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Documentary movie on Acharya Vidyasagar ji aka Digamabaratva ‘विद्योदय’ #share
पता नहीं फेसबुक इस वीडियो को बरकरार रखेगा या नहीं।...पर नये फिल्मकारों को इस प्रोमो से प्रेरणा लेकर अंतरराष्ट्रीय आडिएंस के लिए जैन दर्शन पर एक डाक्यूमेंट्री बनाना चाहिए। न्यूडिटी पर अब भी आर्थोडाक्स रवैया अपनाने वाले देशों को तो यह सब चमत्कृत करेगा ही, दिगंबर मुनियों की जटिल जीवनचर्या और परंपराओं का पूर्वी और पाश्चात्य जगत में फैलाव का एक नया सिलसिला भी शुरू हो सकता है। इस देश की सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता का यह एक और सुनहरा पन्ना है जो इस देश को कई मायनों में पश्चिम से भी आगे खड़ा कर देता है।
मुनिदीक्षा से लेकर आहारचर्या, भौतिक सुविधाओं का आदिम युग से भी परे जाकर किया जाने वाला त्याग, कठिन व्रत उपवास और बिना किसी उपचार के जीवन को होशपूर्वक उत्सर्ग करने और मृत्यु से सहमति बनाने की संस्कृति...! सब कुछ इसलिए कि बारंबार जन्मने के चक्र को तोड़ने पर एक विश्वास है। सौभाग्य से आचार्य विद्यासागर इस डाक्यूमेंट्री के केंद्रीय आदर्श पात्र के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान हैं ।
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कैलिफ़ोर्निया अमेरिका में #आचार्यविद्यासागर जी महाराज का संयम स्वर्ण महोत्सव मनाया गया!
लगभग 450 लोगो ने कार्यक्रम में आकर अपनी उपस्तिथि दर्ज कराईऔर सभी का उत्साह देखते बना, आचार्यश्री के जीवन पर बनायीं गयी फिल्म ने सबका मन मोह लिया! बच्चो का नाटक "विद्याधार से विद्यासागर" हिंदी भाषा मैं किया गया उन बच्चो द्वारा जो सिर्फ अंग्रेजी ही जानते हैं और हिंदी पढ़ भी नहीं पाते! आचार्य श्री के चित्र और विभिन्न प्रकल्प की झांकी लगायी गई | महिलाओं का नृत्य और गरबा भी हुआ, शुध्द भोजन, चाय और शाम के भोजन सब कार्य volunteers ने ही किया, बाजार से कुछ भी नहीं मंगाया गया|
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ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ सहित बंडा ग्राम पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था, खिड़कियां भी खूब थी और दरवाजा कांच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे जैसे रात अधिक हुई ठंड भी बढ़ गई, सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी, घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई,आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा कि - रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहें, पर साहस करके तत्काल कहा कि - महाराज जी ठंड बहुत थी, मन में विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता। इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया। बोले - देखो त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। मुझे तुम सब से यही आशा थी, हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में ना आए यह सावधानी रखना।
उनका यह उद्बोधन हमें जीवन भर संभालता रहेगा। वास्तव में सच्चा त्याग वही है, जो एक बार हम वस्तु को त्याग दे फिर उसे दोबारा ग्रहण करने का भाव भी न आये, यही सच्चे त्याग की परिभाषा है।
(बण्डा 1982) आत्मान्वेशी(लेखक मुनिश्री क्षमासागर जी मुनिराज) पुस्तक से साभार 🙏
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