक्तं च' कहकर यशस्तिलकचम्पू काव्य के छठे आश्वास से ज्यों के त्यों उद्धृत किए गए हैं। तीनों श्लोकों में प्रथम दो श्लोक यशस्तिलक काव्य के रचनाकार सोमदेव के हैं। तृतीय श्लोक को वहां 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किया है। ज्ञानार्णव के तीनों श्लोक उसी क्रम से उद्धृत हैं। यशस्तिलकचम्पू काव्य की रचना विक्रम संवत् 1016 में संपन्न हुई।

इस आधार पर आचार्य शुभचंद्र आचार्य सोमदेव से भी उत्तरवर्ती हैं। उनका समय विक्रम की 11वीं शताब्दी के बाद का है। आचार्य हेमचंद्र का योगशास्त्र और शुभचंद्र का ज्ञानार्णव दोनों योग विषयक ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों के कई श्लोक बहुत कम अंतर के साथ समान हैं। उनकी शब्दावली और मात्रा आदि में विशेष परिवर्तन नहीं है, अतः इन दोनों आचार्यों में से एक दूसरे ने किसी का अनुकरण अवश्य किया है।

योगशास्त्र के पांचवे प्रकाश का छट्ठा और सातवां पद्य भी ज्ञानार्णव में 'उक्तं च' कह कर लिखा गया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं

*समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः।*
*नाभिमध्ये स्थिरिकृत्यं रोधनं स तु कुम्भकः।।*
*यत्कोष्ठादतियत्नेन नासा ब्रहमपुरातनैः।*
*बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः।।*

इन दोनों श्लोकों में नाभिमध्य के स्थान पर नाभि पद्मे और पूरातनैः शब्द के स्थान पर पुराननैः हैं। विद्वान् नाथूराम 'प्रेमी' ने 'जैन साहित्य और इतिहास' पुस्तक में पृष्ठ 499 पर उक्त आधारों का आलंबन लेकर ज्ञानार्णव को योगशास्त्र के बाद की रचना अनुमानित की है। नाथूराम 'प्रेमी' की यह समीक्षा ठीक प्रतीत होती है। इस आधार पर आचार्य शुभचंद्र आचार्य हेमचंद्र के उत्तरवर्ती हैं। आचार्य हेमचंद्र का स्वर्गवास विक्रम संवत् 1229 में हुआ था, आचार्य शुभचंद्र आचार्य हेमचंद्र से उत्तरवर्ती होने के कारण वीर निर्वाण 17वीं (विक्रम की 13वीं) शताब्दी के बाद के विद्वान् प्रमाणित होते हैं।

पाण्डव पुराण के रचनाकार शुभचंद्र कुन्दकुन्दान्वयी नंदीसंघ एवं बलात्कारगण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और विजयकीर्ति के शिष्य थे। पाण्डव पुराण का रचना समय विक्रम संवत् 1608 बताया गया है। इस आधार पर पाण्डव पुराण के रचयिता शुभचंद्र ज्ञानार्णव ग्रंथ के रचयिता शुभचंद्र से उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं।

*जगत्-पूज्य आचार्य जिनचन्द्र (मणिधारी) के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 79* 📜

*हीरालालजी आंचलिया*

*ज्ञान के प्रसार*

श्रावक-वर्ग में तत्त्व-ज्ञान का प्रसार करने के निमित्त उन्होंने अनेक पुस्तकें छपवाईं और लोगों में निःशुल्क वितरित कीं। जब कोई उनके पास पुस्तक लेने जाता तो वे बहुधा उसे कुछ न कुछ सीखने का नियम करवाते अथवा वचन लेते। उनकी छपाई हुई पुस्तकों में कुछ निम्नोक्त हैं—

*1.* शिशु हित शिक्षा (प्रथम एवं द्वितीय भाग), *2.* हित शिक्षावली, *3.* ज्ञान थोकड़ा, *4.* नव सद्भाव पदार्थ निर्णय, *5.* प्रश्नोत्तर तत्तवबोध, *6.* वैराग्य भूषण, *7.* बाल-बोध, *8.* साधु वंदना आदि। उक्त पुस्तकों की लगभग 53 हजार प्रतियां उनके द्वारा निःशुल्क वितरित की गईं।

संवत् 1939 में उन्होंने अपने दोनों पुत्रों प्रतापमलजी और देवकरणजी में संपत्ति का विभाग कर दिया। अपने लिए उन्होंने केवल 3500 रुपए ही रखे। पुस्तक प्रकाशन के लिए उसी समय से उन्होंने एक पृथक् फण्ड कर दिया। उनकी पुस्तकें लंबे समय तक ज्ञान प्रसार में अच्छा सहयोग देती रहीं।

*विरक्ति की ओर*

धनी व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में संयम को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। 32 वर्ष की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने सपत्नीक ब्रम्हचर्य स्वीकार कर लिया। लगभग चार वर्ष पश्चात् उनकी पत्नी का देहांत हो गया। तब से वे और भी अधिक विरक्ति की ओर झुक गए। उन्हें सर्व सचित्त तथा हरित्काय का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान था। रात्रिकालीन चौविहार करते और दिन में केवल एक समय भोजन करते। उसमें भी सात द्रव्य से अधिक नहीं खाते थे।

*एक बहम*

अपनी वृद्धावस्था में वे कुछ बहमी प्रकृति के बन गए थे। किसी का भी उन्हें विश्वास नहीं हो पाता था। इसीलिए वे किसी दूसरे के घर पर भोजन नहीं करते थे। अपने पुत्रों के यहां भी विशेष आग्रह होने पर कभी कभार ही भोजन करते। जिस दिन वहां भोजन करते उस दिन भोजन पकाते समय रसोईघर में स्वयं उपस्थित रहकर देखरेख करते रहते। कहा जाता है कि उनके मन में यह भ्रम सुदृढ़ हो गया था कि भोजन में कहीं कोई उन्हें विष दे डालेगा। इसी अविश्वास के कारण अत्यंत वृद्धावस्था में भी वे अपना भोजन स्वयं अपने सामने पकवाया करते थे। संवत् 2001 में उनका देहावसान हुआ उस समय वे 94 वर्ष के थे।

*जोधपुर के विशिष्ट श्रावकों में से एक हस्तीमलजी दुगड़ के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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