20.06.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 20.06.2018
Updated: 21.06.2018

Update

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 20 जून 2018

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

Update

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 356* 📝

*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय)*

*साहित्य*

आचार्य वादिराज ने विविध विषयों से परिपूर्ण कई ग्रंथों की रचना की। वर्तमान में उनके पांच ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है—

*न्याय-विनिश्चय विवरण* यह ग्रंथ भट्ट अकलङ्क के न्याय विनिश्चय ग्रंथ का 20 सहस्र श्लोक परिमाण भाष्य है। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम इसके तीन परिच्छेद हैं। जैन सिद्धांतों के निरसन में प्रदत्त बौद्ध दर्शन की युक्तियों का सबल प्रतिवाद इसमें है। यह जैन न्याय का प्रसिद्ध ग्रंथ है।

*प्रमाण निर्णय* इस ग्रंथ के चार अध्याय हैं एवं इसमें प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि प्रमाणों की समुचित व्याख्या है।

*यशोधर चरित्र* यह एक सर्ग का लघुकाय खंड काव्य है। इसमें मात्र 296 पद्य हैं।

*एकीभाव स्तोत्र* यह 25 पद्यों का स्तोत्र है। इसमें आचार्य वादिराज के आस्थाशील जीवन का प्रतिबिंब झलकता है।

*पार्श्वनाथ चरित्र* यह उच्चकोटि का काव्य है। इसके 12 सर्ग हैं। आचार्य वादिराज के प्रकांड पांडित्य के दर्शन इस ग्रंथ में होते हैं।

*अध्यात्माष्टक* इस ग्रंथ की संज्ञा से स्पष्ट है, इस कृति में 8 पद्य हैं। यह रचना निर्विवाद रुप से आचार्य वादिराज की प्रमाणित नहीं है।

*त्रैलोक्यदीपिका* यह करणानुयोग ग्रंथ है। विद्वानों का अनुमान है, यह रचना आचार्य वादिराज की होनी चाहिए।

*समय-संकेत*

आचार्य वादिराजसूरि आचार्य अकलङ्क के ग्रंथों के व्याख्याता थे, अतः उनसे उत्तरवर्ती हैं।

दक्षिण के सोलंकी वंश के प्रसिद्ध नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा में वादिराजसूरि सम्मान प्राप्त विद्वान् थे।

जयसिंह नरेश के राज्यकाल के कई अभिलेख प्राप्त हैं। इनमें पहला अभिलेख शक संवत् 938 (ईस्वी सन् 1016) का है। अंतिम अभिलेख शक संवत् 964 (ईस्वी सन् 1042) का है। इन अभिलेखों के अनुसार दक्षिण के सोलंकी नरेश जयसिंह देव (प्रथम) ईसा की 11वीं शताब्दी के प्रभावक नरेश थे।

वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथ चरित्र काव्य जयसिंह देव की राजधानी कट्टगेरी में शक संवत् 947 (ईस्वी सन् 1025, विक्रम संवत् 1082) में पूर्ण किया था।

इन प्रमाणों के आधार पर वादिराजसूरि वीर निर्वाण 16वीं (विक्रम की 11वीं) शताब्दी के विद्वान् थे। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचंद्र के वे समकालीन थे।

*शिवालय आचार्य शान्ति का प्रेरणादायी प्रभावक चरित्र* पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 10* 📜

*बहादुरमलजी भण्डारी*

*नमक समझौता*

सांभर झील में नमक के उत्पादन तथा विक्रय में राज्य-शासन को विशेष लाभ नहीं होता था। उसका उत्तरदायित्व जब अंग्रेज सरकार ने संभालना चाहा, तब जोधपुर नरेश जसवंतसिंहजी ने संवत् 1936 (सन् 1879) में बड़े साहब (पोलिटिकल एजेंट) से विचार विमर्श के लिए अपनी ओर से प्रतिनिधि के रूप में भंडारीजी को आबू भेजा। तत्संबंधी सभी बातों का निश्चय करते समय ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि ने ऐसा भाव व्यक्त किया कि मानो अंग्रेज सरकार को इस समझोते में कोई विशेष लाभ होने वाला नहीं है। परंतु भंडारीजी ने वहां अपनी बुद्धिमत्ता तथा दूरदर्शिता का परिचय दिया। उन्होंने अंग्रेज सरकार को नमक दे देने के पश्चात् जोधपुर राज्य को होने वाली हानि का विवरण प्रस्तुत किया। फलतः जो समझौता हुआ उससे राज्य को कोई हानि नहीं उठानी पड़ी। समझौते में निश्चय किया गया कि राज्य को नमक से वर्तमान में जितनी आय हो रही है, प्रतिवर्ष इतनी रकम अंग्रेज सरकार उसे देगी। राज्य की प्रजा के उपभोगार्थ वर्तमान खपत जितना नमक देगी तथा निर्धारित मात्रा से अधिक उत्पादन पर रॉयल्टी देगी। इस समझौते के फलस्वरुप आगे चलकर राज्य को रॉयल्टी के रूप में प्रतिवर्ष लाखों रुपयों की आय होने लगी। उपर्युक्त समझौते में उनकी कार्यकुशलता की प्रशंसा करते हुए अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि ने जोधपुर नरेश जसवंतसिंहजी को एक पत्र भी प्रेषित किया था।

*कर्त्तव्य और दृष्टि*

बहादुरमलजी के मन पर धन कभी छा नहीं सका। कर्त्तव्य-निष्ठा से अपने सारे व्यवहारों को यथावत् निभाते हुए भी उन्होंने परिग्रह को आवश्यकता से अधिक महत्त्व कभी नहीं दिया। वर्षों तक राजकीय कोष की अपार संपत्ति का उत्तरदायित्व वहन करते हुए भी उन्होंने अपनी सम्यक् दृष्टि को कभी भ्रांत नहीं होने दिया।

संवत् 1922 में जयाचार्य ने पाली में चातुर्मास किया। भंडारीजी, उनका परिवार तथा और भी कई श्रावक जोधपुर से वहां दर्शनार्थ गए। उस समय पाली में किसी राजकीय कार्य के लिए रुपयों की अतिरिक्त आवश्यकता हो गई थी। इसीलिए भंडारीजी राजकोष से पांच-सात हजार रुपये अपने साथ ले गए। वह मुद्रा थैलियों में बंद कर सुजानमलजी दुगड़ की देखरेख में एक घोड़ा गाड़ी पर रखी गई। कच्चा मार्ग तथा रात का समय होने से गाड़ी का एक पहिया किसी गड्ढे में चला गया और गाड़ी उलट गई। दुगड़जी एक तेज झटके के साथ नीचे गिर गए। संयोगवश रुपयों की एक थैली उनकी छाती पर आ गिरी। उससे उन्हें कुछ चोट भी आई।

पाली पहुंचने के पश्चात् उपर्युक्त घटना का जिक्र करते हुए दुगड़जी ने भंडारीजी से व्यंग में कहा— "थोड़े से समय की देख-रेख के लिए सौंपे गए इस धन ने जब मेरी ऐसी दुर्दशा कर दी तो आप जैसे व्यक्तियों की क्या दशा होती होगी, जो इसका संपूर्ण उत्तरदायित्व लिए हुए हैं?"

भंडारीजी ने सहज मुस्कान के साथ अपनी सम्यक् दृष्टि का परिचय देते हुए कहा— "परिग्रह तो पाप का मूल ही है। उसकी सार-संभाल कर फल कब अच्छा होने वाला है, परंतु मैं कोई उसे जीवन का उद्देश्य मानकर थोड़े ही चलता हूं। वह तो केवल व्यवहार मात्र है। उसे निभाना अपना कर्त्तव्य मानता हूं और निभाए जाता हूं। उससे अपनी दृष्टि को कभी भ्रांत नहीं होने देता, अतः उसका कटु विपाक कभी मुझे जकड़ नहीं सकेगा। परंतु लगता है आपका मन इन रुपयों में उलझ गया था, अतः इसका परिणाम तत्काल सामने आ गया।" बराबर का व्यंगपूर्ण उत्तर सुनकर सभी लोग हंस पड़े।

*बहादुरमलजी भंडारी के निपुण गृहस्थ जीवन व उच्च विचारों* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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